"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 128 श्लोक 18-36" के अवतरणों में अंतर

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क्रूरकर्मी मनुष्यों कि भाँति तू पांडवों के प्रति बहुत से अयोग्य बर्ताव करके मिथ्याचारी और अनार्य होकर भी आज अपने उन अपराधों के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करता है। माता-पिता, भीष्म, द्रोण और विदुर सबने तुझसे बार-बार कहा है कि तू संधि कर ले– शांत हो जा, परंतु भूपाल ! तू शांत होने का नाम ही नहीं लेता।राजन् ! शांति स्थापित होने पर तेरा और युधिष्ठिर का दोनों का ही महान लाभ है, परंतु तुझे यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता । इसे बुद्धि की मंदता के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? राजन् ! तू हितैषी सुहृदों कि आज्ञा का उल्लंघन करके कल्याण का भागी नहीं हो सकेगा । भूपाल ! तू सदा अधर्म और अपयश का कार्य करता है।  
 
क्रूरकर्मी मनुष्यों कि भाँति तू पांडवों के प्रति बहुत से अयोग्य बर्ताव करके मिथ्याचारी और अनार्य होकर भी आज अपने उन अपराधों के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करता है। माता-पिता, भीष्म, द्रोण और विदुर सबने तुझसे बार-बार कहा है कि तू संधि कर ले– शांत हो जा, परंतु भूपाल ! तू शांत होने का नाम ही नहीं लेता।राजन् ! शांति स्थापित होने पर तेरा और युधिष्ठिर का दोनों का ही महान लाभ है, परंतु तुझे यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता । इसे बुद्धि की मंदता के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? राजन् ! तू हितैषी सुहृदों कि आज्ञा का उल्लंघन करके कल्याण का भागी नहीं हो सकेगा । भूपाल ! तू सदा अधर्म और अपयश का कार्य करता है।  
  
वैशंपायनजी कहते हैं – जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण ये सब बातें कह रहे थे, उसी समय दु:शासन ने बीच में ही अमर्षशील दुर्योधन से कौरव सभा में ही कहा- राजन् ! यदि आप अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो जान पड़ता है, कौरव लोग आप को बाँधकर कुंतीपुत्र युधिष्ठिर के हाथ में सौंप देंगे। नरश्रेष्ठ ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और पिताजी– ये कर्ण को, आपको और मुझे– इन तीनों को ही पांडवों के अधिकार में दे देंगे। भाई की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन अत्यंत कुपित हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी साँसे खींचता हुआ वहाँ से उठकर चल दिया । वह दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, अशिष्ट पुरुषों की भाँति मर्यादाशून्य, अभिमानी तथा माननीय पुरुषों का अपमान करने वाला था । वह विदुर, धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण- इन सबका अनादर करके वहाँ से चल पड़ा।
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वैशंपायनजी कहते हैं – जिस समय भगवान  श्रीकृष्ण ये सब बातें कह रहे थे, उसी समय दु:शासन ने बीच में ही अमर्षशील दुर्योधन से कौरव सभा में ही कहा- राजन् ! यदि आप अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो जान पड़ता है, कौरव लोग आप को बाँधकर कुंतीपुत्र युधिष्ठिर के हाथ में सौंप देंगे। नरश्रेष्ठ ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और पिताजी– ये कर्ण को, आपको और मुझे– इन तीनों को ही पांडवों के अधिकार में दे देंगे। भाई की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन अत्यंत कुपित हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी साँसे खींचता हुआ वहाँ से उठकर चल दिया । वह दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, अशिष्ट पुरुषों की भाँति मर्यादाशून्य, अभिमानी तथा माननीय पुरुषों का अपमान करने वाला था । वह विदुर, धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण- इन सबका अनादर करके वहाँ से चल पड़ा।
  
 
नरश्रेष्ठ दुर्योधन को वहाँ से जाते देख उसके भाई, मंत्री तथा सहयोगी नरेश सबके सब उठकर उसके साथ चल दिये। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए दुर्योधन को भाइयों सहित सभा से उठकर जाते देख शांतनुनन्दन भीष्म ने कहा-। जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके क्रोध का ही अनुसरण करता है, उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख उसके शत्रुगण हंसी उड़ाते हैं। राजा धृतराष्ट्र का यह दुरात्मा पुत्र दुर्योधन लक्ष्य सिद्धि के उपाय के विपरीत कार्य करनेवाला तथा क्रोध और लोभ के वशीभूत रहने वाला है । इसे राजा होने का मिथ्या अभिमान है। जनार्दन ! मैं समझता हूँ कि ये समस्त क्षत्रियगण काल से पके हुए फल कि भाँति मौत के मुँह में जाने वाले हैं । तभी तो ये सबके सब मोहवश अपने मंत्रियों के साथ दुर्योधन का अनुसरण करते हैं।भीष्म का यह कथन सुनकर महापराक्रमी दशार्हकुल नन्दन कमलनयन श्रीकृष्ण ने भीष्म और द्रोण आदि सब लोगों से इस प्रकार कहा-। कुरुकुल के सभी बड़े-बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बिठाकर अब इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले निष्पाप कौरवो ! इस विषय में मैंने समयोचित कर्तव्य का निश्चय कर लिया है, जिसका पालन करने पर सबका भला होगा । वह सब मैं बता रहा हूँ, आप लोग सुनें। ‘मैं तो हित कि बात बताने जा रहा हूँ । उसका आप लोगों को भी प्रत्यक्ष अनुभव है । भरतवंशियों ! यदि वह आपके अनुकूल होने के कारण ठीक जान पड़े तो आप उसे काम में ला सकते हैं।  
 
नरश्रेष्ठ दुर्योधन को वहाँ से जाते देख उसके भाई, मंत्री तथा सहयोगी नरेश सबके सब उठकर उसके साथ चल दिये। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए दुर्योधन को भाइयों सहित सभा से उठकर जाते देख शांतनुनन्दन भीष्म ने कहा-। जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके क्रोध का ही अनुसरण करता है, उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख उसके शत्रुगण हंसी उड़ाते हैं। राजा धृतराष्ट्र का यह दुरात्मा पुत्र दुर्योधन लक्ष्य सिद्धि के उपाय के विपरीत कार्य करनेवाला तथा क्रोध और लोभ के वशीभूत रहने वाला है । इसे राजा होने का मिथ्या अभिमान है। जनार्दन ! मैं समझता हूँ कि ये समस्त क्षत्रियगण काल से पके हुए फल कि भाँति मौत के मुँह में जाने वाले हैं । तभी तो ये सबके सब मोहवश अपने मंत्रियों के साथ दुर्योधन का अनुसरण करते हैं।भीष्म का यह कथन सुनकर महापराक्रमी दशार्हकुल नन्दन कमलनयन श्रीकृष्ण ने भीष्म और द्रोण आदि सब लोगों से इस प्रकार कहा-। कुरुकुल के सभी बड़े-बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बिठाकर अब इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले निष्पाप कौरवो ! इस विषय में मैंने समयोचित कर्तव्य का निश्चय कर लिया है, जिसका पालन करने पर सबका भला होगा । वह सब मैं बता रहा हूँ, आप लोग सुनें। ‘मैं तो हित कि बात बताने जा रहा हूँ । उसका आप लोगों को भी प्रत्यक्ष अनुभव है । भरतवंशियों ! यदि वह आपके अनुकूल होने के कारण ठीक जान पड़े तो आप उसे काम में ला सकते हैं।  

१२:११, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टाविंशत्यधिकशततम (128) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद

क्रूरकर्मी मनुष्यों कि भाँति तू पांडवों के प्रति बहुत से अयोग्य बर्ताव करके मिथ्याचारी और अनार्य होकर भी आज अपने उन अपराधों के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करता है। माता-पिता, भीष्म, द्रोण और विदुर सबने तुझसे बार-बार कहा है कि तू संधि कर ले– शांत हो जा, परंतु भूपाल ! तू शांत होने का नाम ही नहीं लेता।राजन् ! शांति स्थापित होने पर तेरा और युधिष्ठिर का दोनों का ही महान लाभ है, परंतु तुझे यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता । इसे बुद्धि की मंदता के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? राजन् ! तू हितैषी सुहृदों कि आज्ञा का उल्लंघन करके कल्याण का भागी नहीं हो सकेगा । भूपाल ! तू सदा अधर्म और अपयश का कार्य करता है।

वैशंपायनजी कहते हैं – जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ये सब बातें कह रहे थे, उसी समय दु:शासन ने बीच में ही अमर्षशील दुर्योधन से कौरव सभा में ही कहा- राजन् ! यदि आप अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो जान पड़ता है, कौरव लोग आप को बाँधकर कुंतीपुत्र युधिष्ठिर के हाथ में सौंप देंगे। नरश्रेष्ठ ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और पिताजी– ये कर्ण को, आपको और मुझे– इन तीनों को ही पांडवों के अधिकार में दे देंगे। भाई की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन अत्यंत कुपित हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी साँसे खींचता हुआ वहाँ से उठकर चल दिया । वह दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, अशिष्ट पुरुषों की भाँति मर्यादाशून्य, अभिमानी तथा माननीय पुरुषों का अपमान करने वाला था । वह विदुर, धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण- इन सबका अनादर करके वहाँ से चल पड़ा।

नरश्रेष्ठ दुर्योधन को वहाँ से जाते देख उसके भाई, मंत्री तथा सहयोगी नरेश सबके सब उठकर उसके साथ चल दिये। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए दुर्योधन को भाइयों सहित सभा से उठकर जाते देख शांतनुनन्दन भीष्म ने कहा-। जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके क्रोध का ही अनुसरण करता है, उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख उसके शत्रुगण हंसी उड़ाते हैं। राजा धृतराष्ट्र का यह दुरात्मा पुत्र दुर्योधन लक्ष्य सिद्धि के उपाय के विपरीत कार्य करनेवाला तथा क्रोध और लोभ के वशीभूत रहने वाला है । इसे राजा होने का मिथ्या अभिमान है। जनार्दन ! मैं समझता हूँ कि ये समस्त क्षत्रियगण काल से पके हुए फल कि भाँति मौत के मुँह में जाने वाले हैं । तभी तो ये सबके सब मोहवश अपने मंत्रियों के साथ दुर्योधन का अनुसरण करते हैं।भीष्म का यह कथन सुनकर महापराक्रमी दशार्हकुल नन्दन कमलनयन श्रीकृष्ण ने भीष्म और द्रोण आदि सब लोगों से इस प्रकार कहा-। कुरुकुल के सभी बड़े-बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बिठाकर अब इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले निष्पाप कौरवो ! इस विषय में मैंने समयोचित कर्तव्य का निश्चय कर लिया है, जिसका पालन करने पर सबका भला होगा । वह सब मैं बता रहा हूँ, आप लोग सुनें। ‘मैं तो हित कि बात बताने जा रहा हूँ । उसका आप लोगों को भी प्रत्यक्ष अनुभव है । भरतवंशियों ! यदि वह आपके अनुकूल होने के कारण ठीक जान पड़े तो आप उसे काम में ला सकते हैं।


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