"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 59-78" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 59-78 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 74-96</font>
 
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संसार के बड़े से बड़े कवि भी इस काव्यो से बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थो और सन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओं द्वारा गृहस्थाै श्रम से आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्यस को लिखवाने के लिये तुम गणेश जी का स्मीरण करो। उग्रश्रवाजी कहते हैं-महात्मा्ओं ! ब्रह्माजी व्याजसजी से इस प्रकार सम्भा7षण करके अपने धाम ब्रह्मलोक में चले गये। निष्पाप शौनक ! तदनन्तकर सत्येवती नन्दन व्यास जी ने भगवान गणेश का स्मशरण किया और स्म्रण करते ही भक्तम वाञ्छाकल्पततरूविध्नेनश्र्वर श्रीगणेश जी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यास जी विद्यमान थे। व्या‍स जी ने गणेश जी का बड़े आदर और प्रेम से स्वानगत सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा। गणनायक ! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत ग्रन्थन के लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा, मैंने मन ही मन इसकी रचना का ली है। यह सुनकर विध्न।राज श्री गणेश जी ने कहा–व्यास जी ! यदि लिखते समय क्षण भर के लिये भी मेरी लेखनी न रूके तो मैं इस गन्थ का लेखक बन सकता हूँ। व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा –‘बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी लिखियेगा।‘ गणेश जी ने ‘ॐ’कहकर स्वीइकार किया और लेखक  बन गये। तब व्यास जी भी कुतूहलवशं ग्रन्था में गाँठ लगाने लगे। वे ऐसे –ऐसे श्र्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहर से दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बलन्ध में प्रतिज्ञा पूर्वक श्री कृष्ण द्वैपायन मुनि ने यह बात कही है। इस ग्रन्थ में 8800 आठ हजार आठ सौ श्लोरक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मुनिवर ! वे कूट श्लोक इतने गुथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्दा भी योगवृत्त्िाह और रूढ़वृत्ति और आदि रचना वैचित्य के कारण गम्भीार हैं। स्वियं सर्वज गणेश जी भी उन श्लोकों का विचार करते समय क्षणभर के लिये ठहर जाते थें। इतने समय में व्यास जी भी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे। संसारी जीव अज्ञानान्धाकार से अन्धेश होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानाञ्जन की शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थों का संक्षेप और विस्ताेर से वर्णन। यह न केवल अज्ञान की रतौंधी दूर करता, प्रत्युनत सूर्य के समान उदित होकर मनुष्यों की आँख के सामने का सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है। यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमा के सामने है, जिससे श्रुतियों की चाँदनी छिटकती है और मनुष्यों की बु‍द्धिरूपी कुमुदिनी सदा के लिये खिल जाती है। यह भारत-इतिहास एक जाज्वुल्यमान दपक है। यह मेहका अन्धकार मिटाकर लोगों के अन्ति:करण रूप सम्पूर्ण अन्तरंग गृह को भलीभाँति ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देता है। महाभारत वृक्ष का बीज है संग्रहध्यांय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीक पर्व। सम्भव पर्व इसके स्कन्ध का विस्तार है और सभा तथा अरण्य पर्व पक्षियों के रहने योग्य कोटर हैं। अरणी पर्व इस वृक्ष का ग्रन्थि स्थल है। विराट और उद्योग पर्व इसका सारभाग है। भीष्म  पर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोणपर्व इसके पत्ते हैं। कर्ण पर्व इसके श्वेोत पुष्प् हैं और शल्यऔ पर्व सुगन्धस। स्त्री पर्व और ऐषीक पर्व इसकी छाया है तथा शान्ति पर्व इसका महान् फल है। अश्वतमेघ पर्व इसका अमृत मय रस है और आश्रमवासिक पर्व आश्रम लेकर बैठने का स्थान। मौसल पर्व श्रुतिरूपा ऊँची-ऊँची शास्त्राओं का अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्या से सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं। संसार में जितने भी श्रेष्ठत कवि होंगे उनके काव्य के लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है। उग्रश्रवाजी कहते हैं—यह भारत एक वृक्ष है, इसके स्वापदु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्पे तथा फल हैं-धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्ष से अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हींं का वर्णन करूँगा। पहले की बात है—शाक्तिशाली, धर्मात्मां श्री कृष्ण द्वैपायन (व्यास) ने अपनी माता पिता सत्य वती और परमज्ञानी गंगा पुत्र भीष्मा पितामह की आज्ञा से विचित्र वीर्य की पत्नीे अम्बिका आदि के गर्भ से तीन अग्नियों के समान तेजस्वीर तीन कुरूवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिसके नाम हैु घृतराष्ट्र्, पाण्डुं और बिदुर।
 
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व्‍यास जी ब्रह्मा जी को देखकर आश्‍चर्यचकित रह गये। उन्‍होनें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़ रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि मुनियों के साथ उन्‍होंने ब्रह्मा जी के लिये आसन की व्‍यवस्‍था की। जब उस श्रेष्‍ठ आसन पर ब्रह्मा जी विराज गये, तब व्‍यास जी ने उनकी परिक्रमा की और [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] के आसन के समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये।
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इस ग्रन्‍थ में [[इतिहास]] और [[पुराण|पुराणों]] का मन्थन करके उनका प्रशस्‍त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्‍यकाल की इन तीनों संज्ञाओं का भी वर्णन हुआ है। इस ग्रन्‍थ में बुढ़ापा, मृत्‍यु, भय, रोग और पदार्थो के सत्‍यत्‍व और मिथ्‍यात्‍मक का विशेष रूप से निश्‍चय किया गया है तथा अधिकारी-भेद से भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के धर्मो एवं आश्रमों का भी लक्षण बताया गया है। [[ब्राह्मण]], [[क्षत्रिय]], [[वैश्‍य]] और [[शूद्र]] इन चारों वर्णों के कर्तव्‍य का विधान, पुराणों का सम्‍पूर्ण मूलतत्‍व भी प्रकट हुआ है। तपस्‍या एवं ब्रह्मचर्य के स्‍वरूप, अनुष्‍ठान एवं फलों का विवरण, [[पृथ्‍वी]], [[चन्‍द्रमा]], [[सूर्य]], [[ग्रह]], [[नक्षत्र]], [[तारा]], [[सतयुग]], [[त्रेता]], [[द्वापर]], [[कलियुग]]-इन सबके परिमाण और प्रमाण, [[ऋग्‍वेद]], [[यजुर्वेद]], [[सामवेद]] और इनके आध्‍यात्मिक अभिप्राय और अध्‍यात्‍म शास्‍त्र का इस ग्रन्‍थ में विस्‍तार से वर्णन किया गया है। न्‍याय, शिक्षा, चिकित्‍सा, दान तथा पाशुपत (अन्‍तर्यामी की महिमा) का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि [[देवता]], मनुष्‍य आदि भिन्‍न-भिन्‍न योनियों में जन्‍म का कारण क्‍या है? लोकपावन [[तीर्थ|तीर्थों]], देशों, [[नदी|नदियों]], पर्वतों, वनों और समुद्र का भी इसमें वर्णन किया गया है। दिव्‍य नगर एवं [[दुर्ग|दुर्गों]] के निर्माण का कौशल तथा युद्ध की निपुणता का भी वर्णन है। भिन्‍न-भिन्‍न [[भाषा|भाषाओं]] और जातियों की जो विशेषताएँ है, लोक व्‍यवहार की सिद्धि के लिये जो कुछ आवश्‍यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी है; परन्‍तु मुझे इस बात की चिन्‍ता है कि [[पृथ्‍वी]] में इस [[ग्रन्‍थ]] को लिख सके ऐसा कोई नहीं है। ब्रह्माजी ने कहा– व्‍यास जी ! संसार में विशिष्‍ट तपस्‍या और विशिष्‍ट कुल के कारण जितने भी श्रेष्‍ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ समझता हूँ; क्‍योंकि तुम्हें जगत, जीव और ईश्‍वर-तत्‍व का जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो। मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्‍हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्‍य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचना को [[काव्‍य]] कहा है, इसलिये अब यह काव्‍य के नाम से ही प्रसिद्ध होगी।
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संसार के बड़े से बड़े कवि भी इस काव्य से बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओं द्वारा गृहस्थ आश्रम से आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्य को लिखवाने के लिये तुम [[गणेश |गणेश जी]] का स्मरण करो। उग्रश्रवा जी कहते हैं- महात्माओं! [[ब्रह्मा |ब्रह्मा जी]] [[व्यास |व्यास जी]] से इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोक में चले गये। निष्पाप शौनक ! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यास जी ने भगवान गणेश का स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तम वञ्छाकल्पततरूविध्नेनश्र्वर श्रीगणेश जी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यास जी विद्यमान थे। व्या‍स जी ने गणेश जी का बड़े आदर और प्रेम से स्वागत सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा- गणनायक ! आप मेरे द्वारा निर्मित इस [[महाभारत]] [[ग्रन्थ]] के लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा, मैंने मन ही मन इसकी रचना कर ली है।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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११:४८, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 59-78 का हिन्दी अनुवाद

व्‍यास जी ब्रह्मा जी को देखकर आश्‍चर्यचकित रह गये। उन्‍होनें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़ रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि मुनियों के साथ उन्‍होंने ब्रह्मा जी के लिये आसन की व्‍यवस्‍था की। जब उस श्रेष्‍ठ आसन पर ब्रह्मा जी विराज गये, तब व्‍यास जी ने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजी के आसन के समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये।

इस ग्रन्‍थ में इतिहास और पुराणों का मन्थन करके उनका प्रशस्‍त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्‍यकाल की इन तीनों संज्ञाओं का भी वर्णन हुआ है। इस ग्रन्‍थ में बुढ़ापा, मृत्‍यु, भय, रोग और पदार्थो के सत्‍यत्‍व और मिथ्‍यात्‍मक का विशेष रूप से निश्‍चय किया गया है तथा अधिकारी-भेद से भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के धर्मो एवं आश्रमों का भी लक्षण बताया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र इन चारों वर्णों के कर्तव्‍य का विधान, पुराणों का सम्‍पूर्ण मूलतत्‍व भी प्रकट हुआ है। तपस्‍या एवं ब्रह्मचर्य के स्‍वरूप, अनुष्‍ठान एवं फलों का विवरण, पृथ्‍वी, चन्‍द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग-इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्‍वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्‍यात्मिक अभिप्राय और अध्‍यात्‍म शास्‍त्र का इस ग्रन्‍थ में विस्‍तार से वर्णन किया गया है। न्‍याय, शिक्षा, चिकित्‍सा, दान तथा पाशुपत (अन्‍तर्यामी की महिमा) का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्‍य आदि भिन्‍न-भिन्‍न योनियों में जन्‍म का कारण क्‍या है? लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्र का भी इसमें वर्णन किया गया है। दिव्‍य नगर एवं दुर्गों के निर्माण का कौशल तथा युद्ध की निपुणता का भी वर्णन है। भिन्‍न-भिन्‍न भाषाओं और जातियों की जो विशेषताएँ है, लोक व्‍यवहार की सिद्धि के लिये जो कुछ आवश्‍यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी है; परन्‍तु मुझे इस बात की चिन्‍ता है कि पृथ्‍वी में इस ग्रन्‍थ को लिख सके ऐसा कोई नहीं है। ब्रह्माजी ने कहा– व्‍यास जी ! संसार में विशिष्‍ट तपस्‍या और विशिष्‍ट कुल के कारण जितने भी श्रेष्‍ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ समझता हूँ; क्‍योंकि तुम्हें जगत, जीव और ईश्‍वर-तत्‍व का जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो। मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्‍हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्‍य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचना को काव्‍य कहा है, इसलिये अब यह काव्‍य के नाम से ही प्रसिद्ध होगी।

संसार के बड़े से बड़े कवि भी इस काव्य से बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओं द्वारा गृहस्थ आश्रम से आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्य को लिखवाने के लिये तुम गणेश जी का स्मरण करो। उग्रश्रवा जी कहते हैं- महात्माओं! ब्रह्मा जी व्यास जी से इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोक में चले गये। निष्पाप शौनक ! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यास जी ने भगवान गणेश का स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तम वञ्छाकल्पततरूविध्नेनश्र्वर श्रीगणेश जी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यास जी विद्यमान थे। व्या‍स जी ने गणेश जी का बड़े आदर और प्रेम से स्वागत सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा- गणनायक ! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत ग्रन्थ के लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा, मैंने मन ही मन इसकी रचना कर ली है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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