"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 95-115" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 95-115 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत: अादिपर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 115-134</font>
 
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सका। ( इन्‍हीं की कृपा से [[युधिष्ठिर]], [[भीम|भीमसेन]], [[अर्जुन]] एवं [[नकुल]]-[[सहदेव]] की उत्‍पत्ति हुई। पति प्रिया [[कुन्‍ती]] ने पति के सबसे धर्म-रहस्‍य की बातें सुनकर पुत्र पाने की इच्‍छा से मन्‍त्र जाप पूर्वक स्‍तुति द्वारा धर्म, [[वायु]] और [[इन्‍द्र]] देवता का आवाहन किया। कुन्‍ती के उपदेश देने पर माद्री भी उस मन्‍त्र विद्या को जान गयी और उसने संतान के लिये दोनों [[अश्विनी |अश्विनी कुमारों]] का आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओं से पाण्‍डवों की उत्‍पत्ति हुई। पाँचों पाण्‍डव अपनी दोनों माताओं द्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनों में और महात्‍माओं के परम पुण्‍य आश्रमों मे ही तपस्‍वी लोगों के साथ दिनों- दिन बढ़ने लगे। (पाण्‍डु की मृत्‍यु होने के पश्‍चात) बड़े-बड़े ऋषि मुनि स्‍वयं ही [[पाण्‍डव|पाण्‍डवों]] को लेकर [[धृतराष्‍ट्र]] एवं उनके पुत्रों के पास आये। उस समय पाण्‍डव नन्‍हे नन्‍हे शिशु के रूप में बड़े ही सुन्‍दर लगते थे। वे सिर पर जटा धारण किये ब्रह्मचारी के वेश में थे। ऋषियों ने वहाँ जाकर धृतराष्‍ट्र एवं उनके पुत्रों से कहा- ‘ये तुम्‍हारे पुत्र, भाई, शिष्‍य और सुहृद हैं। ये सभी महाराज [[पाण्‍डु]] के ही पुत्र हैं। इतना कहकर वे मुनि वहाँ से अंर्तधान हो गये। ऋषियों द्वारा लाये हुए उन पाण्‍डवों को देखकर सभी [[कौरव]] और नगर निवासी, शिष्‍ट  तथा वर्णाश्रमी हर्ष से भरकर अत्‍यन्‍त कोलाहल करने लगे। कोई कहते, ’ये पाण्‍डु के पुत्र नहीं हैं।‘ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्‍हीं के हैं।‘ कुछ लोग कहते, ‘जब पाण्‍डु को मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं? फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्‍वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्‍य की बात है कि आज हम महाराज पाण्‍डु की संतान को अपनी आँखों से देख रहे हैं।‘ फिर तो सब ओर से स्‍वागत बोलने वालों की ही बातें सुनायी देने लगीं। दर्शकों का वह तुमुल शब्‍द बंद होने पर सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करती हुई अद्दश्‍य भूतों-देवताओं की यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी-‘ये पाण्‍डव ही हैं’। जिस समय पाण्‍डवों ने नगर में प्रवेश किया, उसीसमय फूलों की वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्‍ध छा गयी तथा शंख और दुन्‍दुभियों के मांगलिक शब्‍द सुनायी देने लगे। यह एक अदभुत चमत्‍कारी सी बात हुई। सभी नागरिक पाण्‍डवों के प्रेम से आनन्‍द में भरकर ऊँचे स्‍वर से अभिनन्‍दन ध्‍वनि करने लगे। उनका वह महान शब्‍द स्‍वर्गलोक तक गूँज उठा जो पाण्‍डवों की कीर्ति बढ़ाने वाला था। वे सम्‍पूर्ण वेद एवं विविध शास्‍त्रों का अध्‍ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्‍हें किसी से भय नहीं था। राष्‍ट्र की सम्‍पूर्ण प्रजा  के शौचाचार, भीमसेन की धृति, अर्जुन के विक्रम तथा नकूल सहदेव की गुरू शुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनय से बहुत ही प्रसन्‍न होती थी। सब लोग पाण्‍डवों के शौर्य गुण से संतोष का अनुभव करते थे<ref>1.शास्त्रोक्त आचार का परित्यागन करना सदाचारी सत्पुरूषों का संग करना और सदाचार में दृढ़ता से स्थित रहना-इसको शौच कहते हैं। अपनी इच्छा के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थो की प्राप्ति होने पर चित्त में विकार न होना की ‘धृति’ है। सबसे बढ़कर सामर्थ्‍य का होना ही ‘विक्रम' है। सद्वृत्त की अनुवृत्ति ही ‘शुश्रूषा’ है। (सदाचारपरायण गुरूजनों का अनुसरण गुरू शुश्रूषा है।) किसी के द्वारा अपराध बन जाने पर भी उसके प्रति अपने चित्त में क्रोध आदि विकारों का न होना ही ‘क्षमाशीलता’ है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धत रहना ही ‘विनय’ है। बलवान शत्रु को भी पराजित कर देने का अध्यवसाय ‘शौर्य’ है। इनके संग्राहक श्लोक इस प्रकार है- आचारापरिहारश्व संसर्गश्वाप्यनिन्दितैः। आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यधीयते।। इष्टानिष्टार्थसम्पत्तौ चित्तस्याविकृतिर्धृतिः। सर्वातिशयसामथ्र्य विक्रमं परिचक्षते।। वृत्तानुवृत्तिः शुश्रूषा क्षान्तिरागस्य विक्रिया। जितेन्द्रियत्वं विनयोऽथवानुद्धतशीलता।। शौर्यमध्यमवसायः स्याद् बलिनोऽपि पराभवे।।</ref>।
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पहले की बात है—शाक्तिशाली, धर्मात्मा श्री कृष्ण द्वैपायन (व्यास) ने अपने माता- पिता [[सत्यवती]] और परमज्ञानी गंगा पुत्र [[भीष्म पितामह]] की आज्ञा से विचित्र वीर्य की पत्नी [[अम्बिका]] आदि के गर्भ से तीन अग्नियों के समान तेजस्वी तीन कुरूवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं- [[धृतराष्ट्र]], [[पाण्डु]] और [[विदुर]]
तदनन्‍तर कुछ काल के पश्‍चात राजाओं के समुदाय में अर्जुन ने अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पराक्रम करके स्‍वयं ही पति चुनने वाली द्रुपदकन्‍या कृष्‍णा को प्राप्‍त किया। तभी से वे इस लोक में सम्‍पूर्ण धर्नुधारियों के पूज्यनीय (आदरणीय) हो गये; और समरांगण में प्रचण्‍ड मार्तण्‍ड की भाँति प्रतापी अर्जुन की ओर किसी के लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया। उन्‍होंने पृथक-पृथक तथा महान संघ बनाकर आये हुए सब राजाओं को जीतकर महाराज युधिष्ठिर के राजसूय नामक सहायज्ञ को सम्‍पन्‍न कराया। भगवान श्रीकृष्‍ण की सुन्‍दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुन की शक्ति से बल के घमण्‍ड में चूर रहने वाले [[जरासन्‍ध]] और [[चेदिराज]] [[शिशुपाल]] को मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिर ने महायज्ञ राजसूय का सम्‍पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम<ref>1. आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विक, सदस्य, यजमान, यजमानपली, धन सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधि-विधान का सम्यक पालन एवं सदबुद्धि आदि यश की उत्तम गुणसामग्री के अन्तर्गत हैं।</ref> गुणों से सम्‍पन्‍न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्‍त दक्षिणा का वितरण किया गया था। उस समय इधर- उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियों के यहाँ से मणि सुवर्ण रत्न गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकुनामक मृग के बालों से बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहार की बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधन के हाथ में दी जातीं-उसी के देख-रेख में रखी जाती थीं।
 
  
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इस [[महाभारत]] [[ग्रन्‍थ]] में [[व्‍यास |व्‍यास जी]] ने [[कुरू वंश]] के विस्‍तार, [[गान्‍धारी]] की धर्मशीलता, [[विदुर]] की उत्‍तम प्रज्ञा और [[कुन्‍ती |कुन्‍ती देवी]] के धैर्य का भली- भाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान व्‍यास ने इसमें [[वसुदेव नन्दन]] [[श्री कृष्‍ण]] के महात्‍म्‍य, [[पाण्‍डव|पाण्‍डवों]] की सत्‍य परायणता तथा [[घृतराष्‍ट्र]] पुत्र [[दुर्योधन]] आदि के दुर्व्‍यवहारों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया है। पुण्‍य कर्मा मानवों के उपाख्‍यानों सहित एक लाख [[श्‍लोक|श्‍लोकों]] के इस उत्तरग्रन्‍थ को आद्य भारत (महाभारत) जानना चाहिये। तदनन्‍तर व्‍यास जी ने उपाख्‍यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्‍लोकों की 'भारत संहिता' बनायी; जिसे विद्वान पुरूष भारत कहते हैं। इसके पश्‍चात महर्षि ने पुन: पर्व सहित ग्रन्‍थ में वर्णित वृत्तान्‍तों की अनुक्रमणिका (सूची) का एक संक्षिप्‍त अध्‍याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्‍लोक हैं। व्‍यास जी ने सबसे पहले अपने [[पुत्र]] [[शुकदेव]] जी को इस महाभारत ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कराया। तदनन्‍तर उन्‍होंने दूसरे सुयोग्‍य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्‍यों को इसका उपदेश दिया।
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 97-114|अगला= महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 135-155}}
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तत्‍पश्चात भगवान व्‍यास ने साठ लाख श्‍लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी। उसके तीन लाख श्‍लोक देवलोक में समाहृत हो रहे हैं, पितृलोक में पंद्रह लाख तथा गन्‍धर्वलोक में चौदह लाख श्‍लोकों का पाठ होता है। इस मनुष्‍य लोक में एक लाख श्‍लोकों का आद्य भारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। [[देवर्षि नारद]] ने [[देवता|देवताओं]] को और असित देवल ने पितरों को इसका श्रवण कराया है। शुकदेव जी ने [[गन्‍धर्व]], [[यक्ष]] तथा [[राक्षस|राक्षसों]] को महाभारत की कथा सुनायी है; परन्‍तु इस मनुष्‍य लोक में सम्‍पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि व्‍यास शिष्‍य धर्मात्‍मा वैशम्‍पायन जी ने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरों ! वही एक लाख श्‍लोकों का महाभारत आप लोग मुझसे श्रवण कीजिये। [[दुर्योधन]] क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है। [[कर्ण]] स्‍कन्‍ध, [[शकुनि]] शास्‍त्रा और [[दु:शासन]] समृद्ध फल पुष्‍प है। अज्ञानी [[ धृतराष्‍ट्र|राजा धृतराष्‍ट्र]] ही इसके मूल हैं<ref>1- यह और इसके बाद का [[श्‍लोक]] [[महाभारत]] के तात्‍पर्य के सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्‍द से [[द्वेष-सूया]] आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहियें। [[कर्ण]], [[शकुनि]], दु:शासन आदि उससे एकता को प्राप्‍त है, उसी के स्‍वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्‍ट्र। यह अज्ञानी अपने मन को वश में करने में असमर्थ है। इसी ने पुत्रों की आसक्ति में अंधे होकर दुर्योधन को अवसर दिया,जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधन को वश में कर लेता अथवा बचपन में ही [[विदुर]] आदि की बात मानकर इसका त्‍याग कर देता तो विष-दान, लाक्षागृह दाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्‍कर्मो का अवसर ही नहीं आता और कुलक्ष्य न होता। इस प्रसंग से यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो [[मन्‍यू]] (दुर्योधन) रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है, क्रोध लोभादि स्‍कन्‍ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्‍धन नरकादि इसके फल-पुष्प है। पुरूषार्थ कामी पुरूष को मूलाज्ञान का उच्‍छेद करके पहले ही इस (क्रोध रूप) वृक्ष को नष्‍ट कर देना चाहिये।</ref>।
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युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। [[अर्जुन]] [[स्‍कन्‍ध]], [[भीमसेन]] शाखा और [[माद्रीनन्‍दन]] इसके समृद्ध फल पुष्‍प हैं। [[श्री कृष्‍ण]], [[वेद]] और [[ब्राह्मण]] ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं<ref>2- युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्‍य, अंहिसा आदि रूप धर्म की मूर्ति हैं। [[अर्जुन]] [[भीम]] आदि को धर्म की शाखा बतलाने का अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिर के ही स्‍वरूप हैं, उनसे अभिन्‍न हैं, शुद्धसत्वमय शान‍ विग्रह श्री कृष्‍ण रूप परमात्‍मा ही उसके मूल हैं। उनकी दृढ़ शान से ही धर्म की नीव मजबूत होती है। श्रुति भगवती ने कहा है कि ‘हे गार्गी ! इस अविनाशी परमात्‍मा को जाने बिना इस लोक में जो हजारों वर्ष पर्यन्‍त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्‍या करता है, उन सबका फल नाशवान ही होता है।‘ ज्ञान का मूल है ब्रह्म अर्थात वेद। वेद से ही परम धर्म योग और अपार धर्मयज्ञ योगादि ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्‍त है कि धर्म का मूल केवल शब्‍द प्रमाण ही है। [[वेद]] के भी मूल ब्राह्मण हैं; क्‍योंकि वे ही वेद सम्‍प्रदाय के प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशक के रूप में ब्राह्मण, प्रमाण के रूप में वेद और अनुग्राहक के रूप में परमात्‍मा धर्म का मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मण का भक्‍त अधिकारी पुरूष भगवद् आराधन के बल से योगादि रूप धर्ममय वृक्ष का सम्‍पादन करे। उस वृक्ष के अहिंसा, सत्‍य आदि तने हैं। धारण, ध्‍यान आदि शाखाएँ हैं और तत्‍व साक्षात्‍कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्ष के समाश्रय से ही पुरूषार्थ की सिद्धि होती है, अन्‍यथा नहीं। </ref>।  महाराज पाण्‍डु अपनी बुद्धि और पराक्रम से अनेक देशों पर विजय पाकर (हिसंक) मृगों को मारने के स्‍वभाव वाले होने के कारण ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही निवास करते थे। एक दिन उन्‍होंने मृग रूपधारी महर्षि को मैथुन काल में मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकट में पड़ गये (ऋषि ने यह शाप दे दिया कि स्‍त्री सहवास करने पर तुम्‍हारी मृत्‍यु हो जायेगी), यह संकट होते हुए भी [[युधिष्ठिर]] आदि पाण्‍डवों के जन्‍म से लेकर जात- कर्म आदि सब संस्‍कार वन में ही हुए और वहीं उन्‍हें शील एवं सदाचार की रक्षा का उपदेश प्राप्त हुआ। पूर्वोक्‍त शाप होने पर भी संतान होने का कारण यह था कि कुल धर्म की रक्षा के लिये [[दुर्वासा]] द्वारा प्राप्‍त हुई विद्या का आश्रय लेने के कारण पाण्‍डवों की दोनों माताओं [[कुन्ती]] और [[माद्री]] के समीप क्रमश: धर्म, वायु, [[इन्‍द्र]] तथा दोनों [[अश्विनीकुमार]]- इन देवताओं का आगमन सम्‍भव हो सका।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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०६:०६, १० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 95-115 का हिन्दी अनुवाद

पहले की बात है—शाक्तिशाली, धर्मात्मा श्री कृष्ण द्वैपायन (व्यास) ने अपने माता- पिता सत्यवती और परमज्ञानी गंगा पुत्र भीष्म पितामह की आज्ञा से विचित्र वीर्य की पत्नी अम्बिका आदि के गर्भ से तीन अग्नियों के समान तेजस्वी तीन कुरूवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं- धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर

इस महाभारत ग्रन्‍थ में व्‍यास जी ने कुरू वंश के विस्‍तार, गान्‍धारी की धर्मशीलता, विदुर की उत्‍तम प्रज्ञा और कुन्‍ती देवी के धैर्य का भली- भाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान व्‍यास ने इसमें वसुदेव नन्दन श्री कृष्‍ण के महात्‍म्‍य, पाण्‍डवों की सत्‍य परायणता तथा घृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन आदि के दुर्व्‍यवहारों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया है। पुण्‍य कर्मा मानवों के उपाख्‍यानों सहित एक लाख श्‍लोकों के इस उत्तरग्रन्‍थ को आद्य भारत (महाभारत) जानना चाहिये। तदनन्‍तर व्‍यास जी ने उपाख्‍यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्‍लोकों की 'भारत संहिता' बनायी; जिसे विद्वान पुरूष भारत कहते हैं। इसके पश्‍चात महर्षि ने पुन: पर्व सहित ग्रन्‍थ में वर्णित वृत्तान्‍तों की अनुक्रमणिका (सूची) का एक संक्षिप्‍त अध्‍याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्‍लोक हैं। व्‍यास जी ने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव जी को इस महाभारत ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कराया। तदनन्‍तर उन्‍होंने दूसरे सुयोग्‍य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्‍यों को इसका उपदेश दिया।

तत्‍पश्चात भगवान व्‍यास ने साठ लाख श्‍लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी। उसके तीन लाख श्‍लोक देवलोक में समाहृत हो रहे हैं, पितृलोक में पंद्रह लाख तथा गन्‍धर्वलोक में चौदह लाख श्‍लोकों का पाठ होता है। इस मनुष्‍य लोक में एक लाख श्‍लोकों का आद्य भारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारद ने देवताओं को और असित देवल ने पितरों को इसका श्रवण कराया है। शुकदेव जी ने गन्‍धर्व, यक्ष तथा राक्षसों को महाभारत की कथा सुनायी है; परन्‍तु इस मनुष्‍य लोक में सम्‍पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि व्‍यास शिष्‍य धर्मात्‍मा वैशम्‍पायन जी ने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरों ! वही एक लाख श्‍लोकों का महाभारत आप लोग मुझसे श्रवण कीजिये। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है। कर्ण स्‍कन्‍ध, शकुनि शास्‍त्रा और दु:शासन समृद्ध फल पुष्‍प है। अज्ञानी राजा धृतराष्‍ट्र ही इसके मूल हैं[१]

युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्‍कन्‍ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्‍दन इसके समृद्ध फल पुष्‍प हैं। श्री कृष्‍ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं[२]। महाराज पाण्‍डु अपनी बुद्धि और पराक्रम से अनेक देशों पर विजय पाकर (हिसंक) मृगों को मारने के स्‍वभाव वाले होने के कारण ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही निवास करते थे। एक दिन उन्‍होंने मृग रूपधारी महर्षि को मैथुन काल में मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकट में पड़ गये (ऋषि ने यह शाप दे दिया कि स्‍त्री सहवास करने पर तुम्‍हारी मृत्‍यु हो जायेगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्‍डवों के जन्‍म से लेकर जात- कर्म आदि सब संस्‍कार वन में ही हुए और वहीं उन्‍हें शील एवं सदाचार की रक्षा का उपदेश प्राप्त हुआ। पूर्वोक्‍त शाप होने पर भी संतान होने का कारण यह था कि कुल धर्म की रक्षा के लिये दुर्वासा द्वारा प्राप्‍त हुई विद्या का आश्रय लेने के कारण पाण्‍डवों की दोनों माताओं कुन्ती और माद्री के समीप क्रमश: धर्म, वायु, इन्‍द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार- इन देवताओं का आगमन सम्‍भव हो सका।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1- यह और इसके बाद का श्‍लोक महाभारत के तात्‍पर्य के सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्‍द से द्वेष-सूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहियें। कर्ण, शकुनि, दु:शासन आदि उससे एकता को प्राप्‍त है, उसी के स्‍वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्‍ट्र। यह अज्ञानी अपने मन को वश में करने में असमर्थ है। इसी ने पुत्रों की आसक्ति में अंधे होकर दुर्योधन को अवसर दिया,जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधन को वश में कर लेता अथवा बचपन में ही विदुर आदि की बात मानकर इसका त्‍याग कर देता तो विष-दान, लाक्षागृह दाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्‍कर्मो का अवसर ही नहीं आता और कुलक्ष्य न होता। इस प्रसंग से यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो मन्‍यू (दुर्योधन) रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है, क्रोध लोभादि स्‍कन्‍ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्‍धन नरकादि इसके फल-पुष्प है। पुरूषार्थ कामी पुरूष को मूलाज्ञान का उच्‍छेद करके पहले ही इस (क्रोध रूप) वृक्ष को नष्‍ट कर देना चाहिये।
  2. 2- युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्‍य, अंहिसा आदि रूप धर्म की मूर्ति हैं। अर्जुन भीम आदि को धर्म की शाखा बतलाने का अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिर के ही स्‍वरूप हैं, उनसे अभिन्‍न हैं, शुद्धसत्वमय शान‍ विग्रह श्री कृष्‍ण रूप परमात्‍मा ही उसके मूल हैं। उनकी दृढ़ शान से ही धर्म की नीव मजबूत होती है। श्रुति भगवती ने कहा है कि ‘हे गार्गी ! इस अविनाशी परमात्‍मा को जाने बिना इस लोक में जो हजारों वर्ष पर्यन्‍त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्‍या करता है, उन सबका फल नाशवान ही होता है।‘ ज्ञान का मूल है ब्रह्म अर्थात वेद। वेद से ही परम धर्म योग और अपार धर्मयज्ञ योगादि ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्‍त है कि धर्म का मूल केवल शब्‍द प्रमाण ही है। वेद के भी मूल ब्राह्मण हैं; क्‍योंकि वे ही वेद सम्‍प्रदाय के प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशक के रूप में ब्राह्मण, प्रमाण के रूप में वेद और अनुग्राहक के रूप में परमात्‍मा धर्म का मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मण का भक्‍त अधिकारी पुरूष भगवद् आराधन के बल से योगादि रूप धर्ममय वृक्ष का सम्‍पादन करे। उस वृक्ष के अहिंसा, सत्‍य आदि तने हैं। धारण, ध्‍यान आदि शाखाएँ हैं और तत्‍व साक्षात्‍कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्ष के समाश्रय से ही पुरूषार्थ की सिद्धि होती है, अन्‍यथा नहीं।

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

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