"महाभारत आदि पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-21" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: एकोनविंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: एकोनविंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय उग्रश्रवाजी कहते हैं—अमृत हाथ से निकल जाने पर दैत्या और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं पर टूट पड़े। उधर अनन्त शक्तिशाली नर सहित भगवान् नारायण ने जब मोहिनी रूप धारण करके दानवेन्द्रों के हाथ से अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णु से अमृत ले लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्ध की सम्भावना हो गयी थी। जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृत का पान कर रहे थे, ठीक उसी समय, राहु नामक दानव ने देवता रूप से आकर अमृत पीना आरम्भ किया। वह अमृत अभी उस दानव के कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने देवताओं के हित की इच्छा से उसका भेद बतला दिया।तब चक्रधारी भगवान् श्री हरि ने अमृत पीने वाले उस दानव का मुकुटमण्डित मस्तक चक्र द्वारा बल पूर्वक काट दिया। चक्र से कटा हुआ दानव का महान् मस्तक पर्वत के शिखर सा जान पड़ता था। वह आकाश में उछल-उछल कर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा। पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित समूची पृथ्वी को कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा। तभी से राहु के मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ भारी एवं स्थायी वेर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनों पर ग्रहण लगाता है। (देवताओं को अमृत पिलाने के बाद) भगवान् श्री हरि ने भी अपना अनुपम मोहिनी रूप त्याग कर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा दानवों को अत्यन्त कम्पित कर दिया। फिर तो क्षार सागर के समीप देवताओं और असुरों का सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया। दोनों दलों पर सहस्त्रों तीखी धार वाले बड़े-बड़े भालों की मार पड़ने लगी। तेज नोक वाले तोमर तथा भाँति-भाँति शस्त्र बरसने लगे। भगवान् के चक्र से छिन्न-भिन्न तथा देवताओं के खंग शक्ति और गदा से घायल हुए असुर मुख से अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्ण की मालाओं से विभूषित दानवों के सिर भयंकर पट्टिशों से कटकर निरन्तर युद्ध भूमि में गिर रहे थे। वहाँ खून से लथपथ अंग वाले मरे हुए महान् असुर, जो समर भूमि मे सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत शिखरों के समान जान पड़ते थे। संध्या के समय जल सूर्य मण्डल लाल हो रहा था, एक दूसरे के शस्त्रों से कटने वाले सहस्त्रों योद्धाओं का हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा। समरांगण में दूरवर्ती देवता और दानव लोहे के तीखें परिघों से एक दूसरे पर चोट करते थे और निकट आ जाने पर आपस में मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रतयाघात का शब्द मानो सारे आकाश में गूँज उठा। उस रणभूमि में चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि‘टुकड़े-टुकडे़ कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो’। इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णु के दो रूप नर और नारायण देव भी युद्ध भूमि में आ गये। भगवान् नारायण ने वहाँ नर के हाथ में दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानव संहारक दिव्य चक्र का चिन्तन किया। चिन्तन करते ही शत्रुओं को संताप देने वाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाश मार्ग से उनके हाथ में आ गया। वह सूर्य एवं अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्र की गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किन्तु वह युद्ध में शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था। वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के  बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुज दण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान् नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महा बल शाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरूषोत्तम श्री हरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्त्रों दैत्यों तथा दानवों विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्री हरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्‍त पीने लगा।  
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उग्रश्रवाजी कहते हैं—अमृत हाथ से निकल जाने पर दैत्या और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं पर टूट पड़े। उधर अनन्त शक्तिशाली नर सहित भगवान् नारायण ने जब मोहिनी रूप धारण करके दानवेन्द्रों के हाथ से अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णु से अमृत ले लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्ध की सम्भावना हो गयी थी। जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृत का पान कर रहे थे, ठीक उसी समय, राहु नामक दानव ने देवता रूप से आकर अमृत पीना आरम्भ किया। वह अमृत अभी उस दानव के कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने देवताओं के हित की इच्छा से उसका भेद बतला दिया।तब चक्रधारी भगवान् श्री हरि ने अमृत पीने वाले उस दानव का मुकुटमण्डित मस्तक चक्र द्वारा बल पूर्वक काट दिया। चक्र से कटा हुआ दानव का महान् मस्तक पर्वत के शिखर सा जान पड़ता था। वह आकाश में उछल-उछल कर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा। पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित समूची पृथ्वी को कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा। तभी से राहु के मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ भारी एवं स्थायी वेर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनों पर ग्रहण लगाता है। (देवताओं को अमृत पिलाने के बाद) भगवान् श्री हरि ने भी अपना अनुपम मोहिनी रूप त्याग कर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा दानवों को अत्यन्त कम्पित कर दिया। फिर तो क्षार सागर के समीप देवताओं और असुरों का सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया। दोनों दलों पर सहस्त्रों तीखी धार वाले बड़े-बड़े भालों की मार पड़ने लगी। तेज नोक वाले तोमर तथा भाँति-भाँति शस्त्र बरसने लगे। भगवान् के चक्र से छिन्न-भिन्न तथा देवताओं के खंग शक्ति और गदा से घायल हुए असुर मुख से अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्ण की मालाओं से विभूषित दानवों के सिर भयंकर पट्टिशों से कटकर निरन्तर युद्ध भूमि में गिर रहे थे। वहाँ खून से लथपथ अंग वाले मरे हुए महान् असुर, जो समर भूमि मे सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत शिखरों के समान जान पड़ते थे। संध्या के समय जल सूर्य मण्डल लाल हो रहा था, एक दूसरे के शस्त्रों से कटने वाले सहस्त्रों योद्धाओं का हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा। समरांगण में दूरवर्ती देवता और दानव लोहे के तीखें परिघों से एक दूसरे पर चोट करते थे और निकट आ जाने पर आपस में मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रतयाघात का शब्द मानो सारे आकाश में गूँज उठा। उस रणभूमि में चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि‘टुकड़े-टुकडे़ कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो’। इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णु के दो रूप नर और नारायण देव भी युद्ध भूमि में आ गये। भगवान् नारायण ने वहाँ नर के हाथ में दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानव संहारक दिव्य चक्र का चिन्तन किया। चिन्तन करते ही शत्रुओं को संताप देने वाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाश मार्ग से उनके हाथ में आ गया। वह सूर्य एवं अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्र की गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किन्तु वह युद्ध में शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था। वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के  बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुज दण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान् नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महा बल शाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरूषोत्तम श्री हरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्त्रों दैत्यों तथा दानवों विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्री हरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्‍त पीने लगा।  
  
 
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<big>बड़ा पाठ</big>

०६:३६, ३० जून २०१५ का अवतरण

एकोनविंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: एकोनविंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—अमृत हाथ से निकल जाने पर दैत्या और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं पर टूट पड़े। उधर अनन्त शक्तिशाली नर सहित भगवान् नारायण ने जब मोहिनी रूप धारण करके दानवेन्द्रों के हाथ से अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णु से अमृत ले लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्ध की सम्भावना हो गयी थी। जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृत का पान कर रहे थे, ठीक उसी समय, राहु नामक दानव ने देवता रूप से आकर अमृत पीना आरम्भ किया। वह अमृत अभी उस दानव के कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने देवताओं के हित की इच्छा से उसका भेद बतला दिया।तब चक्रधारी भगवान् श्री हरि ने अमृत पीने वाले उस दानव का मुकुटमण्डित मस्तक चक्र द्वारा बल पूर्वक काट दिया। चक्र से कटा हुआ दानव का महान् मस्तक पर्वत के शिखर सा जान पड़ता था। वह आकाश में उछल-उछल कर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा। पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित समूची पृथ्वी को कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा। तभी से राहु के मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ भारी एवं स्थायी वेर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनों पर ग्रहण लगाता है। (देवताओं को अमृत पिलाने के बाद) भगवान् श्री हरि ने भी अपना अनुपम मोहिनी रूप त्याग कर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा दानवों को अत्यन्त कम्पित कर दिया। फिर तो क्षार सागर के समीप देवताओं और असुरों का सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया। दोनों दलों पर सहस्त्रों तीखी धार वाले बड़े-बड़े भालों की मार पड़ने लगी। तेज नोक वाले तोमर तथा भाँति-भाँति शस्त्र बरसने लगे। भगवान् के चक्र से छिन्न-भिन्न तथा देवताओं के खंग शक्ति और गदा से घायल हुए असुर मुख से अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्ण की मालाओं से विभूषित दानवों के सिर भयंकर पट्टिशों से कटकर निरन्तर युद्ध भूमि में गिर रहे थे। वहाँ खून से लथपथ अंग वाले मरे हुए महान् असुर, जो समर भूमि मे सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत शिखरों के समान जान पड़ते थे। संध्या के समय जल सूर्य मण्डल लाल हो रहा था, एक दूसरे के शस्त्रों से कटने वाले सहस्त्रों योद्धाओं का हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा। समरांगण में दूरवर्ती देवता और दानव लोहे के तीखें परिघों से एक दूसरे पर चोट करते थे और निकट आ जाने पर आपस में मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रतयाघात का शब्द मानो सारे आकाश में गूँज उठा। उस रणभूमि में चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि‘टुकड़े-टुकडे़ कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो’। इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णु के दो रूप नर और नारायण देव भी युद्ध भूमि में आ गये। भगवान् नारायण ने वहाँ नर के हाथ में दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानव संहारक दिव्य चक्र का चिन्तन किया। चिन्तन करते ही शत्रुओं को संताप देने वाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाश मार्ग से उनके हाथ में आ गया। वह सूर्य एवं अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्र की गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किन्तु वह युद्ध में शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था। वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुज दण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान् नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महा बल शाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरूषोत्तम श्री हरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्त्रों दैत्यों तथा दानवों विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्री हरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्‍त पीने लगा।


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