"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 79-94" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 79-94</div>
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इस [[महाभारत]] [[ग्रन्‍थ]] में [[व्‍यास |व्‍यास जी]] ने [[कुरू वंश]] के विस्‍तार, [[गान्‍धारी]] की धर्मशीलता, [[विदुर]] की उत्‍तम प्रज्ञा और [[कुन्‍ती |कुन्‍ती देवी]] के धैर्य का भली- भाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान व्‍यास ने इसमें [[वसुदेव नन्दन]] [[श्री कृष्‍ण]] के महात्‍म्‍य, [[पाण्‍डव|पाण्‍डवों]] की सत्‍य परायणता तथा [[घृतराष्‍ट्र]] पुत्र [[दुर्योधन]] आदि के दुर्व्‍यवहारों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया है। पुण्‍य कर्मा मानवों के उपाख्‍यानों सहित एक लाख [[श्‍लोक|श्‍लोकों]] के इस उत्तरग्रन्‍थ को आद्य भारत (महाभारत) जानना चाहिये। तदनन्‍तर व्‍यास जी ने उपाख्‍यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्‍लोकों की 'भारत संहिता' बनायी; जिसे विद्वान पुरूष भारत कहते हैं। इसके पश्‍चात महर्षि ने पुन: पर्व सहित ग्रन्‍थ में वर्णित वृत्तान्‍तों की अनुक्रमणिका (सूची) का एक संक्षिप्‍त अध्‍याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्‍लोक हैं। व्‍यास जी ने सबसे पहले अपने [[पुत्र]] [[शुकदेव]] जी को इस महाभारत ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कराया। तदनन्‍तर उन्‍होंने दूसरे सुयोग्‍य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्‍यों को इसका उपदेश दिया।
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यह सुनकर विघ्नराज श्री गणेश जी ने कहा–व्यास जी ! यदि लिखते समय क्षण भर के लिये भी मेरी लेखनी न रूके तो मैं इस गन्थ का लेखक बन सकता हूँ। व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा –‘बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी न लिखियेगा।‘ गणेश जी ने ‘ॐ’ कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये। तब व्यास जी भी कौतूहलवश ग्रन्थ में गाँठ लगाने लगे, वे ऐसे –ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहर से दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्ध में प्रतिज्ञापूर्वक श्री कृष्ण द्वैपायन मुनि ने यह बात कही है। इस ग्रन्थ में 8800 ( आठ हजार आठ सौ श्लोक) ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मुनिवर ! वे कूट श्लोक इतने गुथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढ़वृत्ति और आदि रचना वैचित्र्य के कारण गम्भीर हैं।  
  
तत्‍पश्चात भगवान व्‍यास ने साठ लाख श्‍लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी। उसके तीन लाख श्‍लोक देवलोक में समाहृत हो रहे हैं, पितृलोक में पंद्रह लाख तथा गन्‍धर्वलोक में चौदह लाख श्‍लोकों का पाठ होता है। इस मनुष्‍य लोक में एक लाख श्‍लोकों का आद्य भारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। [[देवर्षि नारद]] ने [[देवता|देवताओं]] को और असित देवल ने पितरों को इसका श्रवण कराया है। शुकदेव जी ने [[गन्‍धर्व]], [[यक्ष]] तथा [[राक्षस|राक्षसों]] को महाभारत की कथा सुनायी है; परन्‍तु इस मनुष्‍य लोक में सम्‍पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि व्‍यास शिष्‍य धर्मात्‍मा वैशम्‍पायन जी ने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरों ! वही एक लाख श्‍लोकों का महाभारत आप लोग मुझसे श्रवण कीजिये। [[दुर्योधन]] क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है। [[कर्ण]] स्‍कन्‍ध, [[शकुनि]] शास्‍त्रा और [[दु:शासन]] समृद्ध फल पुष्‍प है। अज्ञानी [[ धृतराष्‍ट्र|राजा धृतराष्‍ट्र]] ही इसके मूल हैं<ref>1- यह और इसके बाद का [[श्‍लोक]] [[महाभारत]] के तात्‍पर्य के सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्‍द से [[द्वेष-सूया]] आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहियें। [[कर्ण]], [[शकुनि]], दु:शासन आदि उससे एकता को प्राप्‍त है, उसी के स्‍वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्‍ट्र। यह अज्ञानी अपने मन को वश में करने में असमर्थ है। इसी ने पुत्रों की आसक्ति में अंधे होकर दुर्योधन को अवसर दिया,जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधन को वश में कर लेता अथवा बचपन में ही [[विदुर]] आदि की बात मानकर इसका त्‍याग कर देता तो विष-दान, लाक्षागृह दाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्‍कर्मो का अवसर ही नहीं आता और कुलक्ष्य न होता। इस प्रसंग से यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो [[मन्‍यू]] (दुर्योधन) रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है, क्रोध लोभादि स्‍कन्‍ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्‍धन नरकादि इसके फल-पुष्प है। पुरूषार्थ कामी पुरूष को मूलाज्ञान का उच्‍छेद करके पहले ही इस (क्रोध रूप) वृक्ष को नष्‍ट कर देना चाहिये।</ref>।
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स्वयं सर्वज्ञ गणेश जी भी उन श्लोकों का विचार करते समय क्षण भर के लिये ठहर जाते थे। इतने समय में व्यास जी भी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे। संसारी जीव अज्ञानान्धकार से अन्धे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानाञ्जन की शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थों का संक्षेप और विस्तार से वर्णन। यह न केवल अज्ञान की रतौंधी दूर करता, प्रत्युत [[सूर्य]] के समान उदित होकर मनुष्यों की आँख के सामने का सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है। यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमा के सामने है, जिससे श्रुतियों की चाँदनी छिटकती है और मनुष्यों की बु‍द्धिरूपी कुमुदिनी सदा के लिये खिल जाती है। यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोह अन्धकार मिटाकर लोगों के अंत:करण रूपी सम्पूर्ण अन्तरंग गृह को भलीभाँति ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देता है।
युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। [[अर्जुन]] [[स्‍कन्‍ध]], [[भीमसेन]] शाखा और [[माद्रीनन्‍दन]] इसके समृद्ध फल पुष्‍प हैं। [[श्री कृष्‍ण]], [[वेद]] और [[ब्राह्मण]] ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं<ref>2- युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्‍य, अंहिसा आदि रूप धर्म की मूर्ति हैं। [[अर्जुन]] [[भीम]] आदि को धर्म की शाखा बतलाने का अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिर के ही स्‍वरूप हैं, उनसे अभिन्‍न हैं, शुद्धसत्वमय शान‍ विग्रह श्री कृष्‍ण रूप परमात्‍मा ही उसके मूल हैं। उनकी दृढ़ शान से ही धर्म की नीव मजबूत होती है। श्रुति भगवती ने कहा है कि ‘हे गार्गी ! इस अविनाशी परमात्‍मा को जाने बिना इस लोक में जो हजारों वर्ष पर्यन्‍त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्‍या करता है, उन सबका फल नाशवान ही होता है।‘ ज्ञान का मूल है ब्रह्म अर्थात वेद। वेद से ही परम धर्म योग और अपार धर्मयज्ञ योगादि ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्‍त है कि धर्म का मूल केवल शब्‍द प्रमाण ही है। [[वेद]] के भी मूल ब्राह्मण हैं; क्‍योंकि वे ही वेद सम्‍प्रदाय के प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशक के रूप में ब्राह्मण, प्रमाण के रूप में वेद और अनुग्राहक के रूप में परमात्‍मा धर्म का मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मण का भक्‍त अधिकारी पुरूष भगवद् आराधन के बल से योगादि रूप धर्ममय वृक्ष का सम्‍पादन करे। उस वृक्ष के अहिंसा, सत्‍य आदि तने हैं। धारण, ध्‍यान आदि शाखाएँ हैं और तत्‍व साक्षात्‍कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्ष के समाश्रय से ही पुरूषार्थ की सिद्धि होती है, अन्‍यथा नहीं। </ref>। महाराज पाण्‍डु अपनी बुद्धि और पराक्रम से अनेक देशों पर विजय पाकर (हिसंक) मृगों को मारने के स्‍वभाव वाले होने के कारण ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही निवास करते थे। एक दिन उन्‍होंने मृग रूपधारी महर्षि को मैथुन काल में मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकट में पड़ गये (ऋषि ने यह शाप दे दिया कि स्‍त्री सहवास करने पर तुम्‍हारी मृत्‍यु हो जायेगी), यह संकट होते हुए भी [[युधिष्ठिर]] आदि पाण्‍डवों के जन्‍म से लेकर जात- कर्म आदि सब संस्‍कार वन में ही हुए और वहीं उन्‍हें शील एवं सदाचार की रक्षा का उपदेश प्राप्त हुआ। पूर्वोक्‍त शाप होने पर भी संतान होने का कारण यह था कि कुल धर्म की रक्षा के लिये [[दुर्वासा]] द्वारा प्राप्‍त हुई विद्या का आश्रय लेने के कारण पाण्‍डवों की दोनों माताओं [[कुन्ती]] और [[माद्री]] के समीप क्रमश: धर्म, वायु, [[इन्‍द्र]] तथा दोनों [[अश्विनीकुमार]]- इन देवताओं का आगमन सम्‍भव हो सका।
 
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 74-96|अगला= महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 115-134}}
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महाभारत वृक्ष का बीज है पर्वसंग्रहध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीक पर्व। सम्भाव पर्व इसके स्कन्ध का विस्तार है और सभा तथा अरण्य पर्व पक्षियों के रहने योग्य कोटर हैं। अरणी पर्व इस वृक्ष का ग्रन्थि स्थल है। विराट और उद्योग पर्व इसका सारभाग है। भीष्म पर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोण पर्व इसके पत्ते हैं। कर्ण पर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्य पर्व सुगन्ध। स्त्री पर्व और ऐषीक पर्व इसकी छाया है तथा शान्ति पर्व इसका महान फल है। आश्वमेधिक पर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रमवासिक पर्व आश्रम लेकर बैठने का स्थान। मौसल पर्व श्रुतिरूपा ऊँची-ऊँची शास्त्रों का अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्या से सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं। संसार में जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्य के लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है। उग्रश्रवा जी कहते हैं—यह भारत एक वृक्ष है, इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्प तथा फल हैं-धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्ष से अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हीं का वर्णन करूँगा।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०८:३०, १८ जुलाई २०१५ का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 79-94

यह सुनकर विघ्नराज श्री गणेश जी ने कहा–व्यास जी ! यदि लिखते समय क्षण भर के लिये भी मेरी लेखनी न रूके तो मैं इस गन्थ का लेखक बन सकता हूँ। व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा –‘बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी न लिखियेगा।‘ गणेश जी ने ‘ॐ’ कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये। तब व्यास जी भी कौतूहलवश ग्रन्थ में गाँठ लगाने लगे, वे ऐसे –ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहर से दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्ध में प्रतिज्ञापूर्वक श्री कृष्ण द्वैपायन मुनि ने यह बात कही है। इस ग्रन्थ में 8800 ( आठ हजार आठ सौ श्लोक) ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मुनिवर ! वे कूट श्लोक इतने गुथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढ़वृत्ति और आदि रचना वैचित्र्य के कारण गम्भीर हैं।

स्वयं सर्वज्ञ गणेश जी भी उन श्लोकों का विचार करते समय क्षण भर के लिये ठहर जाते थे। इतने समय में व्यास जी भी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे। संसारी जीव अज्ञानान्धकार से अन्धे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानाञ्जन की शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थों का संक्षेप और विस्तार से वर्णन। यह न केवल अज्ञान की रतौंधी दूर करता, प्रत्युत सूर्य के समान उदित होकर मनुष्यों की आँख के सामने का सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है। यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमा के सामने है, जिससे श्रुतियों की चाँदनी छिटकती है और मनुष्यों की बु‍द्धिरूपी कुमुदिनी सदा के लिये खिल जाती है। यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोह अन्धकार मिटाकर लोगों के अंत:करण रूपी सम्पूर्ण अन्तरंग गृह को भलीभाँति ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देता है।

महाभारत वृक्ष का बीज है पर्वसंग्रहध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीक पर्व। सम्भाव पर्व इसके स्कन्ध का विस्तार है और सभा तथा अरण्य पर्व पक्षियों के रहने योग्य कोटर हैं। अरणी पर्व इस वृक्ष का ग्रन्थि स्थल है। विराट और उद्योग पर्व इसका सारभाग है। भीष्म पर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोण पर्व इसके पत्ते हैं। कर्ण पर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्य पर्व सुगन्ध। स्त्री पर्व और ऐषीक पर्व इसकी छाया है तथा शान्ति पर्व इसका महान फल है। आश्वमेधिक पर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रमवासिक पर्व आश्रम लेकर बैठने का स्थान। मौसल पर्व श्रुतिरूपा ऊँची-ऊँची शास्त्रों का अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्या से सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं। संसार में जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्य के लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है। उग्रश्रवा जी कहते हैं—यह भारत एक वृक्ष है, इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्प तथा फल हैं-धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्ष से अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हीं का वर्णन करूँगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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