महाभारत आदि पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-19

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चतुस्त्रिं‍शो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: चतुस्त्रिं‍शो अध्‍याय: श्लोक 1- 26 का हिन्दी अनुवाद

गरूड़ ने कहा—देव पुरन्दर ! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी) मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भो जान लो, वह महान् और असह्म है। शतक्रतो ! साधु पुरूष स्वेच्छा से अपने बल की स्तुति और अपने ही मुख से अपने गुणों का बखान अच्छा नहीं मानते। किंतु सखे ! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ; क्योंकि अकारण ही अपनी प्रशंसा से भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये (किन्तु किसी मित्र के पूछने पर सच्ची बात कहने में कोई हर्ज नहीं है।)। इन्द्र ! पर्वत, वन और समुद्र के जल सहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आपको भी अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम के उड़ सकता हूँ। अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकों को एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाय तो मैं सबको बिना परिश्रम के ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान् बल को समझ लो। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! वीरवर गरूड़ के इस प्रकार कहने पर श्रीमानों में श्रेष्ठ किरीटधारी सर्वलोकहितकारी भगवान् देवेन्द्र ने कहा—‘मित्र ! तुम जैसा कहते हो, वैसी ही बात हैं। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकार करो। ‘यदि तुम्हें स्वयं अमृत की आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनको यह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहँचावेंगे’। गरूड़ ने कहा—स्वर्ग के सम्राट् सहस्त्राक्ष ! किसी कारण वश मैं यह अमृत ले जाता हूँ। इसे किसी को भी पीने के लिये नहीं दूँगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दूँ, वहाँ से तुरन्त तुम उठा ले जा सकते हो। इन्द्र बोले—पक्षिराज ! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। खगश्रेष्ठ ! तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो । उग्रश्रवाजी कहते हैं—इन्द्र के ऐसा कहने पर गरूड़ को कद्रू पुत्रों की दुष्टता का स्मरण हो आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्वण बर्ताव की भी याद आ गयी, जो माता को दासी बनाने में कारण था। अतः उन्होंने इन्द्र से कहा—‘इन्द्र ! यद्यपिम मैं सब कुछ करने में समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारी इस याचना को पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरों को न दिया जाय। साथ ही तुम्हारे कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजन की सामग्री हो जायँ। तब दानव शत्रु इन्द्र ‘तथास्तु’ कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरि के पास गये। श्री हरि ने भी गरूड़ की कही हुई बात का अनुमोदन किया। तदनन्तर स्वर्गलोक के स्वामी भगवान् इन्द्र पुनः गरूड़ का सम्बोधित करके इस प्रकार बोले—‘तुम जिस समय इस अमृत को कहीं रख दोगे उसी समय मैं इसे हर ले आउँगा’(ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)। फिर सुन्दर पंख वाले गरूड़ तुरंत ही अपनी माता के समीप आ पहुँचे। तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न से होकर वे समस्त सर्पों से इस प्रकार बोले—‘पन्नगो ! मैंने तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशों पर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान और मंगल कर्म (स्वस्ति वाचन आदि) करके इस अमृत का पान करो। अमृत के लिये भेजते समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थी, उनके अनुसार आज से मेरी ये माता दासीपन से मुक्त हो जायँ; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था, उसे मैंने पूर्ण कर दिया है’। तब सर्पगण ‘तथास्तु’ कहकर स्नान के लिये गये। इसी बीच में इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्ग लोक को चले गये। इसके अनन्तर अमृत पीने की इच्छा वाले सर्प स्नान, जप और मंगल कार्य करके प्रसन्नता पूर्वक उस स्थान पर आये, जहाँ कुश के आसन पर अमृत रक्खा गया था। आने पर उन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। तब सर्पों ने यह सोचकर संतोप किया कि यह हमारे कपटपूर्ण बर्ताव का बदला है। फिर वह समझ कर कि यहाँ अमृत रक्खा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ अंश लगा हो, सर्पों ने उस समय कुशों को चाटना शुरू किया। ऐसा करने से सर्पों की जीभ के दो भाग हो गये। तभी से पवित्र अमृत का स्पर्श होने के कारण कुशों की ‘पवित्री’ संज्ञा हो गयी। इस प्रकार महात्मा गरूड़ ने देवलोक से अमृत का अपहरण किया और सर्पों के समीप तक उसे पहुँया; साथ ही सर्पों को द्विजिह्न (दो जिह्नाओं से युक्त) बना दिया। उस दिन से सुन्दर पंख वाले गरूड़ अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माता के साथ रहकर वहाँ वन में इच्छानुसार घूमने फिरने लगे। वे सर्पों को खाते और पक्षियों से सादर सम्मानित होकर अपनी उज्जवल कीर्ति चारो ओर फैलाते हुए माता विनता को आनन्द देने लगे। जो मनुष्य इस कथा को श्रेष्ठ द्विजों की उत्तम गोष्ठी मे सदा पढ़ता अथवा सुनता है, वह पक्षिराज महात्मा गरूड़ के गुणों का गान करने से पुण्य का भागी होकर निश्चय ही स्वर्गलोक में जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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