"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 40-52" के अवतरणों में अंतर

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==इकहत्तरवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
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==एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: इकहत्तरवाँ अध्याय: श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद </div>
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‘घी के अभाव में जो व्रत-नियम से युक्त हो तिलमयी धेनु को दान करता है, वह उस धेनु के द्वारा संकट से उद्वार पाकर दूध की नदी में आनन्दित होता है। ‘तिल के अभाव में जो व्रतशील एवं नियमनिष्ट होकर जलमयी धेनु का दान करता है, वह अभीष्ट वस्तुओं को बहाने वाली इस शीतल नदी के निकट रहकर सुख भोगता है’। धर्म से कभी च्युत न होने वाले पूज्य पिताजी। इन प्रकार धर्मराज ने मुझे वहां यह सब स्थान दिखाये। वह सब देखकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। तात। मैं आपके लिये यह प्रिय वृतान्त निवेदन करता हूं कि मैंने वहां थोड़े-से ही धन से सिद्व होने वाला यह गोदान रूप महान यज्ञ प्राप्त किया है। वह यहां वेदविधि के अनुसार मुझसे प्रकट होकर सवत्र प्रचलित होगा। आपके द्वारा मुझे जो श्राप मिला, वह वास्तम में मुझपर अनुग्रह के लिये ही प्राप्त हुआ था, जिससे मैंने यमलोक में जाकर वहां यमराज को देखा। महात्मन। वहां दान के फल को प्रत्यक्ष देकर मैं संदेह रहित दान धर्मों का अनुष्ठान करूंगा। महर्षे। धर्मराज ने बारंबार प्रसन्न होकर मुझसे यह भी कहा था कि ‘जो लोग दान से सदा पवित्र होना चाहें’ वे विशेष रूप से गोदान करें । ‘मुनिकुमार। धर्म निर्दोष विषय है। तुम धर्म की अवहेलना न करना। उत्तम देश, काल प्राप्त होने पर सुपात्र को दान देते रहने चाहिये। अतः तुम्हें सदा ही गोदान करचा उचित है। इस विषय में तुम्हारे भीतर कोई संदेह नहीं होना चाहिये। ‘पूर्वकाल में शांत चित्त वाले पुरूषों ने दान के मार्ग में स्थित हो नित्य ही गौओं का दान किया था। वे अपनी उग्र तपस्या के विषय में संदेह न रखते हुए भी यथाशक्ति दान दान देते ही रहते थे। ‘कितने ही शुद्व चित्त, श्रद्वालु एवं पुण्यात्मा पुरूष ईष्या का त्याग करके समय पर यथाशक्ति गोदान करके परलोक में पहुंचकर अपने पुण्यमय शील-स्वभाव के कारण स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। ‘न्यायपूर्वक उपार्जित के किये हुए इस गोधन का ब्राह्माणों को दान करना चाहिये तथा पात्र की परीक्षा करके सुपात्र को दी हुई गाय उसके घर पहुंचा देना चाहिये और किसी भी शुभ अष्टमी से आरम्भ करके दस दिनों तक मनुष्य को, गौरस, गोबर अथवा गौमूत्र का आहार करके रहना चाहिये। ‘एक बैल का दान करने से मनुष्य देवताओं का सेवक होता है। दो बैलों का दान करने पर उसे वेद विद्या की प्राप्ति होती है। उन बैलों से जुते हुए छकड़े का दान करने से तीर्थ सेवन का फल प्राप्त होता है और कपिला गाय के दान से समस्त पापों का परित्याग हो जाता है। ‘मनुष्य न्यायतः प्राप्त हुई एक भी कपिला गाय का दान करके सभी पापों से मुक्त हो जाता है। गौरस से बढकर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; इसलिये विद्वान पुरूष गोदान का महादान बतलाते हैं। गौऐं दूध देकर सम्पूर्ण लोकों का भूख के कष्ट से उद्वार करती हैं। ये लोक में सब के लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बात को जानकर भी जो गौंओं के प्रति सौहार्द का भाव नहीं रखता वह पाप आत्मा मनुष्य नरक में पड़ता है।
  
धर्म से कभी च्युत न होने वाले पूज्य पिताजी। इन प्रकार धर्मराज ने मुझे वहां यह सब स्थान दिखाये। वह सब देखकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। तात। मैं आपके लिये यह प्रिय वृतान्त निवेदन करता हूं कि मैंने वहां थोड़े-से ही धन से सिद्व होने वाला यह गोदान रूप महान यज्ञ प्राप्त किया है। वह यहां वेदविधि के अनुसार मुझसे प्रकट होकर सवत्र प्रचलित होगा। आपके द्वारा मुझे जो श्राप मिला, वह वास्तम में मुझपर अनुग्रह के लिये ही प्राप्त हुआ था, जिससे मैंने यमलोक में जाकर वहां यमराज को देखा। महात्मन। वहां दान के फल को प्रत्यक्ष देकर मैं संदेह रहित दान धर्मों का अनुष्ठान करूंगा। महर्षे। धर्मराज ने बारंबार प्रसन्न होकर मुझसे यह भी कहा था कि ‘जो लोग दान से सदा पवित्र होना चाहें’ वे विशेष रूप से गोदान करें । ‘मुनिकुमार। धर्म निर्दोष विषय है। तुम धर्म की अवहेलना न करना। उत्तम देश, काल प्राप्त होने पर सुपात्र को दान देते रहने चाहिये। अतः तुम्हें सदा ही गोदान करचा उचित है। इस विषय में तुम्हारे भीतर कोई संदेह नहीं होना चाहिये। ‘पूर्वकाल में शांत चित्त वाले पुरूषों ने दान के मार्ग में स्थित हो नित्य ही गौओं का दान किया था। वे अपनी उग्र तपस्या के विषय में संदेह न रखते हुए भी यथाशक्ति दान दान देते ही रहते थे। ‘कितने ही शुद्व चित्त, श्रद्वालु एवं पुण्यात्मा पुरूष ईष्या का त्याग करके समय पर यथाशक्ति गोदान करके परलोक में पहुंचकर अपने पुण्यमय शील-स्वभाव के कारण स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। ‘न्यायपूर्वक उपार्जित के किये हुए इस गोधन का ब्राह्माणों को दान करना चाहिये तथा पात्र की परीक्षा करके सुपात्र को दी हुई गाय उसके घर पहुंचा देना चाहिये और किसी भी शुभ अष्टमी से आरम्भ करके दस दिनों तक मनुष्य को, गौरस, गोबर अथवा गौमूत्र का आहार करके रहना चाहिये। ‘एक बैल का दान करने से मनुष्य देवताओं का सेवक होता है। दो बैलों का दान करने पर उसे वेद विद्या की प्राप्ति होती है। उन बैलों से जुते हुए छकड़े का दान करने से तीर्थ सेवन का फल प्राप्त होता है और कपिला गाय के दान से समस्त पापों का परित्याग हो जाता है। ‘मनुष्य न्यायतः प्राप्त हुई एक भी कपिला गाय का दान करके सभी पापों से मुक्त हो जाता है। गौरस से बढकर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; इसलिये विद्वान पुरूष गोदान का महादान बतलाते हैं। गौऐं दूध देकर सम्पूर्ण लोकों का भूख के कष्ट से उद्वार करती हैं। ये लोक में सब के लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बात को जानकर भी जो गौंओं के प्रति सौहार्द का भाव नहीं रखता वह पाप आत्मा मनुष्य नरक में पड़ता है। ‘जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ ब्राह्माण को सहस्त्र, शत, दस अथवा पांच गौओं का उनके अच्छे बछड़ों सहित दान करता है अथवा एक ही गाय देता है, उसके लिये वह गौ परलोक में पवित्र तीर्थों वाली नदी बन जाती है। ‘प्राप्ति, पुष्टि तथा लोक रक्षा करने के द्वारा गौऐं इस पृथ्वी पर सूर्य की किरणों के समान मानी गयी हैं। एक ही ‘गो’ शब्द धेनु और सूर्य-किरणों का बोधक है। गौओं से ही संतति और उपभोग प्राप्त होते हैं; अतः गोदान करने वाला मनुष्य किरणों का दान करने वाले सूर्य के ही समान माना जाता है। ‘शिष्य जब गोदान करने लगे, तब उसे ग्रहण करने के लिये गुरू को चुने। यदि गुरू ने वह गोदान स्वीकार कर लिया तो शिष्यनिश्‍चय ही स्वर्गलोक में जाता है। विधि के जानने वाले पुरूषों के लिये यह गोदान महान धर्म है। अन्य सब विधियां इस विधि में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं। ‘तुम न्याय के अनुसार गोधन प्राप्त करके पात्र की परीक्षा करने के पष्चात श्रेष्ठ ब्राह्माणों को उनका दान कर देना और दी हुई वस्तुओं को ब्राह्माण के घर पहुंचा देना। तुम पुण्यात्मा का पुण्य कार्य में प्रवृत रहने वाले हो; अतः देवता, मनुष्य तथा हम लोग तुमसे ही धर्म की ही आशा रखते हैं’। ब्रह्मर्षें। धर्मराज के ऐसा कहने पर मैंने उन धर्मात्मा देवता को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और फिर उनकी आज्ञा लेकर मैं आपके चरणों के समीप लौअ आया।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 31-39|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 53-55}}
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें यमराज का वाक्य नामक इकहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
 
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 71 श्लोक 25-41|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 72 श्लोक 1-12}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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११:०२, ७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद

‘घी के अभाव में जो व्रत-नियम से युक्त हो तिलमयी धेनु को दान करता है, वह उस धेनु के द्वारा संकट से उद्वार पाकर दूध की नदी में आनन्दित होता है। ‘तिल के अभाव में जो व्रतशील एवं नियमनिष्ट होकर जलमयी धेनु का दान करता है, वह अभीष्ट वस्तुओं को बहाने वाली इस शीतल नदी के निकट रहकर सुख भोगता है’। धर्म से कभी च्युत न होने वाले पूज्य पिताजी। इन प्रकार धर्मराज ने मुझे वहां यह सब स्थान दिखाये। वह सब देखकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। तात। मैं आपके लिये यह प्रिय वृतान्त निवेदन करता हूं कि मैंने वहां थोड़े-से ही धन से सिद्व होने वाला यह गोदान रूप महान यज्ञ प्राप्त किया है। वह यहां वेदविधि के अनुसार मुझसे प्रकट होकर सवत्र प्रचलित होगा। आपके द्वारा मुझे जो श्राप मिला, वह वास्तम में मुझपर अनुग्रह के लिये ही प्राप्त हुआ था, जिससे मैंने यमलोक में जाकर वहां यमराज को देखा। महात्मन। वहां दान के फल को प्रत्यक्ष देकर मैं संदेह रहित दान धर्मों का अनुष्ठान करूंगा। महर्षे। धर्मराज ने बारंबार प्रसन्न होकर मुझसे यह भी कहा था कि ‘जो लोग दान से सदा पवित्र होना चाहें’ वे विशेष रूप से गोदान करें । ‘मुनिकुमार। धर्म निर्दोष विषय है। तुम धर्म की अवहेलना न करना। उत्तम देश, काल प्राप्त होने पर सुपात्र को दान देते रहने चाहिये। अतः तुम्हें सदा ही गोदान करचा उचित है। इस विषय में तुम्हारे भीतर कोई संदेह नहीं होना चाहिये। ‘पूर्वकाल में शांत चित्त वाले पुरूषों ने दान के मार्ग में स्थित हो नित्य ही गौओं का दान किया था। वे अपनी उग्र तपस्या के विषय में संदेह न रखते हुए भी यथाशक्ति दान दान देते ही रहते थे। ‘कितने ही शुद्व चित्त, श्रद्वालु एवं पुण्यात्मा पुरूष ईष्या का त्याग करके समय पर यथाशक्ति गोदान करके परलोक में पहुंचकर अपने पुण्यमय शील-स्वभाव के कारण स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। ‘न्यायपूर्वक उपार्जित के किये हुए इस गोधन का ब्राह्माणों को दान करना चाहिये तथा पात्र की परीक्षा करके सुपात्र को दी हुई गाय उसके घर पहुंचा देना चाहिये और किसी भी शुभ अष्टमी से आरम्भ करके दस दिनों तक मनुष्य को, गौरस, गोबर अथवा गौमूत्र का आहार करके रहना चाहिये। ‘एक बैल का दान करने से मनुष्य देवताओं का सेवक होता है। दो बैलों का दान करने पर उसे वेद विद्या की प्राप्ति होती है। उन बैलों से जुते हुए छकड़े का दान करने से तीर्थ सेवन का फल प्राप्त होता है और कपिला गाय के दान से समस्त पापों का परित्याग हो जाता है। ‘मनुष्य न्यायतः प्राप्त हुई एक भी कपिला गाय का दान करके सभी पापों से मुक्त हो जाता है। गौरस से बढकर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; इसलिये विद्वान पुरूष गोदान का महादान बतलाते हैं। गौऐं दूध देकर सम्पूर्ण लोकों का भूख के कष्ट से उद्वार करती हैं। ये लोक में सब के लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बात को जानकर भी जो गौंओं के प्रति सौहार्द का भाव नहीं रखता वह पाप आत्मा मनुष्य नरक में पड़ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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