"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 147-159" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 147-159 का हिन्दी अनुवाद</div>  
|+ <font size="+1">महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 172-191</font>
 
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जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराट ने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तरा को [[अर्जुन]] के हाथ अर्पित कर दिय, परंतु अर्जुन ने अपने लिये नहीं, अपने पुत्र के लिये उसे स्वीकार किया, संजय ! उसी दिन से मैं विजय की आशा नहीं करता था। (वामनावतार के समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डग में ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मी पति भगवान [[श्रीकृष्ण]] पूरे हृदय से [[पाण्डव|पाण्डवों]] की कार्य-सिद्धि के लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। जब [[देवर्षि नारद]] के मुख से मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोक में भली भाँति देखा है, तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण लोक कल्याण के लिये शान्ति की इच्छा से आये हुए हैं और [[कौरव]]-पाण्डवों में शान्ति सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयास में असफल होकर लौट गये तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। संजय ! जब मैंने सुना कि [[कर्ण]] और दुर्योधन दोनों ने यह सलाह की है कि श्रीकृष्ण को कैद कर लिया जाये और श्रीकृष्ण ने अपने-आपको अनेक रूपों में विराट या अखिल विश्व के रूप में दिखा दिया, तभी से मैंने विजयाशा त्याग दी थी। जब मैंने सुना यहाँ से श्रीकृष्ण के लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथ के सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हदय की आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, तब श्री कृष्ण ने उसे भली भाँति सान्त्वना दी। संजय ! तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवों के मन्त्री हैं और [[शान्तनु]] नन्दन भीष्म तथा [[भारद्वाज]] [[द्रोणाचार्य]] उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय-प्राप्ति किं‍चित भी आशा नहीं रही। जब कर्ण ने भीष्म से यह बात कह दी कि जब तक तुम युद्ध करते रहोगे तब तक मैं पाण्डवों से नहीं लडूँगा, इतना ही नहीं-वह सेना को छोड़कर हट गया, संजय! तभी से मेरे मन में विजय के लिये कुछ भी आशा नहीं रह गयी। संजय जब मैंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष-ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकटठी हो गयी हैं, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि रथ के पिछले भाग में स्थित मोहग्रस्त अर्जुन अत्यन्त दुखी हो रहे थे और श्रीकृष्ण ने अपने शरीर में उन्हें सब लोकों का दर्शन करा दिया, तभी मेरे मन से विजय की सारी आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगण में प्रति दिन दस हजार रथियों का संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवों का कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा हैं, संजय ! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्म ने युद्ध भूमि में पाण्डवों को अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवों ने प्रसन्न होकर उनकी उस आज्ञा का पालन किया। संजय ! तभी मुझे विजय की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अर्जुन ने सामने [[शिखण्डी]] को खड़ा करके उसकी ओट से सर्वथा अजय अत्यन्त शूर भीष्म पितामह को युद्ध भूमि में गिरा दिया। संजय ! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि हमारे वृद्धवीर [[भीष्म |भीष्म पितामह]] अधिकांश सोमकवंशी योद्धाओं का वध करके अर्जुन के बाणों से क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्या पर शयन कर रहे हैं, संजय ! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो सकती। संजय ! जब मैंने सुना कि [[शान्तनु]] नन्दन भीष्म पितामह ने शरशय्यापर सोते समय अर्जुन को संकेत किया और उन्होंने बाण से धरती का भेदन करके उनकी प्यास बुझा दी, तब मैंने विजय की आशा त्याग दी। जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभ स्थान में संयुक्त होकर पाण्डवों की विजय की सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रति दिन हम लोगों को डरा रहे हैं। संजय ! तब मैंने विजय के सम्बन्ध में अपनी आशा छोड़ दी। संजय ! हमारे आचार्य द्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगण में अपने अस्त्र-शस्त्र के अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर शिरोमणि पाण्डवों में से किसी एक का भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजय की आशा त्याग दी। संजय ! मेरी विजय की आशा तो तभी नहीं रही, जब मैंने सुना कि मेरे जो महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुन के वध के लिये मोर्चे पर डटे हुए थे, उन्हें अकेले ही अर्जुन ने मौत के घाट उतार दिया। संजय ! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथ में शस्त्र उठाकर उस चक्रव्यूह की रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु [[सुभद्रा|सुभद्रानन्दन]] वीर अभिमन्यु अकेला ही छिन्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब यह बात मेरे कानों तक पहुँची, तभी मेरी विजय की आशा लुप्त हो गयी।
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राजपूत यज्ञ में महापराक्रमी [[पाण्डु]] पुत्र [[युधिष्ठिर]] की सर्वोपरि समृद्धि, सम्पत्ति देखकर तथा सभा भवन की सीढि़यों पर चढ़ते और उस भवन को देखते समय भीमसेन के द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्ष में भर गया था। युद्ध में पाण्डवों को हराने की शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्ध के लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परन्तु पाण्डवों की उस उत्तम सम्पत्ति को हथियाने के लिये उसने गान्धारराज शकुनि को साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलने का ही निश्चय किया। संजय ! इस प्रकार जुआ खेलने का निश्चय हो जाने पर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समय पर विजय की आशा के विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो। सूतनन्दन ! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनों को सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ। संजय ! जब मैंने सुना कि अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरती पर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओं के सामने, जब कि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक [[द्रौपदी]] को ले आया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। संजय ! तब मैंने सुना कि अर्जुन ने द्वारका में मधुवंश की राजकुमारी (और श्रीकृष्ण की बहिन) [[सुभद्रा]] का बलपूर्वक हरण कर लिया और श्री कृष्ण एवं [[बलराम]] (इस घटना का विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्त में आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि खाण्डवदाह के समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुन ने उसे अपने दिव्य बाणों से रोक दिया तथा [[अग्नि|अग्नि देव]] को तृप्त किया, संजय ! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि लाक्षाभवन से अपनी माता सहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थ सिद्धि के प्रयत्न में तत्पर हैं। संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि रंगभूमि में लक्ष्य- बेध करके अर्जुन ने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं। संजय ! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 156-171|अगला= महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 192-210}}
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जब मैंने सुना कि मगधराज-[[शिरोमणि]], क्षत्रिय जाति के जाज्वल्यमान रत्न [[जरासन्ध]] को [[भीम|भीमसेन]] ने उसकी राजधानी में जाकर बिना अस्त्र-शस्त्र हाथों से ही चीर दिया। संजय ! मेरी जीत की आशा तो तभी टूट गयी। जब मैंने सुना कि दिग्विजय के समय [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने बल पूर्वक बड़े-बडे़ भूमिपतियों को अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया, संजय ! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजय की कोई आशा नहीं है। संजय ! जब मैंने सुना कि दुःखिता [[द्रौपदी]] रजस्वलावस्था में आँखों में आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियों के रहते हुए भी अनाथ के समान भरी सभा में घसीट कर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्द बुद्धि दुःशासन ने द्रौपदी का वस्त्र खींचा और वहाँ वस्त्रों का इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

११:११, १८ जुलाई २०१५ का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 147-159 का हिन्दी अनुवाद

राजपूत यज्ञ में महापराक्रमी पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर की सर्वोपरि समृद्धि, सम्पत्ति देखकर तथा सभा भवन की सीढि़यों पर चढ़ते और उस भवन को देखते समय भीमसेन के द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्ष में भर गया था। युद्ध में पाण्डवों को हराने की शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्ध के लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परन्तु पाण्डवों की उस उत्तम सम्पत्ति को हथियाने के लिये उसने गान्धारराज शकुनि को साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलने का ही निश्चय किया। संजय ! इस प्रकार जुआ खेलने का निश्चय हो जाने पर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समय पर विजय की आशा के विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो। सूतनन्दन ! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनों को सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ। संजय ! जब मैंने सुना कि अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरती पर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओं के सामने, जब कि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक द्रौपदी को ले आया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। संजय ! तब मैंने सुना कि अर्जुन ने द्वारका में मधुवंश की राजकुमारी (और श्रीकृष्ण की बहिन) सुभद्रा का बलपूर्वक हरण कर लिया और श्री कृष्ण एवं बलराम (इस घटना का विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्त में आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि खाण्डवदाह के समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुन ने उसे अपने दिव्य बाणों से रोक दिया तथा अग्नि देव को तृप्त किया, संजय ! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि लाक्षाभवन से अपनी माता सहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थ सिद्धि के प्रयत्न में तत्पर हैं। संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि रंगभूमि में लक्ष्य- बेध करके अर्जुन ने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं। संजय ! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी।

जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि, क्षत्रिय जाति के जाज्वल्यमान रत्न जरासन्ध को भीमसेन ने उसकी राजधानी में जाकर बिना अस्त्र-शस्त्र हाथों से ही चीर दिया। संजय ! मेरी जीत की आशा तो तभी टूट गयी। जब मैंने सुना कि दिग्विजय के समय पाण्डवों ने बल पूर्वक बड़े-बडे़ भूमिपतियों को अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया, संजय ! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजय की कोई आशा नहीं है। संजय ! जब मैंने सुना कि दुःखिता द्रौपदी रजस्वलावस्था में आँखों में आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियों के रहते हुए भी अनाथ के समान भरी सभा में घसीट कर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्द बुद्धि दुःशासन ने द्रौपदी का वस्त्र खींचा और वहाँ वस्त्रों का इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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