"महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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पार्थ! अज्ञातवास के दिनों कीचक ने जो द्रौपदी को लात मारी थी, उसे भी आप नहीं याद करना चाहते हैं।शत्रुदमन! द्रोणाचार्य और भीष्म के साथ जो युद्ध हुआ था, वही युद्ध आपके सामने उपस्थित है। इस समय आपको अकेले अपने मन के साथ युद्ध करना होगा। भरत भूषण! अत: उस युद्ध के लिये आपको तैयार हो जाना चाहिये। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए योग के द्वारा मन को वशीभूत करके आप माया से परे पर ब्रह्म को प्राप्त कीजिये। मन के साथ होने वाले इस युद्ध में न तो बाणों का काम है और न सेवकों तथा बन्धु-बान्धवों का ही। इस समय इसमें आपको अकेले ही युद्ध करना है और वह युद्ध सामने उपस्थित है। यदि इस युद्ध में आप मन को न जीत सके तो पता नही आपकी क्या दशा होगी। कुन्तीनन्दन! इस बात को अच्छी तरह समझ लेने पर आप कृतकृत्य हो जायँगे। समस्त प्राणियों का यों ही आवागमन होता रहता है। बुद्धि से ऐसा निश्चय करके आप अपने बाप-दादों के बर्ताव का पालन करते हुए उचित रीति से राज्य का शासन कीजिये।
 
पार्थ! अज्ञातवास के दिनों कीचक ने जो द्रौपदी को लात मारी थी, उसे भी आप नहीं याद करना चाहते हैं।शत्रुदमन! द्रोणाचार्य और भीष्म के साथ जो युद्ध हुआ था, वही युद्ध आपके सामने उपस्थित है। इस समय आपको अकेले अपने मन के साथ युद्ध करना होगा। भरत भूषण! अत: उस युद्ध के लिये आपको तैयार हो जाना चाहिये। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए योग के द्वारा मन को वशीभूत करके आप माया से परे पर ब्रह्म को प्राप्त कीजिये। मन के साथ होने वाले इस युद्ध में न तो बाणों का काम है और न सेवकों तथा बन्धु-बान्धवों का ही। इस समय इसमें आपको अकेले ही युद्ध करना है और वह युद्ध सामने उपस्थित है। यदि इस युद्ध में आप मन को न जीत सके तो पता नही आपकी क्या दशा होगी। कुन्तीनन्दन! इस बात को अच्छी तरह समझ लेने पर आप कृतकृत्य हो जायँगे। समस्त प्राणियों का यों ही आवागमन होता रहता है। बुद्धि से ऐसा निश्चय करके आप अपने बाप-दादों के बर्ताव का पालन करते हुए उचित रीति से राज्य का शासन कीजिये।
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेधपर्व में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवादविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।।१२।।</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेधपर्व में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवादविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
  
 
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०८:२८, २० अगस्त २०१५ का अवतरण

द्वादश (12) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


भगवान श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को मन पर विजय करने के लिये आदेश भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुन्तीनन्दन! दो प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं- एक शरीरिक दूसरा मानसिक। इन दोनों का जनम एक-दूसरे के सहयोग से होता है। दोनों के पारस्परिक सहयोग के बिना इनकी उत्पति सम्भव नहीं है। शरीर में जो रोग उत्पन्न होता है, उसे शरीरिक रोग कहते हैं और मन में जो व्याधि होती है, वह मानसिक रोग कहलाती है। राजन! शीत, उष्ण और वायु- ये तीन शरीर के गुण हैं। यदि शरीर में इन तीनों गुणों की समानता हो तो यह स्वस्थ पुरुष का लक्षण है। उष्ण शीत का निवारण करता और शीत उष्ण का निवारण करता है। सत्त्व, रज और तम- ये तीन अन्त: करण के गुण माने गये हैं।इन गुणों की समानता हो तो मानसिक स्वास्थ्य का लक्षण है। इनमें से किसी एक की वृद्धि होने पर उसके निवारण का उपाय बताया जाता है। हर्ष से शोक बाधित होता है और शोक से हर्ष। कोई दु:ख में पड़कर सुख को याद करना चाहता है और कोई सुखी हाकर दु:ख की याद करना चाहता है। कुन्तीनन्दन! आप न तो दुखी होकर दु:ख की औ न सुखी होकर उत्तम सुख की याद करना चाहते है। यह दु:ख विभ्रम के सिवा और क्या है। अथवा पार्थ! आपका यह स्वभाव ही है, जिससे आप आकृष्ट होते हैं। पाण्डवों के देखते-देखते एक व्स्त्रधारिणी रजस्वला कृष्णा सभा में घसीट लायी गयी। आप उसे उस अवस्था में देखकर भी अब उसकी याद करना नहीं चाहते। आप लोगों को नगर से निकाला गया, मृगछाला पहनाकर वनवास दिया गया अैर बड़े-बड़े घोर जंगलों में रहना पड़ा। इन सब बातों को आप कभी याद करना नहीं चाहते हैं।जटासुर से जो क्लेश उठाना पड़ा, चित्रसेन के साथ जूझना पड़ा और सिन्धुराज जयद्रथ से जो अपमान और कष्ट प्राप्त हुआ, उसका स्मरण करने की इच्छा आपको नहीं होती है। पार्थ! अज्ञातवास के दिनों कीचक ने जो द्रौपदी को लात मारी थी, उसे भी आप नहीं याद करना चाहते हैं।शत्रुदमन! द्रोणाचार्य और भीष्म के साथ जो युद्ध हुआ था, वही युद्ध आपके सामने उपस्थित है। इस समय आपको अकेले अपने मन के साथ युद्ध करना होगा। भरत भूषण! अत: उस युद्ध के लिये आपको तैयार हो जाना चाहिये। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए योग के द्वारा मन को वशीभूत करके आप माया से परे पर ब्रह्म को प्राप्त कीजिये। मन के साथ होने वाले इस युद्ध में न तो बाणों का काम है और न सेवकों तथा बन्धु-बान्धवों का ही। इस समय इसमें आपको अकेले ही युद्ध करना है और वह युद्ध सामने उपस्थित है। यदि इस युद्ध में आप मन को न जीत सके तो पता नही आपकी क्या दशा होगी। कुन्तीनन्दन! इस बात को अच्छी तरह समझ लेने पर आप कृतकृत्य हो जायँगे। समस्त प्राणियों का यों ही आवागमन होता रहता है। बुद्धि से ऐसा निश्चय करके आप अपने बाप-दादों के बर्ताव का पालन करते हुए उचित रीति से राज्य का शासन कीजिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेधपर्व में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवादविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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