"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 35-51" के अवतरणों में अंतर
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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद</div> |
‘प्रथक् प्रथक् स्थित हुए धर्म, अर्थ और काम में से किसी एक को चुनना हो तो धीर पुरुष धर्म का ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणी का मनुष्य कलह के कारणभूत अर्थ को ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणी का अज्ञानी पुरुष काम की ही पाना चाहता है। ‘जो अधम मनुष्य इंद्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर्म को छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायों से अर्थ और काम की लिप्सा में पड़कर नष्ट हो जाता है। ‘जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए; क्यूंकी अर्थ और काम कभी धर्म से प्रथक् नहीं होता है। ‘प्रजानाथ ! विद्वान पुरुष धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय बताते हैं । अत: जो धर्म के द्वारा अर्थ और काम को पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नति की दिशा में आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकों में लगी हुई आग बढ़ जाती है। ‘तात भरतश्रेष्ठ ! तुम समस्त राजाओं में विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्य को अनुचित उपाय से पाना चाहते हो। ‘राजन् ! जो उत्तम व्यवहार करनेवाले सत्पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भांति उस दुर्व्यवहार से अपने-आपको ही काटता है। ‘मनुष्य जिसका पराभाव न करना चाहे, उसकी बुद्धि का उच्छेद न करे । जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुष का मन कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत होता है । भरतनन्दन ! मनस्वी पुरुष को चाहिए की वह तीनों लोकों में किसी प्राकृत (निम्न श्रेणी के) पुरुष का भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पांडवों के अपमान की तो बात ही क्या है ? ईर्ष्याके वश में रहनेवाला मनुष्य किसी बात को ठीक से समझ नहीं पात। ‘भरतनन्दन ! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत किए हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न से हो जाते हैं । तात ! किसी भी दुष्ट मनुष्य का साथ करने की अपेक्षा पांडवों के साथ मेल मिलाप रखना तुम्हारे लिए विशेष कल्याणकारी है। ‘पांडवों से प्रेम रखने पर तुम सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ ! तुम पांडवों द्वारा स्थापित राज्य का उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हीं को पीछे करके अर्थात् उनकी अवहेलना करके दूसरों से अपनी रक्षा की आशा रखते हो। | ‘प्रथक् प्रथक् स्थित हुए धर्म, अर्थ और काम में से किसी एक को चुनना हो तो धीर पुरुष धर्म का ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणी का मनुष्य कलह के कारणभूत अर्थ को ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणी का अज्ञानी पुरुष काम की ही पाना चाहता है। ‘जो अधम मनुष्य इंद्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर्म को छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायों से अर्थ और काम की लिप्सा में पड़कर नष्ट हो जाता है। ‘जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए; क्यूंकी अर्थ और काम कभी धर्म से प्रथक् नहीं होता है। ‘प्रजानाथ ! विद्वान पुरुष धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय बताते हैं । अत: जो धर्म के द्वारा अर्थ और काम को पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नति की दिशा में आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकों में लगी हुई आग बढ़ जाती है। ‘तात भरतश्रेष्ठ ! तुम समस्त राजाओं में विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्य को अनुचित उपाय से पाना चाहते हो। ‘राजन् ! जो उत्तम व्यवहार करनेवाले सत्पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भांति उस दुर्व्यवहार से अपने-आपको ही काटता है। ‘मनुष्य जिसका पराभाव न करना चाहे, उसकी बुद्धि का उच्छेद न करे । जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुष का मन कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत होता है । भरतनन्दन ! मनस्वी पुरुष को चाहिए की वह तीनों लोकों में किसी प्राकृत (निम्न श्रेणी के) पुरुष का भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पांडवों के अपमान की तो बात ही क्या है ? ईर्ष्याके वश में रहनेवाला मनुष्य किसी बात को ठीक से समझ नहीं पात। ‘भरतनन्दन ! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत किए हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न से हो जाते हैं । तात ! किसी भी दुष्ट मनुष्य का साथ करने की अपेक्षा पांडवों के साथ मेल मिलाप रखना तुम्हारे लिए विशेष कल्याणकारी है। ‘पांडवों से प्रेम रखने पर तुम सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ ! तुम पांडवों द्वारा स्थापित राज्य का उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हीं को पीछे करके अर्थात् उनकी अवहेलना करके दूसरों से अपनी रक्षा की आशा रखते हो। | ||
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कराने में समर्थ नहीं हैं और पांडवों के सामने पराक्रम प्रकट करने में भी ये असमर्थ ही हैं। ‘तुम्हारे सहित ये सब राजा लोग भी युद्ध में कुपित हुए भीमसेन के मुख की ओर आँख उठाकर देख ही नहीं सकते। ‘तात ! तुम्हारे निकट जो यह समस्त राजाओं की सेना एकत्र हुई है, यह तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ- ये सभी मिलकर भी अर्जुन का सामना करने में समर्थ नहीं हैं। ‘सम्पूर्ण देवता और असुर भी युद्ध में अर्जुन को जीत नहीं सकते । वे समस्त मनुष्यों और गन्धर्वों के द्वारा भी अजेय हैं, अत: तुम युद्ध का विचार मत करो। ‘राजाओं की इन सम्पूर्ण सेनाओं में किसी ऐसे पुरुष पर दृष्टिपात तो करो, जो युद्ध में अर्जुन का सामना करके कुशलपूर्वक अपने घर लौट सके ? | कराने में समर्थ नहीं हैं और पांडवों के सामने पराक्रम प्रकट करने में भी ये असमर्थ ही हैं। ‘तुम्हारे सहित ये सब राजा लोग भी युद्ध में कुपित हुए भीमसेन के मुख की ओर आँख उठाकर देख ही नहीं सकते। ‘तात ! तुम्हारे निकट जो यह समस्त राजाओं की सेना एकत्र हुई है, यह तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ- ये सभी मिलकर भी अर्जुन का सामना करने में समर्थ नहीं हैं। ‘सम्पूर्ण देवता और असुर भी युद्ध में अर्जुन को जीत नहीं सकते । वे समस्त मनुष्यों और गन्धर्वों के द्वारा भी अजेय हैं, अत: तुम युद्ध का विचार मत करो। ‘राजाओं की इन सम्पूर्ण सेनाओं में किसी ऐसे पुरुष पर दृष्टिपात तो करो, जो युद्ध में अर्जुन का सामना करके कुशलपूर्वक अपने घर लौट सके ? | ||
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१५:०६, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
चतुर्विंशत्यधिकशततम (124) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
‘प्रथक् प्रथक् स्थित हुए धर्म, अर्थ और काम में से किसी एक को चुनना हो तो धीर पुरुष धर्म का ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणी का मनुष्य कलह के कारणभूत अर्थ को ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणी का अज्ञानी पुरुष काम की ही पाना चाहता है। ‘जो अधम मनुष्य इंद्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर्म को छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायों से अर्थ और काम की लिप्सा में पड़कर नष्ट हो जाता है। ‘जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए; क्यूंकी अर्थ और काम कभी धर्म से प्रथक् नहीं होता है। ‘प्रजानाथ ! विद्वान पुरुष धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय बताते हैं । अत: जो धर्म के द्वारा अर्थ और काम को पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नति की दिशा में आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकों में लगी हुई आग बढ़ जाती है। ‘तात भरतश्रेष्ठ ! तुम समस्त राजाओं में विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्य को अनुचित उपाय से पाना चाहते हो। ‘राजन् ! जो उत्तम व्यवहार करनेवाले सत्पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भांति उस दुर्व्यवहार से अपने-आपको ही काटता है। ‘मनुष्य जिसका पराभाव न करना चाहे, उसकी बुद्धि का उच्छेद न करे । जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुष का मन कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत होता है । भरतनन्दन ! मनस्वी पुरुष को चाहिए की वह तीनों लोकों में किसी प्राकृत (निम्न श्रेणी के) पुरुष का भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पांडवों के अपमान की तो बात ही क्या है ? ईर्ष्याके वश में रहनेवाला मनुष्य किसी बात को ठीक से समझ नहीं पात। ‘भरतनन्दन ! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत किए हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न से हो जाते हैं । तात ! किसी भी दुष्ट मनुष्य का साथ करने की अपेक्षा पांडवों के साथ मेल मिलाप रखना तुम्हारे लिए विशेष कल्याणकारी है। ‘पांडवों से प्रेम रखने पर तुम सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ ! तुम पांडवों द्वारा स्थापित राज्य का उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हीं को पीछे करके अर्थात् उनकी अवहेलना करके दूसरों से अपनी रक्षा की आशा रखते हो।
‘भारत ! तुम दु:शासन, दुर्विषह, कर्ण और शकुनि- इन सब पर अपने ऐश्वर्य का भार रखकर उन्नति की इच्छा रखते हो ? ‘भरतनंदन ! ये तुम्हें ज्ञान, धर्म और अर्थ की प्राप्ति कराने में समर्थ नहीं हैं और पांडवों के सामने पराक्रम प्रकट करने में भी ये असमर्थ ही हैं। ‘तुम्हारे सहित ये सब राजा लोग भी युद्ध में कुपित हुए भीमसेन के मुख की ओर आँख उठाकर देख ही नहीं सकते। ‘तात ! तुम्हारे निकट जो यह समस्त राजाओं की सेना एकत्र हुई है, यह तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ- ये सभी मिलकर भी अर्जुन का सामना करने में समर्थ नहीं हैं। ‘सम्पूर्ण देवता और असुर भी युद्ध में अर्जुन को जीत नहीं सकते । वे समस्त मनुष्यों और गन्धर्वों के द्वारा भी अजेय हैं, अत: तुम युद्ध का विचार मत करो। ‘राजाओं की इन सम्पूर्ण सेनाओं में किसी ऐसे पुरुष पर दृष्टिपात तो करो, जो युद्ध में अर्जुन का सामना करके कुशलपूर्वक अपने घर लौट सके ?
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