"महाभारत आदि पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-11" के अवतरणों में अंतर

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== चतुश्‍वत्‍वारिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)==
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==चतुश्चत्वारिंशत्तम (44) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: चतुश्चत्वारिंशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: चतुश्‍वत्‍वारिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 11 का हिन्दी अनुवाद</div>
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उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! मन्त्रीगण राजा परीक्षित को तक्षक नाग से जकड़ा हुआ देख अत्यन्त दुखी हो गये। उनके मुख पर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने लगे। तक्षक की फुंकार भरी गर्जना सुनकर मन्त्री लोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल कमल की- सी का‍न्ति वाला वह अद्भुत भाग आकाश में सिन्दूर की रेखा सी खींचता हुआ चला जा रहा हैं। नागों में श्रेष्ठ तक्षक को इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोक में डूब गये। ‘वह राजमहल सर्प के विष जनित अग्नि से आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख उन सब मन्त्रियों ने भय से उस स्थान को छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओं की शरण ली तथा राजा परीक्षित वज्र के मारे हुए की भाँति धरती पर गिर पड़े। तक्षक की विष्यग्नि द्वारा राजा परीक्षित के दग्ध हो जाने पर उनकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराज के मन्त्री तथा समस्त पुरवासी मनुष्यों ने मिलकर उन्हीं के पुत्र को, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया। कुरूकुल का वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओं का विनाश करने वाला था। लोग उसे राजा जनमेजय कहते थे। बचपन में ही नृपश्रेष्ठ जनमेजय की बुद्धि श्रेष्ठ पुरूषों के समान थी। अपने वीर पितामह महाराज युधिष्ठिर की भाँति कुरूश्रेष्ठ वीरों के अग्रगण्य जनमेजय भी  उस समय मंत्री और पुरोहितों के साथ धर्मपूर्वक राज्य का पालन करने लगे। राजम़िन्त्रयों ने देखा, राजा जनमेजय शत्रुाओं को दबाने में समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने काशिराज सुवर्णवर्मा के पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमा के लिये याचना की। काशिराज ने धर्म की दृष्टि से भली- भाँति जाँच पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमा का विवाह कुरूकुल के श्रेष्ठ वीर जनमेजय के साथ कर दिया। जनमेजय ने भी वपुष्टमा को पाकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया और दूसरी स्त्रियों की ओर कभी अपने मन को नहीं जाने दिया। राजाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजय ने प्रसन्नचित होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित उपवनों में रानी वपुष्टमा के साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्वकाल में उर्वशी को पाकर महाराज पुरूरवा ने किया था। वपुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजा के अन्तःपुर में सबसे सुन्दर रमणी थी। राजा जनमेजय को पतिरूप में प्राप्त करके वह विहारकाल में बड़े अनुराग के साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी।
  
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! मन्त्रीगण राजा परीक्षित् को तक्षक नाग से जकड़ा हुआ देख अत्यन्त दुखी हो गये। उनके मुख पर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने लगे। तक्षक की फुंकार भरी गर्जना सुनकर मन्त्री लोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल कमल की सी का‍न्ति वाला वह अद्भुत भाग आकाश में सिन्दूर की रेखा सी खींचता हुआ चला जा रहा हैं। नागों में श्रेष्ठ तक्षक को इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोक में डूब गये। ‘वह राजमहल सर्प के विष जनित अग्नि से आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख उन सब मन्त्रियों ने भय से उस स्थान के छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओं की शरण ली तथा राजा परीक्षित् बज्र के मारे हुए की भाँति धरती पर गिर पड़े। तक्षक की विष्यग्नि द्वारा राजा परीक्षित् के दग्ध हो जाने पर उनकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराज के मन्त्री तथा समस्त पुरवासी मनुष्यों ने मिलकर उन्हीं के पुत्र को, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया। कुरूकुल का वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओं का विनाश करने वाला था। लोग उसे राजा जनमेजय कहते थे। बचपन में ही नृपश्रेष्ठ जनमेजय की बुद्धि श्रेष्ठ पुरूषों के समान थी। अपने वीर प्रपितामह महाराज युधिष्ठिर की भाँति कुरूश्रेष्ठ वीरों के अग्रगण्य जनमेजय भी  उस समय मंत्री और पुरोहितों के साथ धर्मपूर्वक राज्य का पालन करने लगे। राजम़िन्त्रयों ने देखा, राजा जनमेजय शत्रुाओं को दबाने में समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने काशिराज सुवर्णवर्मा के पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमा के लिये याचना की। काशिराज ने धर्म की दृष्टि से भली भाँति जाँच पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमा का विवाह कुरूकुल के श्रेष्ठ वीर जनमेजय के साथ कर दिया। जनमेजय ने भी वपुष्टमा को पाकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया और दूसरी स्त्रियों की ओर कभी अपने मन को नहीं जाने दिया। राजाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजय ने प्रसन्नचित होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित उपवनों में रानी वपुष्टमा के साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्व काल में उर्वशी को पाकर महाराज पुरूरवा ने किया था। वपुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजा के अन्तःपुर में सबसे सुन्दरी रमणी थी। राजा जनमेजय को पतिरूप में प्राप्त करके वह विहार काल में बड़े अनुराग के साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 43 श्लोक 22-36|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-17}}
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
 
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०७:२५, २६ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

चतुश्चत्वारिंशत्तम (44) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुश्चत्वारिंशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! मन्त्रीगण राजा परीक्षित को तक्षक नाग से जकड़ा हुआ देख अत्यन्त दुखी हो गये। उनके मुख पर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने लगे। तक्षक की फुंकार भरी गर्जना सुनकर मन्त्री लोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल कमल की- सी का‍न्ति वाला वह अद्भुत भाग आकाश में सिन्दूर की रेखा सी खींचता हुआ चला जा रहा हैं। नागों में श्रेष्ठ तक्षक को इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोक में डूब गये। ‘वह राजमहल सर्प के विष जनित अग्नि से आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख उन सब मन्त्रियों ने भय से उस स्थान को छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओं की शरण ली तथा राजा परीक्षित वज्र के मारे हुए की भाँति धरती पर गिर पड़े। तक्षक की विष्यग्नि द्वारा राजा परीक्षित के दग्ध हो जाने पर उनकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराज के मन्त्री तथा समस्त पुरवासी मनुष्यों ने मिलकर उन्हीं के पुत्र को, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया। कुरूकुल का वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओं का विनाश करने वाला था। लोग उसे राजा जनमेजय कहते थे। बचपन में ही नृपश्रेष्ठ जनमेजय की बुद्धि श्रेष्ठ पुरूषों के समान थी। अपने वीर पितामह महाराज युधिष्ठिर की भाँति कुरूश्रेष्ठ वीरों के अग्रगण्य जनमेजय भी उस समय मंत्री और पुरोहितों के साथ धर्मपूर्वक राज्य का पालन करने लगे। राजम़िन्त्रयों ने देखा, राजा जनमेजय शत्रुाओं को दबाने में समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने काशिराज सुवर्णवर्मा के पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमा के लिये याचना की। काशिराज ने धर्म की दृष्टि से भली- भाँति जाँच पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमा का विवाह कुरूकुल के श्रेष्ठ वीर जनमेजय के साथ कर दिया। जनमेजय ने भी वपुष्टमा को पाकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया और दूसरी स्त्रियों की ओर कभी अपने मन को नहीं जाने दिया। राजाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजय ने प्रसन्नचित होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित उपवनों में रानी वपुष्टमा के साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्वकाल में उर्वशी को पाकर महाराज पुरूरवा ने किया था। वपुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजा के अन्तःपुर में सबसे सुन्दर रमणी थी। राजा जनमेजय को पतिरूप में प्राप्त करके वह विहारकाल में बड़े अनुराग के साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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