"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 28-42" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== प्रथम अध्‍याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)== {| style="background:no...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति ५: पंक्ति ५:
 
| style="width:50%; text-align:justify; padding:10px;" valign="top"|
 
| style="width:50%; text-align:justify; padding:10px;" valign="top"|
 
पृथ्वी पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन कते रहेंगे। इस महाभारत की तीनों लोकों में एक महान ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्ताभर दोनों ही रूपों में अध्ययन और अध्यािपन की परम्परा के द्वारा इसे अपने हृदय में धारण करते हैं। यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दयविन्याठस से अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टमप् आदि नाना प्रकार के छन्दह भी इसमें प्रयुक्तद हुए है; अत: यह ग्रन्थ विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। हिमालयो की पवित्र तलह्टी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्माा व्यास जी स्नारनादि सें शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पालन पूर्वक शान्त चित हो वे तपस्याव में संलग्न थे। ध्यासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वृरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्ता तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)। सृष्टि के प्रारम्भय में जब यहाँ वस्तुु विशेष या नाम रूप आदि का मान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान् एवं दिव्य अण्डहको चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें  
 
पृथ्वी पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन कते रहेंगे। इस महाभारत की तीनों लोकों में एक महान ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्ताभर दोनों ही रूपों में अध्ययन और अध्यािपन की परम्परा के द्वारा इसे अपने हृदय में धारण करते हैं। यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दयविन्याठस से अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टमप् आदि नाना प्रकार के छन्दह भी इसमें प्रयुक्तद हुए है; अत: यह ग्रन्थ विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। हिमालयो की पवित्र तलह्टी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्माा व्यास जी स्नारनादि सें शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पालन पूर्वक शान्त चित हो वे तपस्याव में संलग्न थे। ध्यासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वृरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्ता तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)। सृष्टि के प्रारम्भय में जब यहाँ वस्तुु विशेष या नाम रूप आदि का मान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान् एवं दिव्य अण्डहको चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें  
सत्य स्वपरूप ज्योंतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तहर्यामीरूप से प्रविष्टर हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है<ref>1‘तत् सृष्टूा  तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्) ब्रह्मने अण्डस एवं पिण्डरकी रचना करके मानो स्व्यं ही उसमें प्रवेश किया हैं।</ref> वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यशक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत् रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डु से ही प्रथम देहधारी,प्रजापालक प्रभु, देवगुरू [[पितामह]] [[ब्रह्म]] तथा [[रूद्र]], [[मनु]], प्रजापति, प्रमेष्ठी्, प्रचेताओं के पुत्र, [[दक्ष]] तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पेश्चात इक्कीतस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।<ref>2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्डयपुराण का वचन)</ref>जिन्हे मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषिमुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा [[विष्‍णु]] रूप पुरूष और उनकी विभूति रूप [[विश्व‍ देव]], आदित्यआ, वसु एवं [[अश्विनी कुमार]] आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्रुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष ओर दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं।  
+
सत्य स्वपरूप ज्योंतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तहर्यामीरूप से प्रविष्टर हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है<ref>1‘तत् सृष्टूा  तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्) ब्रह्मने अण्डस एवं पिण्डरकी रचना करके मानो स्व्यं ही उसमें प्रवेश किया हैं।</ref> वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यशक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत् रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डु से ही प्रथम देहधारी,प्रजापालक प्रभु, देवगुरू [[पितामह]] [[ब्रह्म]] तथा [[रूद्र]], [[मनु]], प्रजापति, प्रमेष्ठी्, प्रचेताओं के पुत्र, [[दक्ष]] तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पेश्चात इक्कीतस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।<ref>2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्डयपुराण का वचन)</ref>जिन्हे मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषिमुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा [[विष्‍णु]] रूप पुरूष और उनकी विभूति रूप [[विश्व‍ देव]], आदित्यआ, वसु एवं [[अश्विनी कुमार]] आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्रुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष ओर दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं। <br />
2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्डयपुराण का वचन)
+
संवत्समर, ऋतु, मास, पक्ष्, दिन तथा रात्रि का प्राकटय भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिबा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डव से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थाखर-जगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में बिलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्हा प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कृल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पक के अन्त में उनका लय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्तो काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य धूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उभ्द्र व और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप से तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है। पूर्वकाल में दिव:पुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभाबसु, सविता, ऋचीक, अर्, भानु, आशा वह तथा रवि ये सब शब्दल विवस्वाुन् के बोधक माने गये हैं, इन सब में जो अन्तिम ‘रवि’ हैं वे ‘मह्म’ (मही-पृथवी में गर्म स्थामपन करने वाले एवं पूज्यब) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट हैं और देवभ्राट के तनय सुभ्राट माने गये हैं। सुभ्राट के तीन पुत्र हुए, वे सब के सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों  के) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-दशज्योवति, शतज्योतति तथा सहस्त्र ज्योकति। महात्मा  दशज्योशति के दस हजार पुत्र हुंए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योति के हुए। फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् इस लाख पुत्र सहस्त्र ज्योति के हुए। उन्हीं से यह कुरूवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाु कुके वंश तथा अन्य राजर्षियों के सब वंश चले। प्राणियों की सृष्टि परम्पतरा और बहुत से वंश भी इन्हीं से प्रकट हो विस्तार को प्राप्त हुए हैं।
संवत्समर, ऋतु, मास, पक्ष्, दिन तथा रात्रिका प्राकटय भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिबा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डव से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थाखर-जगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में बिलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्हा प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कृल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पक के अन्त में उनका लय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्तो काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य धूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उभ्द्र व और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप से तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है। पूर्वकाल में दिव:पुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभाबसु, सविता, ऋचीक, अर्, भानु, आशा वह तथा रवि ये सब शब्दल विवस्वाुन् के बोधक माने गये हैं, इन सब में जो अन्तिम ‘रवि’ हैं वे ‘मह्म’ (मही-पृथवी में गर्म स्थामपन करने वाले एवं पूज्यब) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट हैं और देवभ्राट के तनय सुभ्राट माने गये हैं। सुभ्राट के तीन पुत्र हुए, वे सब के सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों  के) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-दशज्योवति, शतज्योतति तथा सहस्त्र ज्योकति। महात्मा  दशज्योशति के दस हजार पुत्र हुंए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योति के हुए। फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् इस लाख पुत्र सहस्त्र ज्योति के हुए। उन्हीं से यह कुरूवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाु कुके वंश तथा अन्य राजर्षियों के सब वंश चले। प्राणियों की सृष्टि परम्पतरा और बहुत से वंश भी इन्हीं से प्रकट हो विस्तार को प्राप्त हुए हैं।
 
 
|}
 
|}
  

११:४३, २७ जून २०१५ का अवतरण

प्रथम अध्‍याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 26-37

पृथ्वी पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन कते रहेंगे। इस महाभारत की तीनों लोकों में एक महान ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्ताभर दोनों ही रूपों में अध्ययन और अध्यािपन की परम्परा के द्वारा इसे अपने हृदय में धारण करते हैं। यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दयविन्याठस से अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टमप् आदि नाना प्रकार के छन्दह भी इसमें प्रयुक्तद हुए है; अत: यह ग्रन्थ विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। हिमालयो की पवित्र तलह्टी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्माा व्यास जी स्नारनादि सें शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पालन पूर्वक शान्त चित हो वे तपस्याव में संलग्न थे। ध्यासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वृरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्ता तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)। सृष्टि के प्रारम्भय में जब यहाँ वस्तुु विशेष या नाम रूप आदि का मान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान् एवं दिव्य अण्डहको चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें सत्य स्वपरूप ज्योंतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तहर्यामीरूप से प्रविष्टर हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है[१] वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यशक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत् रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डु से ही प्रथम देहधारी,प्रजापालक प्रभु, देवगुरू पितामह ब्रह्म तथा रूद्र, मनु, प्रजापति, प्रमेष्ठी्, प्रचेताओं के पुत्र, दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पेश्चात इक्कीतस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।[२]जिन्हे मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषिमुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्‍णु रूप पुरूष और उनकी विभूति रूप विश्व‍ देव, आदित्यआ, वसु एवं अश्विनी कुमार आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्रुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष ओर दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं।
संवत्समर, ऋतु, मास, पक्ष्, दिन तथा रात्रि का प्राकटय भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिबा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डव से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थाखर-जगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में बिलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्हा प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कृल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पक के अन्त में उनका लय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्तो काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य धूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उभ्द्र व और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप से तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है। पूर्वकाल में दिव:पुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभाबसु, सविता, ऋचीक, अर्, भानु, आशा वह तथा रवि ये सब शब्दल विवस्वाुन् के बोधक माने गये हैं, इन सब में जो अन्तिम ‘रवि’ हैं वे ‘मह्म’ (मही-पृथवी में गर्म स्थामपन करने वाले एवं पूज्यब) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट हैं और देवभ्राट के तनय सुभ्राट माने गये हैं। सुभ्राट के तीन पुत्र हुए, वे सब के सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों के) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-दशज्योवति, शतज्योतति तथा सहस्त्र ज्योकति। महात्मा दशज्योशति के दस हजार पुत्र हुंए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योति के हुए। फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् इस लाख पुत्र सहस्त्र ज्योति के हुए। उन्हीं से यह कुरूवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाु कुके वंश तथा अन्य राजर्षियों के सब वंश चले। प्राणियों की सृष्टि परम्पतरा और बहुत से वंश भी इन्हीं से प्रकट हो विस्तार को प्राप्त हुए हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1‘तत् सृष्टूा तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्) ब्रह्मने अण्डस एवं पिण्डरकी रचना करके मानो स्व्यं ही उसमें प्रवेश किया हैं।
  2. 2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्डयपुराण का वचन)

संबंधित लेख