"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-11" के अवतरणों में अंतर

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प्रथम अध्‍याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 1-11

’ब‍दरिका श्रम निवासी प्रसिद्ध ऋषि श्री नारायण तथा श्रीनर (अन्‍तर्यामी नारायण स्‍वरूप भगवान् श्रीकृष्‍ण ‘उनके नित्‍यासखा नरस्‍वरूप नरश्रेष्‍ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्‍वती और उसके वक्‍ता महर्षि वेदव्‍यास को नमस्‍कार कर (आसुरी सम्‍पत्तियों का नाश करके अन्‍त: करण पर दैवी सम्‍पत्तियों को विजय प्राप्‍त करने वाले जय[१] (महाभारत एवं अन्‍य इतिहास–पुराणादि) का पाठ करना चाहिये।[२] ॐकारस्‍वरूप भगवान वासुदेव को नमस्‍कार है। ॐकारस्‍वरूप भगवान पिता माह को नमस्‍कार है। ॐकारस्‍वरूप प्रजापतियों को नमस्‍कार है। ॐकारस्‍वरूप श्रीकृष्‍ण द्वैपायन को नमस्‍कार है। ॐकारस्‍वरूप सर्वविघ्‍नाशक विनायकों को नमस्‍कार है।
एक समय की बात है, नैमिषारण्‍य[३] में कुलपति[४] महर्षि शौनक के बारह वर्षो तक चालू रहने वाले सत्र[५] में जब उत्‍तम एवं कठोर ब्रह्मर्षिगण अवकाश के समय सुख पूर्वक बैठे थे, सूतकुल को आनन्दित करने वाले लोमहर्षण पुत्र उग्र श्रवा सौति स्‍वयं कौतूहलवशं उन ब्रह्मरर्शियों के समीप बड़े विनीतभाव से आये। वे पुराणों के विद्वान् और कथावाचक थे। उस समय नैमिषारण्‍यवासियों के आश्रम में पधारे हुए उन उग्रश्रवाजी को, उनसे चित्र-विचित्र कथाएँ सुनने के लिये, सब तपस्वियों ने वहीं घेर लिया। उग्रश्रवाजी ने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियों का अभिवादन किया और ‘आप लोगों की तपस्‍या सुख पूर्वक बढ़ रही है न?,इस प्रकार कुशल प्रश्र किया। उन सत्‍पुरूषों ने भी उग्र श्रवाजिका भली भाँति स्‍वागत-सत्‍कार किया। इसके अनन्‍तर जब वे सभी तपस्‍वी अपने-अपने आसन पर विराजमान हो गये, तब लोमहर्पण पुत्र उग्रश्रवाजी ने भी उनके बातये हुए आसन को विनय पूर्वक ग्रहण किया। तत्‍पश्‍चात यह देखकर कि उग्रश्रवाजी थकावट से रहित होकर आराम से बैठे हुए हैं, किसी म‍हर्षि ने बात चीत का प्रसंग उपस्थित करते हुए यह प्रश्‍न पूछा। कमलनयन सूतकुमार ! आपका शुभागमन कहाँ से हो रहा है ? अब तक आपने कहाँ आनन्‍द पूर्वक समय बिताया है? मेरे इस प्रश्‍न का उत्‍तर दीजिये। उग्रश्रवाजी एक कुशल वक्‍ता थे। इस प्रकार प्रश्‍न किये जाने पर वे शुद्ध अन्‍त: करण वाले मुनियों की उस विशाल सभा में ऋषियों तथा राजाओं से सम्‍बन्‍ध रखने वाली उत्‍तम एवं यर्थाथ कथा कहने लगे। उग्रश्रवाजी ने कहा–महर्षियो ! चक्रवर्ती सम्राट् महात्‍मा राजर्षि परिक्षित-नन्‍दन जनमेजय के सर्पयज्ञ मे उन्‍ही कें पास वैशम्‍पायन ने श्रीकृष्‍ण द्वैपायन व्‍यास जी के द्वारा निर्मित परम पुण्‍यमयी चित्र-विचित्र अर्थ से युक्‍त महाभारत की जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कही हैं, उन्‍हे सुनकर मैं आ रहा हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जय शब्‍द का अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है। आगे चलकर कहा है – जयो नामेतिहासोअयम् इत्‍यादि। अथवा अठारहों पुराण, वाल्‍मीकि रामायण आदि सभी आर्ष-ग्रन्‍थें की संज्ञा ‘जय’ है।
  2. मंगलाचरण का श्‍लोक देखने पर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्‍द का अर्थ है भगवान श्री कृष्‍ण और नरोत्‍तम नरका अर्थ है नरल अर्जुन। महाभारत में प्राय: सर्वत्र इन्‍हीं दोनों का नर-नारायण के अवतार के रूप में उल्‍लेख हुआ है। इससे मंगलाचरण में ग्रन्‍थ के इन दोनो प्रधान पात्र तथा भगवान के मूर्ति-युगल को प्रणाम करना मंगलाचरण को नमस्‍कारात्‍मक होने के साथ ही वस्‍तु निर्देशात्‍मक भी बना देता है। इसलिये अनुवाद में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का ही उल्लेख किया गया है।
  3. नैमिष नाम की व्‍यवस्‍था वाराह पुराण में इस प्रकार मिलती है – एवं कृत्‍वा ततो देवो मुनि गोरमुर्ख तदा । उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।। अरण्‍येअस्मिस्‍ततस्‍वत्‍वे तन्‍नैमिषारण्‍यसंज्ञितम् ।। ऐसा करके भगवान ने उस समय गौरमुख मुनि से कहा–‘मैने निभिषमात्र में इस अरण्‍य (वन) के भीतर इस दानव–सेना का संहाय किया है. अत: यह वन नैभिषारण्‍य के नाम से प्रसिद्ध होगा।
  4. जो विद्वान् ब्राह्मण अकेला ही दस सहस्‍त्र जिज्ञासु व्‍यक्तियों का अत्र-दानादिके द्वारा भरण-पोषण करता है, उसे कुलपति कहते हैं।
  5. जो कार्य अनेक व्‍यक्तियों के सहयोग से किया गया हो और जिसमें बहुतो को ज्ञान, सदाचार आदि कि शिक्षा तथा अत्र-वस्‍त्रादि वस्‍तुएँ दी जाती हों, जो बहुतो के लिये तृप्ति कारक एवं उपयोगी हो, उसे ‘सत्र’ कहते हैं।

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