चौवालीसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: चौवालीसवॉं अध्याय: श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद
भारत ! कन्याके भाई-बन्धु जिस कन्याको धर्मपूर्वक पाणिग्रहण विधिसे दान कर देते हैं अथवा जिसे मूल्य लेकर दे डालते हैं, उस कन्याको धर्मपूर्वक विवाह करनेवाला अथवा मूल्य देकर खरीदनेवाला यदि अपने घरले आये तो इसमें किसी प्रकारका दोष नहीं होता। भला उस दशामें दोषकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? कन्या के कुटुम्बीजनोंकी अनुमती मिलनेपर वैवाहिक मन्त्र और होमका प्रयोग करना चाहिये, तभी वे मन्त्र सिध्द (सफल) होते हैं, अर्थात् वह मन्त्रोंद्वारा विवाह किया हुआ माना जाता है।जिस कन्याका माता-पिता के द्वारा दान नहीं किया गया उसके लिये किये गये मन्त्र-प्रयोग किसी तरह सिध्द नहीं होते, अर्थात् वह विवाह मन्त्रोंद्वारा किया हुआ नहीं माना जाता। पति और पत्नीमें परस्पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है वही श्रेष्ठ मानी जाती हैं, और यदि उसके लिये बन्धु-बान्धवोंका समर्थन प्राप्त हो तब तो और उतम बात हैं। धर्मशास्त्रकी आज्ञाके अनुसार न्यायत: प्राप्त हुई पत्नीको पति अपने प्रारब्धकर्मके अनुसार मिली हुई भार्या समझता हैं। इस प्रकार प्रारब्धकर्मके अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार वह दैवयोगसे प्राप्त हुई पत्नीको ग्रहण करता है।तथा मनुष्योंकी झूठी बातको –उस विवाहको अयोग्य बतानेवाली वार्ताको अग्राहय कर देताहै। चेतयोर्माता तत्सापिण्ड्यं निवर्तते।। अर्थात् ‘यदि वर अथवा कन्याका पिता मूल पुरुषसे सातवी पीढ़ीमें उत्पन्न हुआ है तथा माता पॉंचवी पीढ़ीमें पैदा हुई हैं तो वर और कन्याके लिये सापिण्ड्य पॉंच पीढ़ीतक। सात पीढ़ीमें एक तो पिण्ड देनेवाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! यदि एक वरसे कन्याका विवाह पक्का करके उसका मूल्य ले लिया गया हो और पीछे उससे भी श्रेष्ठ धर्म, अर्थ और कामसे सम्पन्न अत्यन्त योग्य वर मिल जाय तो पहले जिससे मूल्य लिया गया उससे झूठ बोलना-उसको कन्या देनेसे इंकार कर देना चाहिये या नहीं? इसमें दोनों दशाओंमें दोष प्राप्त होता हैं-यदि बन्धुजनोंकी सम्मतिसे मूल्य लेकर निश्चित किये हुए विवाहको उलट दिया जाय तो वचन-भंगका दोष लगता और श्रेष्ठ वरका उल्लघंन करनेसे कन्याके हितको हानि पहुँचानेका प्राप्त होता हैं। ऐसी दशामें कन्यादाता क्या करे; जिससे वह कल्याणका भागी हो? हम तो सम्पूर्ण धर्मोंमें इस कन्यादानरुप धर्मको हो अधिक चिन्तन अर्थात् विचारके योग्य मानते हैं। हम इस विषयमें यथार्थ तत्वको जानना चाहते हैं। आप हमारे पथप्रदर्शक होइये। इन सब बातोंको स्पष्टरुपसे बताइये। मैं आपकी बातें सुननेसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ। अत: आप इस विषयका प्रतिपादन कीजिये। भीष्मजीने कहा- राजन्! मूल्य दे देनेसे ही विवाहका अन्तिम निश्चय नहीं हो पाता (उसमें परिवर्तनकी सम्भावना रहती ही हैं)। यह समझकर ही मूल्य देनेवाला मूल्य देता है और फिर उसे वापस नहीं मॉंगता। सज्जन पुरुष कभी-कभी मूल्य लेकर भी किसी विशेष कारणवश कन्यादान नहीं करतेहैं । कन्याके भाई-बन्धु किसीसे मूल्य तभी माँगते हैं जब वह विपरीत गुण (अधिक अवस्था आदि)-से युक्त होता हैं।यदि वरको बुलाकर कहा जाय कि ‘तुम मेरी कन्याको आभूषण पहनाकर इसके साथ विवाह कर लो। ‘ ऐसा कहनेपर यह उसके लिए आभूषण देकर विवाह करे तो यह धर्मानुकूल ही है। क्योकि इस प्रकार जो कन्याके लिये आभूषण लेकर कन्यादान किया जाता है, व न तो मूल्य हैं और न विक्रय ही; इसलिये कन्याके लिये कोई वस्तु स्वीकार करके कन्याका दान करना सनातन धर्म है।। जो लोग भिन्न–भिन्न व्यक्तियोंसे कहते हैं कि ‘मैं आपको अपनी कन्या दूँगा।‘, जो कहते हैं ‘नहीं दुँगा’ और जो कहते हैं ‘अवश्य दूँगा’उनकी ये सभी बातें कन्या देनेके पहले नहीं कही हुई के ही तुल्य है। जबतक कन्याका पाणिग्रहण संस्कार होनेके पहलेतक वर और कन्या आपसमें एक-दूसरेके लिये प्रार्थना कर सकते हैं। महर्षियोंका मत हैं कि अयोग्य वरको कन्या नहीं देनी चाहिये, क्योंकि सुयोग्य पुरुषको कन्यादान करना ही काम-सम्बन्धी सुख और सुयोग्य संतानकी उत्पतिका कारण है। ऐसा मेरा विचार है। कन्याके क्रय-विक्रयमें बहुत-से दोष है। इस बातको तुम अधिक कालतक सोचने-विचारनेके बाद स्वयं समझ लोगे। केवल मूल्य दे देनेसे विवाहका अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता है। पहले भी कभी ऐसा नहीं हुआ था, इस विषयमें तुम सुनो। मैं विचित्रवीर्यके विवाहके लिये मगध, काशी तथा कोशलदेशके समस्त वीरोंको पराजित करके काशिराजकी दो* कन्याओंको हर लाया था। उनमेंसे एक कन्या अम्बा अपना हाथ शाल्वराजके हाथमें दे चुकी थी; अर्थात मन-ही-मन उसको अपना पति मान चुकी थी। दूसरी (दो कन्याओं)-का काशिराजको शुल्क प्राप्तहो गया था। इसलिये मेरे पिता (चाचा)कुरुवंशी बाहलीकने वहीं कहा कि ‘जो कन्या पाणिगृहीत हो चुकी है उसका त्याग कर दो और दूसरी कन्याका (जिनके लिये शुल्कमात्र लिया गया है) विवाह करो।‘ मुझे चाचाजीके इस कथनमें संदेह था, इसलिये मैंने दूसरोंसे भी इसके विषयमें पूछा। परंतु इस विषयमें मेरे चाचाजीकी बहुत प्रबल इच्छा थी धर्मका पालन हो (अत: वे पाणिगृहिता कन्याके त्यागपर अधिक जोर दे रहे थे)। राजन् ! तदनन्तर मैं आचार जाननेकी इच्छासे बोला-‘पिताजी ! मैं इस विषय में यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ कि परम्परागत आचार क्या है?’।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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