"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 128 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का दुर्योधन को फटकारना और उसे कुपित होकर सभा से जाते देख उसे कैद करने की सलाह

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमजेय ! दुर्योधन की बातें सुनकर श्रीक़ृष्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए । वे कुछ विचार करके कौरव-सभा में दुर्योधन से पुन: इस प्रकार बोले -। ‘दुर्योधन ! तुझे रणभूमि में वीर शय्या प्राप्त होगी । तेरी यह इच्छा पूर्ण होगी । तू मंत्रियों सहित धैर्यपूर्वक रह । अब बहुत बड़ा नरसंहार होने वाला । ‘मूढ़ ! तू जो ऐसा मानता है कि पाँडवों के प्रति मेरा कोई अपराध ही नहीं है तो इसके संबंध में मैं सब बातें बताता हूँ । राजाओं ! आप लोग भी ध्यान देकर सुने। ‘भारत ! महात्मा पाँडवों कि बढ़ती हुई समृद्धि से संतप्त होकर तूने ही शकुनी के साथ यह खोटा विचार किया था कि पाँडवों के साथ जुआ खेला जाए। ‘तात ! अन्यथा सदा सरलतापूर्ण बर्ताव करनेवाले और साधु-सम्मानित तेरे श्रेष्ठ बंधु पांडव यहाँ तुम-जैसे कपटी के साथ अन्याययुक्त द्यूत के लिए कैसे उपस्थित हो सकते थे ? ‘महामते ! जुए का खेल तो सत्पुरुषों कि बुद्धि भी नाश करनेवाला है और यदि दुष्ट पुरुष उसमे प्रवृत हों तो उनमें बड़ा भारी कलह होता है तथा उन सब पर बहुत-से संकट छा जाते हैं। ‘तूने ही सदाचार की ओर लक्ष्य न रखकर पापासक्त पुरुषों के सहित भयंकर विपत्ति के कारण भूत ये द्यूतक्रीड़ा आदि कार्य किए हैं। ‘तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा अधम होगा, जो अपने बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करेगा । जैसा कि तूने द्रौपदी के प्रति स्पष्ट रूप से न कहने योग्य बातें कहकर दुर्व्यवहार किया है। ‘द्रौपदी उत्तम कुल में उत्पन्न, शील और सदाचार से सम्पन्न तथा पाँडवों के लिए प्राणों से भी अधिक आदरणीय और उन सबकी महारानी है । तथापि तूने उसके प्रति अत्याचार किया। ‘जिस समय शत्रुओं को संताप देनेवाले कुंतीकुमार पांडव वन को जा रहे थे, उस समय दु:शासन ने कौरव सभा में उनके प्रति जैसी कठोर बातें कही थी, उन्हें सभी कौरव जानते हैं। ‘सदा धर्म में ही तत्पर रहनेवाले लोभरहित सदाचारी अपने बंधुओं के प्रति कौन साधु पुरुष ऐसा अयोग्य बर्ताव करेगा ? ‘दुर्योधन ! तूने कर्ण और दु:शासन के साथ अनेक बार निर्दयी तथा अनार्य पुरुषों की सी बातें कही हैं।‘तूने वारणावत नगर में बाल्यावस्था में पाँडवों को उनकी माता सहित जला डालने का महान् प्रयत्न किया था, परंतु तेरा वह उद्देश्य सफल न हो सका। ‘उन दिनों पांडव अपनी माता के साथ सुदीर्घकाल तक एकचक्रा नागरी में किसी ब्राह्मण के घर में छिपे रहे। तूने (भीमसेन को) विष देकर, सर्प से कटाकर और बंधे हुए हाथ-पैरों सहित जल में डुबाकर इन सभी उपायों द्वारा पांडवों को नष्ट कर देने का प्रयत्न किया है, परंतु तेरा यह प्रयास भी सफल न हो सका। ऐसे ही विचार रखकर तू पांडवों के प्रति सदा कपटपूर्ण बर्ताव करता आया है, फिर कैसे मान लिया जाय कि महान पांडवों के प्रति तेरा कोई अपराध ही नहीं है। पापात्मन ! तू याचना करने पर इन पांडवों को जो पैतृक राज्य-भाग नहीं देना चाहता है, वही तुझे उस समय देना पड़ेगा, जबकि रणभूमि में धराशायी होकर तू ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाएगा। क्रूरकर्मी मनुष्यों कि भाँति तू पांडवों के प्रति बहुत से अयोग्य बर्ताव करके मिथ्याचारी और अनार्य होकर भी आज अपने उन अपराधों के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करता है। माता-पिता, भीष्म, द्रोण और विदुर सबने तुझसे बार-बार कहा है कि तू संधि कर ले– शांत हो जा, परंतु भूपाल ! तू शांत होने का नाम ही नहीं लेता।राजन् ! शांति स्थापित होने पर तेरा और युधिष्ठिर का दोनों का ही महान लाभ है, परंतु तुझे यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता । इसे बुद्धि की मंदता के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? राजन् ! तू हितैषी सुहृदों कि आज्ञा का उल्लंघन करके कल्याण का भागी नहीं हो सकेगा । भूपाल ! तू सदा अधर्म और अपयश का कार्य करता है।

वैशंपायनजी कहते हैं – जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण ये सब बातें कह रहे थे, उसी समय दु:शासन ने बीच में ही अमर्षशील दुर्योधन से कौरव सभा में ही कहा- राजन् ! यदि आप अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो जान पड़ता है, कौरव लोग आप को बाँधकर कुंतीपुत्र युधिष्ठिर के हाथ में सौंप देंगे। नरश्रेष्ठ ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और पिताजी– ये कर्ण को, आपको और मुझे– इन तीनों को ही पांडवों के अधिकार में दे देंगे। भाई की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन अत्यंत कुपित हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी साँसे खींचता हुआ वहाँ से उठकर चल दिया । वह दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, अशिष्ट पुरुषों की भाँति मर्यादाशून्य, अभिमानी तथा माननीय पुरुषों का अपमान करने वाला था । वह विदुर, धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण- इन सबका अनादर करके वहाँ से चल पड़ा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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