महाभारत आदि पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-18

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त्रयस्त्रिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: त्रयस्त्रिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 25 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—तदनन्तर जैसे जल का वेग समुद्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार पक्षिराज गरूड सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान सुवर्णमय स्वरूप धारण करके बलपूर्वक, जहाँ अमृत था, उस स्थान में घुस गये। उन्होंने देखा, अमृत के निकट एक लोहे का चक्र घूम रहा है। उसके चारों ओर छुरे लगे हुए हैं। वह निरन्तर चलता रहता है और उसकी धार बड़ी तीखी है। वह घोर चक्र अग्नि और सूर्य के समान जाज्वल्यमान था। देवताओं ने उस अत्यन्त भयंकर यन्त्र का निर्माण इसलिये किया था कि वह अमृत चुराने के लिये आये हुए चोरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। पक्षी गरूड़ उसके भीतर का छिद्र—उसमें घुसने का मार्ग देखते हुए खड़े रहे।। फिर एक क्षण में ही वे अपने शरीर को संकुचित करके उस चक्र के अरों के बीच से होकर भीतर घुस गये। वहाँ चक्र के नीचे अमृत की रक्षा के लिये ही दो श्रेष्ठ सर्प नियुक्त किये गये थे। उनकी कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ती थी। बिजली के समान उनकी लपलपाती हुई जीभें, देदीप्यमान मुख और चमकती हुई आँखें थीं। वे दोनों सर्प बड़े पराक्रमी थे। उनके नेत्रों में ही विपा भरा था। वे बड़े भयंकर, नित्य क्रोधी और अत्यन्त वेगशाली थे। गरूड़ ने उन दोनों को देखा। उनके नेत्रों में सदा क्रोध भरा रहता था। वे निरन्तर एकटक दृष्टि से देखा करते थे(उनकी आँखें कभी बन्द नहीं होती थीं)। उनमें से एक भी जिसे देख ले, वह तत्काल भस्म हो सकता था। सुन्दर पंख वाले गरूड़ जी ने सहसा धूल झोंक कर उनकी आँखें बन्द कर दी और उनसे अदृश्य रहकर ही वे सब ओर से उन्हें मारने और कुचलने लगे। आकाश में विचरने वाले महापराक्रमी विनताकुमार ने वेगपूर्वक आक्रमण करके उन दोनों सर्पों के शरीर को बीच से काट डाला; फिर वे अमृत की और झपटे और चक्र को तोड़ फोड़कर अमृत के पात्र को उठाकर बड़ी तेजी के साथ वहाँ से उड़ चले। उन्होंने स्वयं अमृत को नहीं पीया, केवल उसे लेकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ से निकल गये और सूर्य की प्रभा का तिरस्कार करते हुए बिना थकावट के चले आये। उस समय आकाश में विनतानन्दन गरूड़ की भगवान विष्णु से भेंट हो गयी। भगवान नारायण गरूड़ के लोलुपतारहित पराक्रम से बहुत संतुष्ट हुए थे। अतः उन अविनाशी भगवान विष्णु ने आकाशचारी गरूड़ से कहा-‘मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ।’ अन्तरिक्ष में विचरने वाले गरूड़ ने यह वर माँगा—‘प्रभो ! मैं आपके ऊपर (ध्वज में) स्थित होऊँ।' इतना कहकर वे भगवान नारायण से फिर यों बोले—‘भगवन ! मैं अमृत पीये बिना ही अजर- अमर हो जाऊँ’। तब भगवान विष्णु ने विनतानन्दन गरूड़ से कहा—‘एवमस्तु-ऐसा ही हो।’ वे दोनों वर ग्रहण करके गरूड़ ने भगवान विष्णु से कहा—‘देव ! मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ। भगवान भी कोई वर माँगें।’ तब श्रीहरि ने महाबली गरूत्मान से अपना वाहन होने का वर माँगा। भगवान विष्णु ने गरूड़ को अपना ध्वज बना लिया— उन्हें ध्वज के ऊपर स्थान दिया और कहा—‘इस प्रकार तुम मेरे ऊपर रहोगे।’ तदनन्तर उन भगवान नारायण से ‘एवमस्तु’ कहकर पक्षी गरूड़ वहाँ से वेगपूर्वक चले गये। महान वेगशाली गरूड़ उस समय वायु से होड़ लगाते चल रहे थे। पक्षियों के सरदार उन खगश्रेष्ठ गरूड़ को अमृत का अपहरण करके लिये जाते देख इन्द्र ने रोष में भरकर उनके ऊपर वज्र से आघात किया। विहंगप्रवर गरूड़ ने उस युद्ध में वज्राहत होकर भी हँसते हुए मधुर वाणी में इन्द्र से कहा—देवराज ! जिनकी हड्डी से यह वज्र बना है, उन महर्षि का सम्मान मैं अवश्य करूँगा। शतक्रतो ! ऋषि के साथ-साथ तुम्हारा और तुम्हारे वज्र का भी आदर करूँगा; इसीलिये मैं अपनी एक पाँख जिसका तुम कहीं अन्त नहीं पा सकोगे, त्याग देता हूँ। ‘तुम्हारे वज्र के प्रहार से मेरे शरीर में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई है।’ ऐसा कहकर पक्षिराज ने अपना एक पंख गिरा दिया। उस गिरे हुए परम उत्तम पंख को देखकर सब प्राणियों को बड़ा हर्ष हुआ और उसी के आधार पर उन्होंने गरूड़ का नामकरण किया। वह सुन्दर पाँख देखकर लोगों ने कहा, जिसका यह सुन्दर पर्ण (पंख) है, वह पक्षी सुपर्ण नाम से ख्यात हो। (गरूड़ पर वज्र भी निष्फल हो गया) यह महान आश्चर्य की बात देखकर सहस्त्र नेत्रों वाले इन्द्र ने मन-ही-मन विचार किया, अहो ! यह पक्षीरूप में कोई महान प्राणी है, ऐसा सोचकर उन्होंने कहा। विहंगप्रवर ! मैं तुम्हारे सर्वोत्तम उत्कृष्ट बल को जानना चाहता हूँ और तुम्हारे साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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