"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-22" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ बीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==विंशत्यधिकशततम (120) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ बीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 22 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
 
 
  
 
माधवी का वन में जाकर तप करना तथा ययाति का स्वर्ग में जाकर सुखभोग के पश्चात मोहवश तेजोहीन होना
 
माधवी का वन में जाकर तप करना तथा ययाति का स्वर्ग में जाकर सुखभोग के पश्चात मोहवश तेजोहीन होना
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नारदजी कहते हैं – तदनंतर राजा ययाति पुनः माधवी के स्वयंवर का विचार करके गंगा-यमुना के संगम पर बने हुए अपने आश्रम में जाकर रहने लगे। फिर हाथ में हार लिए बहन माधवी को रथ पर बैठाकर पुरू और यदु – ये दोनों भाई आश्रम पर गए। उस स्वयंवर में नाग, यक्ष, मनुष्य, गंधर्व, पशु, पक्षी, वृक्ष और वनों में निवास करनेवाले प्राणियों का शुभागमन हुआ। प्रयाग का वह वन अनेक जनपदों के राजाओं से व्याप्त हो गया और ब्रहमाजी के समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियों ने उस स्थान को सब और से घेर लिया। उस समय जब माधवी को वहाँ आए हुए वरों का परिचय दिया जाने लगा, तब उस वरवर्णिनी कन्या ने सारे वरों को छोड़  कर तपोवन को ही वररूप में वरण कर लिया। ययातिनंदिनी कुमारी माधवी रथ से उतरकर अपने पिता, भाई, बंधु आदि कुटुम्बियों को नमस्कार करके पुण्य तपोवन में चली गयी और वहाँ तपस्या करने लगी  वह उपवासपूर्वक विविध प्रकार की दीक्षाओं तथा नियमों का पालन करती हुई अपने मन को राग-द्वेषादी दोषों से रहित करके वन में मृगी के समान विचरने लगी। इस क्रम से माधवी वैदूर्यमणि के अंकुरों के समान सुशोभित, कोमल, चिकनी, तिक्त, मधुर एवं हरी-हरी घास चरती, पवित्र नदियों के शुद्ध, शीतल, निर्मल एवं सुस्वादु जल पिटी और मृगों के आवासभूत, व्याघ्ररहित एवं दावानलशून्य निर्जन वनों में मृगों के साथ वनचारिणी मृगी की भांति विचरण करती थी । उसने ब्रह्मचर्यपालनपुरवक महान धर्म का आचरण किया ।। राजा ययाति भी पूर्ववती राजाओं के सदाचार का पालन करते हुए अनेक सहस्त्र वर्षों की आयु पूरी करके मृत्यु को प्राप्त हुए। उनके (पुत्रों में से) दो पुत्र नरश्रेष्ठ पुरू और यदु उस कुल में अभ्युदयशील थे। उन्हीं दोनों से नहुषपुत्र ययाति इस लोक और परलोक में भी प्रतिष्ठित हुए। राजन ! महाराज ययाति महर्षियों के समान पुण्यात्मा एवं तपस्वी थे । वे स्वर्ग में जाकर वहाँ के श्रेष्ठ फल का उपभोग करने लगे। इस प्रकार वहाँ अनेक गुणों से युक्त कई हजार वर्षों का समय व्यतीत हो गया । ययाति का चित्त अपना स्वर्गीय वैभव देखकर स्वयं ही आश्चर्यचकित हो उठा । उनकी बुद्धि पर मोह छा गया और वे महान समृद्धिशाली महत्तम राजर्षियों के अपने समीप बैठे होने पर भी सम्पूर्ण देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों की भी अवहेलना करने लगे। तदनंतर बलसूदन इंद्रदेव को ययाति की इस अवस्था का पता लग गया । वे सम्पूर्ण राजर्षिगण भी उस समय ययाति को धिक्कारने लगे। नहुषपुत्र ययाती को देखकर स्वर्गवासियों में यह विचार खड़ा हो गया – ‘यह कौन है ? किस राजा का पुत्र है ? और कैसे स्वर्ग में आ गया है ? ‘इसे किस कर्म से सिद्धि प्राप्त हुई है ? इसने कहाँ तपस्या की है ? स्वर्ग में किस प्रकार इसे जाना जाये अथवा कौन यहाँ इसको जानता है ?’ इस प्रकार विचार करते हुए स्वर्गवासी ययाति के विषय में एक दूसरे की ओर देखकर प्रश्न करने लगे। सैकड़ो विमानरक्षकों, स्वर्ग के द्वारपालों तथा सिंहासन के रक्षकों से पुछा गया; किन्तु सबने यही उत्तर दिया – ‘हम इन्हे नहीं जानते’। उन सबके ज्ञान पर पर्दा पड़ गया था, अत: वे उन राजा को नहीं पहचान सके । फिर तो दो ही घड़ी में राजा ययाति का तेज नष्ट हो गया।
 
नारदजी कहते हैं – तदनंतर राजा ययाति पुनः माधवी के स्वयंवर का विचार करके गंगा-यमुना के संगम पर बने हुए अपने आश्रम में जाकर रहने लगे। फिर हाथ में हार लिए बहन माधवी को रथ पर बैठाकर पुरू और यदु – ये दोनों भाई आश्रम पर गए। उस स्वयंवर में नाग, यक्ष, मनुष्य, गंधर्व, पशु, पक्षी, वृक्ष और वनों में निवास करनेवाले प्राणियों का शुभागमन हुआ। प्रयाग का वह वन अनेक जनपदों के राजाओं से व्याप्त हो गया और ब्रहमाजी के समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियों ने उस स्थान को सब और से घेर लिया। उस समय जब माधवी को वहाँ आए हुए वरों का परिचय दिया जाने लगा, तब उस वरवर्णिनी कन्या ने सारे वरों को छोड़  कर तपोवन को ही वररूप में वरण कर लिया। ययातिनंदिनी कुमारी माधवी रथ से उतरकर अपने पिता, भाई, बंधु आदि कुटुम्बियों को नमस्कार करके पुण्य तपोवन में चली गयी और वहाँ तपस्या करने लगी  वह उपवासपूर्वक विविध प्रकार की दीक्षाओं तथा नियमों का पालन करती हुई अपने मन को राग-द्वेषादी दोषों से रहित करके वन में मृगी के समान विचरने लगी। इस क्रम से माधवी वैदूर्यमणि के अंकुरों के समान सुशोभित, कोमल, चिकनी, तिक्त, मधुर एवं हरी-हरी घास चरती, पवित्र नदियों के शुद्ध, शीतल, निर्मल एवं सुस्वादु जल पिटी और मृगों के आवासभूत, व्याघ्ररहित एवं दावानलशून्य निर्जन वनों में मृगों के साथ वनचारिणी मृगी की भांति विचरण करती थी । उसने ब्रह्मचर्यपालनपुरवक महान धर्म का आचरण किया ।। राजा ययाति भी पूर्ववती राजाओं के सदाचार का पालन करते हुए अनेक सहस्त्र वर्षों की आयु पूरी करके मृत्यु को प्राप्त हुए। उनके (पुत्रों में से) दो पुत्र नरश्रेष्ठ पुरू और यदु उस कुल में अभ्युदयशील थे। उन्हीं दोनों से नहुषपुत्र ययाति इस लोक और परलोक में भी प्रतिष्ठित हुए। राजन ! महाराज ययाति महर्षियों के समान पुण्यात्मा एवं तपस्वी थे । वे स्वर्ग में जाकर वहाँ के श्रेष्ठ फल का उपभोग करने लगे। इस प्रकार वहाँ अनेक गुणों से युक्त कई हजार वर्षों का समय व्यतीत हो गया । ययाति का चित्त अपना स्वर्गीय वैभव देखकर स्वयं ही आश्चर्यचकित हो उठा । उनकी बुद्धि पर मोह छा गया और वे महान समृद्धिशाली महत्तम राजर्षियों के अपने समीप बैठे होने पर भी सम्पूर्ण देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों की भी अवहेलना करने लगे। तदनंतर बलसूदन इंद्रदेव को ययाति की इस अवस्था का पता लग गया । वे सम्पूर्ण राजर्षिगण भी उस समय ययाति को धिक्कारने लगे। नहुषपुत्र ययाती को देखकर स्वर्गवासियों में यह विचार खड़ा हो गया – ‘यह कौन है ? किस राजा का पुत्र है ? और कैसे स्वर्ग में आ गया है ? ‘इसे किस कर्म से सिद्धि प्राप्त हुई है ? इसने कहाँ तपस्या की है ? स्वर्ग में किस प्रकार इसे जाना जाये अथवा कौन यहाँ इसको जानता है ?’ इस प्रकार विचार करते हुए स्वर्गवासी ययाति के विषय में एक दूसरे की ओर देखकर प्रश्न करने लगे। सैकड़ो विमानरक्षकों, स्वर्ग के द्वारपालों तथा सिंहासन के रक्षकों से पुछा गया; किन्तु सबने यही उत्तर दिया – ‘हम इन्हे नहीं जानते’। उन सबके ज्ञान पर पर्दा पड़ गया था, अत: वे उन राजा को नहीं पहचान सके । फिर तो दो ही घड़ी में राजा ययाति का तेज नष्ट हो गया।
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंड्ग में ययातिमोहविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंड्ग में ययातिमोहविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
 
                                                                                            
 
                                                                                            
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 119 श्लोक 1-24|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 121 श्लोक 1-28}}
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<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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०५:००, २५ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

विंशत्यधिकशततम (120) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

माधवी का वन में जाकर तप करना तथा ययाति का स्वर्ग में जाकर सुखभोग के पश्चात मोहवश तेजोहीन होना

नारदजी कहते हैं – तदनंतर राजा ययाति पुनः माधवी के स्वयंवर का विचार करके गंगा-यमुना के संगम पर बने हुए अपने आश्रम में जाकर रहने लगे। फिर हाथ में हार लिए बहन माधवी को रथ पर बैठाकर पुरू और यदु – ये दोनों भाई आश्रम पर गए। उस स्वयंवर में नाग, यक्ष, मनुष्य, गंधर्व, पशु, पक्षी, वृक्ष और वनों में निवास करनेवाले प्राणियों का शुभागमन हुआ। प्रयाग का वह वन अनेक जनपदों के राजाओं से व्याप्त हो गया और ब्रहमाजी के समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियों ने उस स्थान को सब और से घेर लिया। उस समय जब माधवी को वहाँ आए हुए वरों का परिचय दिया जाने लगा, तब उस वरवर्णिनी कन्या ने सारे वरों को छोड़ कर तपोवन को ही वररूप में वरण कर लिया। ययातिनंदिनी कुमारी माधवी रथ से उतरकर अपने पिता, भाई, बंधु आदि कुटुम्बियों को नमस्कार करके पुण्य तपोवन में चली गयी और वहाँ तपस्या करने लगी वह उपवासपूर्वक विविध प्रकार की दीक्षाओं तथा नियमों का पालन करती हुई अपने मन को राग-द्वेषादी दोषों से रहित करके वन में मृगी के समान विचरने लगी। इस क्रम से माधवी वैदूर्यमणि के अंकुरों के समान सुशोभित, कोमल, चिकनी, तिक्त, मधुर एवं हरी-हरी घास चरती, पवित्र नदियों के शुद्ध, शीतल, निर्मल एवं सुस्वादु जल पिटी और मृगों के आवासभूत, व्याघ्ररहित एवं दावानलशून्य निर्जन वनों में मृगों के साथ वनचारिणी मृगी की भांति विचरण करती थी । उसने ब्रह्मचर्यपालनपुरवक महान धर्म का आचरण किया ।। राजा ययाति भी पूर्ववती राजाओं के सदाचार का पालन करते हुए अनेक सहस्त्र वर्षों की आयु पूरी करके मृत्यु को प्राप्त हुए। उनके (पुत्रों में से) दो पुत्र नरश्रेष्ठ पुरू और यदु उस कुल में अभ्युदयशील थे। उन्हीं दोनों से नहुषपुत्र ययाति इस लोक और परलोक में भी प्रतिष्ठित हुए। राजन ! महाराज ययाति महर्षियों के समान पुण्यात्मा एवं तपस्वी थे । वे स्वर्ग में जाकर वहाँ के श्रेष्ठ फल का उपभोग करने लगे। इस प्रकार वहाँ अनेक गुणों से युक्त कई हजार वर्षों का समय व्यतीत हो गया । ययाति का चित्त अपना स्वर्गीय वैभव देखकर स्वयं ही आश्चर्यचकित हो उठा । उनकी बुद्धि पर मोह छा गया और वे महान समृद्धिशाली महत्तम राजर्षियों के अपने समीप बैठे होने पर भी सम्पूर्ण देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों की भी अवहेलना करने लगे। तदनंतर बलसूदन इंद्रदेव को ययाति की इस अवस्था का पता लग गया । वे सम्पूर्ण राजर्षिगण भी उस समय ययाति को धिक्कारने लगे। नहुषपुत्र ययाती को देखकर स्वर्गवासियों में यह विचार खड़ा हो गया – ‘यह कौन है ? किस राजा का पुत्र है ? और कैसे स्वर्ग में आ गया है ? ‘इसे किस कर्म से सिद्धि प्राप्त हुई है ? इसने कहाँ तपस्या की है ? स्वर्ग में किस प्रकार इसे जाना जाये अथवा कौन यहाँ इसको जानता है ?’ इस प्रकार विचार करते हुए स्वर्गवासी ययाति के विषय में एक दूसरे की ओर देखकर प्रश्न करने लगे। सैकड़ो विमानरक्षकों, स्वर्ग के द्वारपालों तथा सिंहासन के रक्षकों से पुछा गया; किन्तु सबने यही उत्तर दिया – ‘हम इन्हे नहीं जानते’। उन सबके ज्ञान पर पर्दा पड़ गया था, अत: वे उन राजा को नहीं पहचान सके । फिर तो दो ही घड़ी में राजा ययाति का तेज नष्ट हो गया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंड्ग में ययातिमोहविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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