महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-2
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षट्षष्टयधिकशततम (166) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )
‘जिन्होंने देखकर भी फल के पापजनक दोषों की ओर द्दष्टिपात नहीं किया, जो किसी वस्तु को लेने में शुद्धि-अशुद्धि का विचार नहीं करते, वे दूसरे कार्यों में भी कैसा बर्ताव करेंगे, कहा नहीं जा सकता। ‘गुरुकुल में रहकर संहिताभाग का अध्ययन करते हुए भी जो दूसरों की त्यागी हुई भिक्षा को जब-तब खा लिया करते थे ओर घृणाशून्य होकर बार-बार उस अन्न के गुणों का वर्णन करते रहते थे, उन अपने भाई को जब मैं तर्क की द्दष्टि से देखता हूं तो वे मुझे फल के लोभी जान पड़ते हैं। ‘राजन् ! तुम उन्हीं के पास जाओ। वे तुम्हारा यज्ञ करा देंगे।‘ राजा द्रुपद उपयाज की बात सुनकर याज के इस चरित्र की मन-ही-मन निन्दा करने लगे, तो भी अपने कार्य का विचार करके याज के आश्रम पर गये और पूज्यनीय याज मुनि का पूजन करके तब उनसे इस प्रकार बोले- ‘भगवन् ! मैं आपको अस्सी हजार गौएं भेंट करता हूं। आप मेरा यज्ञ करा दीजिये।मैं द्रोण के वैर से संतप्त हो रहा हूं। आप मुझे प्रसन्नता प्रदान करें’।‘द्रोणाचार्य ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ और ब्रह्मास्त्र के प्रयोग में भी सर्वोत्तम हैं; इसलिये मित्र मानने-न-मानने के प्रश्न को लेकर होनेवाले झगड़े में उन्होंने मुझे पराजित कर दिया है। ‘परम बुद्धिमान् भरद्वाजनन्दन द्रोण इन दिनों कुरुवंशी राजकुमारों के प्रधान आचार्य हैं।इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा क्षत्रिय नहीं है, जो अस्त्रविद्या में उनसे आगे बढ़ा हो। ‘द्रोणाचार्य के बाणसमूह प्राणियों के शरीर का संहार करने वाले हैं। उनका छ: हाथ का लंबा धनुष बहुत बड़ा दिखायी देता है। इसमें संदेह नहीं कि महान् धनुर्धर महामना द्रोण ब्राह्मण-वेश में (अपने ब्राह्मतेज के द्वारा) क्षत्रिय तेज को प्रतिहत कर देते हैं। ‘मानो जमदग्रिनन्दन परशुरामजी की भांति क्षत्रियों का संहार करने के लिये उनकी सृष्टि हुई है। उनका अस्त्रबल बड़ा भंयकर है। पृथ्वी के सब मनुष्य मिलकर भी उसे दबा नहीं सकते।‘ घी की आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान वे प्रचण्ड ब्राह्मतेज धारण करते हैं और युद्ध में क्षात्रधर्म को आगे रखकर विपक्षियों से भिड़त होने पर वे उन्हें भस्म कर डालते हैं।‘यद्यपि द्रोणाचार्य में ब्राह्मतेज के साथ-साथ क्षात्रतेज भी विद्यमान है, तथापि आपका ब्राह्मतेज उनसे बढ़कर है। मैं केवल क्षात्रबल के कारण द्रोणाचार्य से हीन हूं; अत: मैंने आपके ब्राह्मतेज की शरण ली है। ‘आप वेदवेत्ताओं में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण द्रोणाचार्य से बहुत बढ़े-चढ़े हैं। मैं आपकी शरण लेकर एक ऐसा पुत्र पाना चाहता हूं, जो युद्ध में दुर्जय और द्रोणाचार्य का विनाशक हो। ‘याजजी ! मेरे इस मनोरथ को पूर्ण करनेवाला यज्ञ कराइये। उसके लिये मैं आपको एक अर्बुद गौएं दक्षिणा में दूंगा।‘ तब याजने ‘तथास्तु’ कहकर यजमान की अभीष्ट सिद्धि के लिये आवश्यक यज्ञ और उसके साधनों का स्मरण किया ।‘यह बहुत बड़ा कार्य है’ ऐसा विचार करके याज ने इस कार्य के लिये किसी प्रकार की कामना न रखनेवाले उपयाज को भी प्रेरित किया तथा याज ने द्रोण के विनाश के लिये वैसा पुत्र उत्पन्न करने की प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद महातपस्वी उपयाज ने राजा द्रुपद को अभीष्ट पुत्ररुपी फल की सिद्धि के लिये आवश्यक यज्ञकर्म का उपदेश किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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