"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 28-42" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 26-48 का हिन्दी अनुवाद</font>
 
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[[पृथ्वी]] पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे। इस [[महाभारत]] की तीनों लोकों में एक महान ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा है। [[ब्राह्मण|ब्राह्मणादि]] द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में अध्ययन और अध्यापन की परम्परा के द्वारा इसे अपने [[हृदय]] में धारण करते हैं। यह शुभ, ललित एवं मंगलमय शब्द विन्यास से अलंकृत है तथा [[वैदिक]]-लौकिक या [[संस्कृत]]-[[प्राकृत]] संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टुप आदि नाना प्रकार के [[छन्द]] भी इसमें प्रयुक्त हुए है; अत: यह [[ग्रन्थ]] विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। [[हिमालय]] की पवित्र तलहटी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्मा व्यास जी स्नानादि से शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुश का आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पालन पूर्वक शान्त चित हो वे तपस्याव में संलग्न थे। ध्यासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वृरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्ता तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)। सृष्टि के प्रारम्भय में जब यहाँ वस्तुु विशेष या नाम रूप आदि का मान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान् एवं दिव्य अण्डहको चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें
 
सत्य स्वपरूप ज्योंतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तहर्यामीरूप से प्रविष्टर हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है<ref>1‘तत् सृष्टूा  तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्) ब्रह्मने अण्डस एवं पिण्डरकी रचना करके मानो स्व्यं ही उसमें प्रवेश किया हैं।</ref> वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यशक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत् रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डु से ही प्रथम देहधारी,प्रजापालक प्रभु, देवगुरू [[पितामह]] [[ब्रह्म]] तथा [[रूद्र]], [[मनु]], प्रजापति, प्रमेष्ठी्, प्रचेताओं के पुत्र, [[दक्ष]] तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पेश्चात इक्कीतस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।<ref>2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्डयपुराण का वचन)</ref>जिन्हे मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषिमुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा [[विष्‍णु]] रूप पुरूष और उनकी विभूति रूप [[विश्व‍ देव]], आदित्यआ, वसु एवं [[अश्विनी कुमार]] आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्रुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष ओर दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं। <br />
 
संवत्समर, ऋतु, मास, पक्ष्, दिन तथा रात्रि का प्राकटय भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिबा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डव से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थाखर-जगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में बिलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्हा प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कृल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पक के अन्त में उनका लय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्तो काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य धूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उभ्द्र व और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप से तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है। पूर्वकाल में दिव:पुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभाबसु, सविता, ऋचीक, अर्, भानु, आशा वह तथा रवि ये सब शब्दल विवस्वाुन् के बोधक माने गये हैं, इन सब में जो अन्तिम ‘रवि’ हैं वे ‘मह्म’ (मही-पृथवी में गर्म स्थामपन करने वाले एवं पूज्यब) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट हैं और देवभ्राट के तनय सुभ्राट माने गये हैं। सुभ्राट के तीन पुत्र हुए, वे सब के सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों  के) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-दशज्योवति, शतज्योतति तथा सहस्त्र ज्योकति। महात्मा  दशज्योशति के दस हजार पुत्र हुंए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योति के हुए। फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् इस लाख पुत्र सहस्त्र ज्योति के हुए। उन्हीं से यह कुरूवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाु कुके वंश तथा अन्य राजर्षियों के सब वंश चले। प्राणियों की सृष्टि परम्पतरा और बहुत से वंश भी इन्हीं से प्रकट हो विस्तार को प्राप्त हुए हैं।
 
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 12-25|अगला= महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 49-73}}
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यह शुभ, ललित एवं मंगलमय शब्द विन्यास से अलंकृत है तथा [[वैदिक]]-लौकिक या [[संस्कृत]]-[[प्राकृत]] संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टुप आदि नाना प्रकार के [[छन्द]] भी इसमें प्रयुक्त हुए है; अत: यह [[ग्रन्थ]] विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। [[हिमालय]] की पवित्र तलहटी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्मा व्यास जी स्नानादि से शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुश का आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पूर्वक शान्त चित्त हो वे तपस्या में संलग्न थे। ध्यानासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्त तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)।
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सृष्टि के प्रारम्भ में जब यहाँ वस्तु विशेष या नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजा का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान एवं दिव्य अण्डक को चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें सत्य स्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है<ref>1‘तत् सृष्टूा  तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्) ब्रह्म ने अण्डक एवं पिण्डर की रचना करके मानो स्वयं  ही उसमें प्रवेश किया हैं।</ref> वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत-असत रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डक से ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरू [[पितामह]] [[ब्रह्म]] तथा [[रूद्र]], [[मनु]], प्रजापति, प्रमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र, [[दक्ष]] तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पश्चात इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।<ref>2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्ड पुराण का वचन)</ref>जिन्हें मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषि मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा [[विष्‍णु]] रूप पुरूष और उनकी विभूति रूप [[विश्व‍देव]], आदित्य, वसु एवं [[अश्विनी कुमार]] आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि  सद्गुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से [[जल]], द्युलोक, [[पृथ्वी]], [[वायु]], [[अन्तरिक्ष]] और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं। <br />
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[[संवत्सर]], [[ऋतु]], [[मास]], [[पक्ष]], [[दिन]] तथा [[रात्रि]] का प्राकट्य भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डक से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थावर-जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में विलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार [[कल्प]] का आरम्भ होने पर पूर्ववत वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्प के अन्त में उनका विलय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य घूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता। [[देवता|देवताओं]] की सृष्टि संक्षेप में तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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११:४८, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद

यह शुभ, ललित एवं मंगलमय शब्द विन्यास से अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टुप आदि नाना प्रकार के छन्द भी इसमें प्रयुक्त हुए है; अत: यह ग्रन्थ विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। हिमालय की पवित्र तलहटी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्मा व्यास जी स्नानादि से शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुश का आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पूर्वक शान्त चित्त हो वे तपस्या में संलग्न थे। ध्यानासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्त तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)।

सृष्टि के प्रारम्भ में जब यहाँ वस्तु विशेष या नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजा का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान एवं दिव्य अण्डक को चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें सत्य स्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है[१] वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत-असत रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डक से ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरू पितामह ब्रह्म तथा रूद्र, मनु, प्रजापति, प्रमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र, दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पश्चात इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।[२]जिन्हें मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषि मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्‍णु रूप पुरूष और उनकी विभूति रूप विश्व‍देव, आदित्य, वसु एवं अश्विनी कुमार आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्गुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं।

संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रि का प्राकट्य भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डक से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थावर-जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में विलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्प के अन्त में उनका विलय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य घूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप में तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1‘तत् सृष्टूा तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्) ब्रह्म ने अण्डक एवं पिण्डर की रचना करके मानो स्वयं ही उसमें प्रवेश किया हैं।
  2. 2.'ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्र्व चतुदर्श। एते प्रजाना पतय एभि: कल्प: समाप्यथते।। (नीलकण्ठीव में ब्रह्माण्ड पुराण का वचन)

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