"महाभारत आदि पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व:  द्वात्रिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व:  द्वात्रिंशो (32) अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
उग्रश्रवाजी कहते हैं—द्विजश्रेष्ठ ! देवताओं का समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो युद्ध के लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरूड़ तुरन्त ही देवताओं के पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान गरूड़ को देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। उनके सभी आयुध आपस में ही आघात-प्रत्याघात करने लगे। वहाँ विद्युत एवं अग्नि के समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन (विश्वकर्मा) अमृत की रक्षा कर रहे थे। वे पक्षिराज के साथ दो घड़ी तक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच नखों से घायल हो उस रणागण में मृतक तुल्य हो गये। तदनन्तर पक्षिराज ने अपने पंखों की प्रचण्ड वायु से बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकों में अन्धकार फैला दिया और उसी धूल से देवताओं को ढक दिया। उस धूल से आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृत की रक्षा करने वाले देवता भी इसी प्रकार धूल से ढक जाने के कारण कुछ देख नहीं पाते थे। इस तरह गरूड़ ने स्वर्गलोक को व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचों की मार से देवताओं का अंग-अंग विदीर्ण कर डाला। तब सहस्त्र नेत्रों वाले इन्द्र देव ने तुरन्त ही वायु को आज्ञा दी—‘मारुत ! तुम इस धूल की वृष्टि को दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वश का है।' तब बलवान वायुदेव ने बड़े वेग से उस धूल को दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा पक्षी गरूड़ को पीड़ित करने लगे। देवताओं के प्रहार को सहते हुए महाबली गरूड़ आकाश में छाये हुए महामेघ की भाँति समस्त प्राणियों को डराते हुए जोर-जोर से गर्जन करने लगे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाश में बहुत ऊँचे उड़  गये। उड़कर अन्तरिक्ष में देवताओं के ऊपर (ठीक सिर की सीध में) खड़े हो गये। उस समय कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उन पर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा प्रहार करने लगे। अग्नि के समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्य के समान उद्भासित होने वाले चक्र तथा नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे शस्त्रों के प्रहार द्वारा उन पर सब ओर से मार पड़ रही थी। तो भी पक्षिराज गरूड़ देवताओं के साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न हुए। परम प्रतापी विनतानन्दन गरूड़ ने मानो देवताओं को दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार रोष में भरकर आकाश में खड़े-खडे़ ही पंखों और छाती के धक्के से उन सबको चारों ओर मार गिराया। गरूड़ से पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और चोंच से क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगों से बहुत सा रक्त बहाने लगे। पक्षिराज से पराजित हो साव्य और गन्धर्व पूर्व दिशा की ओर भाग चले। वसुओं तथा रूद्रों ने दक्षिण दिशा की शरण ली। आदित्यगण पश्चिम दिशा की ओर भागे तथा अश्विनी कुमारों ने उत्तर दिशा का आश्रय लिया। ये महापराक्रमी योद्धा बार-बार पीछे की ओर देखते हुए भाग रहे थे। इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरूड़ ने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर, क्रथन, तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररूज तथा पुलिन—इन नौ यक्षों के साथ युद्ध किया। शत्रुओं का दमन करने वाले विनताकुमार ने प्रलयकाल में कुपित हुए पिनाकधारी रूद्र की भाँति क्रोध में भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंच के अग्रभाग से विदीर्ण कर डाला। वे सभी यक्ष बड़े बलवान और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्ध में गरूड़ द्वारा बार-बार क्षत-विक्षत होकर वे खून की धारा बहाते हुए बादलों की भाँति शोभा पा रहे थे। पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठाने के लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों ओर उन्होंने आग जलती देखी। वह आग अपनी लपटों से वहाँ के समस्त आकाश को आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थी। वह सूर्यमण्डल की भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायु में प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी। तब वेगशाली महात्मा गरूड़ ने अपने शरीर में आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा नदियों का जल पी लिया और पुनः बड़े वेग से शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आग पर सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओं को ताप देने वाले पक्षवाहन गरूड़ ने नदियों के जल से उस आग को बुझाकर अमृत के पास पहुँचने की इच्छा से एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया।
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उग्रश्रवा जी कहते हैं—'द्विजश्रेष्ठ ! [[देवता|देवताओं]] का समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँति के [[अस्त्र शस्त्र|अस्त्र-शस्त्रों]] से सम्पन्न हो युद्ध के लिये उद्यत हो गया, उसी समय [[गरूड़|पक्षिराज गरूड़]] तुरन्त ही देवताओं के पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान गरूड़ को देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। उनके सभी आयुध आपस में ही आघात-प्रत्याघात करने लगे। वहाँ विद्युत एवं अग्नि के समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन (विश्वकर्मा) अमृत की रक्षा कर रहे थे। वे पक्षिराज के साथ दो घड़ी तक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच नखों से घायल हो उस रणागण में मृतक तुल्य हो गये।  
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तदनन्तर पक्षिराज ने अपने पंखों की प्रचण्ड वायु से बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकों में अन्धकार फैला दिया और उसी धूल से देवताओं को ढक दिया। उस धूल से आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृत की रक्षा करने वाले देवता भी इसी प्रकार धूल से ढक जाने के कारण कुछ देख नहीं पाते थे। इस तरह गरूड़ ने स्वर्गलोक को व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचों की मार से देवताओं का अंग-अंग विदीर्ण कर डाला। तब सहस्त्र [[नेत्र|नेत्रों]] वाले [[इन्द्र |इन्द्र देव]] ने तुरन्त ही [[वायुदेव|वायु]] को आज्ञा दी—‘मारुत ! तुम इस धूल की वृष्टि को दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वश का है।'  
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तब बलवान वायुदेव ने बड़े वेग से उस धूल को दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा पक्षी गरूड़ को पीड़ित करने लगे। देवताओं के प्रहार को सहते हुए महाबली गरूड़ आकाश में छाये हुए महामेघ की भाँति समस्त प्राणियों को डराते हुए जोर-जोर से गर्जन करने लगे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाश में बहुत ऊँचे उड़  गये। उड़कर अन्तरिक्ष में देवताओं के ऊपर (ठीक सिर की सीध में) खड़े हो गये। उस समय कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उन पर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा प्रहार करने लगे। अग्नि के समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्य के समान उद्भासित होने वाले चक्र तथा नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे शस्त्रों के प्रहार द्वारा उन पर सब ओर से मार पड़ रही थी। तो भी पक्षिराज गरूड़ देवताओं के साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न हुए।  
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परम प्रतापी विनतानन्दन गरूड़ ने मानो देवताओं को दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार रोष में भरकर आकाश में खड़े-खड़े ही पंखों और छाती के धक्के से उन सबको चारों ओर मार गिराया। गरूड़ से पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और चोंच से क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगों से बहुत सा रक्त बहाने लगे। पक्षिराज से पराजित हो साव्य और गन्धर्व पूर्व दिशा की ओर भाग चले। वसुओं तथा रूद्रों ने दक्षिण दिशा की शरण ली। आदित्यगण पश्चिम दिशा की ओर भागे तथा अश्विनी कुमारों ने उत्तर दिशा का आश्रय लिया। ये महापराक्रमी योद्धा बार-बार पीछे की ओर देखते हुए भाग रहे थे। इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरूड़ ने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर, क्रथन, तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररूज तथा पुलिन—इन नौ यक्षों के साथ युद्ध किया।  
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शत्रुओं का दमन करने वाले विनताकुमार ने प्रलयकाल में कुपित हुए पिनाकधारी रूद्र की भाँति क्रोध में भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंच के अग्रभाग से विदीर्ण कर डाला। वे सभी यक्ष बड़े बलवान और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्ध में गरूड़ द्वारा बार-बार क्षत-विक्षत होकर वे खून की धारा बहाते हुए बादलों की भाँति शोभा पा रहे थे। पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठाने के लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों ओर उन्होंने आग जलती देखी। वह आग अपनी लपटों से वहाँ के समस्त आकाश को आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थी। वह सूर्यमण्डल की भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायु में प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी। तब वेगशाली महात्मा गरूड़ ने अपने शरीर में आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा [[नदी|नदियों]] का [[जल]] पी लिया और पुनः बड़े वेग से शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आग पर सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओं को ताप देने वाले पक्षवाहन गरूड़ ने नदियों के जल से उस आग को बुझाकर अमृत के पास पहुँचने की इच्छा से एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया।
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 31 श्लोक 1- 35|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 33 श्लोक 1- 25}}
 
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११:३८, ४ जुलाई २०१५ का अवतरण

द्वात्रिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदिपर्व: द्वात्रिंशो (32) अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवा जी कहते हैं—'द्विजश्रेष्ठ ! देवताओं का समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो युद्ध के लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरूड़ तुरन्त ही देवताओं के पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान गरूड़ को देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। उनके सभी आयुध आपस में ही आघात-प्रत्याघात करने लगे। वहाँ विद्युत एवं अग्नि के समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन (विश्वकर्मा) अमृत की रक्षा कर रहे थे। वे पक्षिराज के साथ दो घड़ी तक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच नखों से घायल हो उस रणागण में मृतक तुल्य हो गये।

तदनन्तर पक्षिराज ने अपने पंखों की प्रचण्ड वायु से बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकों में अन्धकार फैला दिया और उसी धूल से देवताओं को ढक दिया। उस धूल से आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृत की रक्षा करने वाले देवता भी इसी प्रकार धूल से ढक जाने के कारण कुछ देख नहीं पाते थे। इस तरह गरूड़ ने स्वर्गलोक को व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचों की मार से देवताओं का अंग-अंग विदीर्ण कर डाला। तब सहस्त्र नेत्रों वाले इन्द्र देव ने तुरन्त ही वायु को आज्ञा दी—‘मारुत ! तुम इस धूल की वृष्टि को दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वश का है।'

तब बलवान वायुदेव ने बड़े वेग से उस धूल को दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा पक्षी गरूड़ को पीड़ित करने लगे। देवताओं के प्रहार को सहते हुए महाबली गरूड़ आकाश में छाये हुए महामेघ की भाँति समस्त प्राणियों को डराते हुए जोर-जोर से गर्जन करने लगे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाश में बहुत ऊँचे उड़ गये। उड़कर अन्तरिक्ष में देवताओं के ऊपर (ठीक सिर की सीध में) खड़े हो गये। उस समय कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उन पर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा प्रहार करने लगे। अग्नि के समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्य के समान उद्भासित होने वाले चक्र तथा नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे शस्त्रों के प्रहार द्वारा उन पर सब ओर से मार पड़ रही थी। तो भी पक्षिराज गरूड़ देवताओं के साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न हुए।

परम प्रतापी विनतानन्दन गरूड़ ने मानो देवताओं को दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार रोष में भरकर आकाश में खड़े-खड़े ही पंखों और छाती के धक्के से उन सबको चारों ओर मार गिराया। गरूड़ से पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और चोंच से क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगों से बहुत सा रक्त बहाने लगे। पक्षिराज से पराजित हो साव्य और गन्धर्व पूर्व दिशा की ओर भाग चले। वसुओं तथा रूद्रों ने दक्षिण दिशा की शरण ली। आदित्यगण पश्चिम दिशा की ओर भागे तथा अश्विनी कुमारों ने उत्तर दिशा का आश्रय लिया। ये महापराक्रमी योद्धा बार-बार पीछे की ओर देखते हुए भाग रहे थे। इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरूड़ ने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर, क्रथन, तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररूज तथा पुलिन—इन नौ यक्षों के साथ युद्ध किया।

शत्रुओं का दमन करने वाले विनताकुमार ने प्रलयकाल में कुपित हुए पिनाकधारी रूद्र की भाँति क्रोध में भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंच के अग्रभाग से विदीर्ण कर डाला। वे सभी यक्ष बड़े बलवान और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्ध में गरूड़ द्वारा बार-बार क्षत-विक्षत होकर वे खून की धारा बहाते हुए बादलों की भाँति शोभा पा रहे थे। पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठाने के लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों ओर उन्होंने आग जलती देखी। वह आग अपनी लपटों से वहाँ के समस्त आकाश को आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थी। वह सूर्यमण्डल की भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायु में प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी। तब वेगशाली महात्मा गरूड़ ने अपने शरीर में आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा नदियों का जल पी लिया और पुनः बड़े वेग से शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आग पर सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओं को ताप देने वाले पक्षवाहन गरूड़ ने नदियों के जल से उस आग को बुझाकर अमृत के पास पहुँचने की इच्छा से एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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