"महाभारत आदि पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१३:३०, २९ जून २०१५ का अवतरण

सप्तम अध्‍याय: आदिपर्व (पौलोमपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1- 29 का हिन्दी अनुवाद


शाप से कुपित हुए अग्निदेव का उद्देश्‍य होना और ब्रह्माजी का उनके शाप को संकुति करके उन्हें प्रसन्न करना

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महर्षि भृगु के शाप देने पर अग्निदेव ने कुपित होकर यह बात कही -- ‘ब्रह्मन् ! तुमने मुझे शाप देने का यह दुस्साहसपूर्ण कर्या क्यों किया है? ‘मैं सदा धर्म के लिये प्रयत्नशील रहता और सत्य एवं पक्षपात शून्य वचन बोलता हूँ; अतः उस राक्षस के पूछने पर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध है? ‘जो साक्षी किसी बात को ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछने पर कुछ का कुछ कह देता-झूठ बोलता है, वह अपने कुल में पहले और पीछे की सात-सात पीढि़यों का नाश करता-उन्हें नरक में ढकेलता है। ‘इसी प्रकार जो किसी कार्य के वास्तविक रहस्य का ज्ञाता है, वह उसके पूछने पर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता मौन रह जाता है तो वह भी उसी पाप से लिप्त होता है; इसमें संशय नहीं है। ‘मैं भी तुम्हें शाप देने की शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य हैं। ब्रह्मन् ! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ’ उसे ध्यान देकर सुनो। ‘मैं योग सिद्धि के बल से अपने आपको अनेक रूपों में प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियों में, नित्य किये जाने वाले अग्निहोत्रों में, अनेक व्यक्तियों द्वारा संचालित सत्रों में, गर्भाधान आदि क्रियाओं में तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों) में सदा निवास करता हूँ। ‘मुझमें वेदोक्त विधि से जिस हविष्य की आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं। ‘जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओं के लिये किये जाते हैं। ‘अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वों पर ये दोनों एक रूप में भी पूजे जाते हैं और पृथक्-पृथक् भी। ‘मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरों का मुख माना जाता हूँ। ‘अमावास्या को पितरों के लिये और पूर्णिमा को देवताओं के लिये मेरे मुख से ही आहुति दी जाती है और उस आहुति के रूप में प्राप्त हुए हविष्य का व देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होने पर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ।‘

उग्रश्रवाजी कहते हैं—महर्षियों ! तदनन्तर अग्निदेव ने कुछ सोच विचार कर द्विजों के अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं में से अपने आपको समेट लिया। फिर तो अग्नि के बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदि से वंचित होकर अत्यन्त दुखी हो गयी । तब महर्षि गण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओं के पास जाकर बोले। ‘पापरहित देवगण! अग्नि के अदृश्य हो जाने से अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का लोप हो गया है। इससे तीनों लोकों के प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये है; अत: इस विषय में जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आप लोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये’। तत्पश्चात ऋषि ओर देवता ब्रह्माजी के पास गये और अग्नि को जो शाप मिला था एवं अग्नि ने सम्पूर्ण क्रियाओं से जो अपने आपको समेट कर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले-। ‘महाभाग ! किसी कारण वश महर्षि भृगु ने अग्नि देव को सर्वभक्षी होने का शाप दे दिया’ किन्तु वे सम्पूर्ण देवताओं के मुख, यज्ञ भाग के अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकों में दी हुई आहुतियों का उपभोग करने वाले होकर भी सर्व भक्षी कैसे हो सकेंगे?’ देवताओं तथा ऋषियों की बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्माजी ने प्राणियों को उत्पन्न करने वाले अविनाशी अगिन को बुलाकर मधुर वाणी में कहा—। ‘हुताशन ! यहाँ समस्त धारण करने वाले हो, सम्पूर्ण क्रियाओं के प्रवर्तक भी तुम्हीं हों। अतः लोकेश्‍वर ! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि क्रियाओं का लोप न हो’। तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ (मोहग्रस्त) कैसे हो गये, तुम संसार में सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियों की गति भी तुम्हीं हो। ‘तुम सारे शरीर से सर्व भक्षी नहीं होओगे। अग्निदेव ! तुम्हारे अपान देश में जो ज्वालाएँ होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी। ‘इसके सिबा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस मुर्दा जलाने वाली जो चिता की आग है) वही सब कुछ भक्षण करेगीं जैसे सूर्य की किरणों से स्पर्श होने पर सब वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओं से दग्ध होने पर सब कुछ शुद्ध हो जायेगा। अग्निदेव ! तुम अपने प्रभाव से ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; विभो ! अपने तेज से ही महर्षि के उस शाप को सत्य कर दिखाओं और अपने मुख में आहुति के रूप में पड़े हुए देवताओं के तथा अपने भाग को भी ग्रहण करो’।

उग्रश्रवाजी कहते हैं—यह सुनकर अग्निदेव वने पितामह ब्रह्माजी से कहा--‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ यों कहकर वे भगवान् ब्रह्माजी के आदेश का पालन करने के लिये चल दिये। इसके बाद देवर्षिगण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वेसे ही चले गये। फिर ऋषि-महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मो का पूर्ववत् पालन करने लगे। देवता लोग स्वर्गलोक में आनन्दित हो गये और इस लोक के समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न हुए। साथ ही शापजनित पाप कट जाने से अग्निदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार पूर्वकाल में भगवान् अग्निदेव को महर्षि भृगु से शाप प्राप्त हुआ था। यही अग्नि शाप सम्बन्धी प्राचीन इतिहास हैं। पुलोमा राक्षस के विनाश और च्यवन मुनि के जन्म का वृत्तान्त भी यही हैं।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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