"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 139 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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==एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
==एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योग पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद </div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
 
भीष्म से वार्तालाप करके द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना  
 
भीष्म से वार्तालाप करके द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना  

०६:२७, १६ जुलाई २०१५ का अवतरण

एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म से वार्तालाप करके द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमजेय ! भीष्म और द्रोणाचार्य के इस प्रकार कहने पर दुर्योधन का मन उदास हो गया । उसने टेढ़ी आँखों से देखकर और भौहों को बीच से सिकोडकर मुँह नीचा कर लिया । वह उन दोनों से कुछ बोला नहीं उसे उदास देख नरश्रेष्ठ भीष्म और द्रोण एक दूसरे की ओर देखते हुए उसके निकट ही पुन: इस प्रकार बात करने लगे। भीष्म बोले- अहो ! जो गुरुजनों की सेवा के लिए उत्सुक, किसी के भी दोष न देखने वाले, ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी है, उन्हीं युद्धीष्ठिर से हमें युद्ध करना पड़ेगा, इससे बढ़कर महान दु:ख की बात और क्या होगी? द्रोणाचार्य ने कहा- राजन ! मेरा अपने पुत्र अश्वथामा के प्रति जैसा आदर है, उससे भी अधिक अर्जुन के प्रति है । कपिध्वज अर्जुन में मेरे प्रति बहुत विनयभाव है। मेरे पुत्र से भी बढ़कर प्रियतम उन्हीं अर्जुन से मुझे क्षत्रिय धर्म का आश्रय लेकर युद्ध करना पड़ेगा । क्षात्रवृति को धिक्कार है ! मेरी ही कृपा से अर्जुन अन्य धनुर्धरों से श्रेष्ठ हो गए हैं । इस समय जगत में उनके समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है। जैसे यज्ञ में आया हुआ मूर्ख ब्राह्मण प्रतिष्ठा नहीं पाता, उसी प्रकार जो मित्रद्रोही, दुर्भावनायुक्त, नास्तिक, कुटिल और शठ है, वह सत्पुरुषों में कभी सम्मान नहीं पाता है। पापात्मा मनुष्य को पापों से रोका जाये तो भी वह पाप ही करना चाहता है और जिसका हृदय शुभ संकलों से युक्त है, वह पुण्यात्मा पुरुष किसी पापी के द्वारा पाप के लिए प्रेरित होने पर भी शुभ कर्म करने की ही इच्छा रखता है। भरतश्रेष्ठ ! तुमने पांडवों के साथ सदा मिथ्या बर्ताव– छल कपट ही किया है तो भी ये सदा तुम्हारा प्रिय करने में ही लगे रहे हैं । अत: तुम्हारे ये ईर्ष्या-द्वेष आदि दोष तुम्हारा ही अहित करने वाले होंगे। कुरुकुल के वृद्ध पुरुष भीष्मजी ने, मैंने, विदूरजी ने तथा भगवान श्रीकृष्ण ने भी तुमसे तुम्हारे कल्याण की ही बात बताई है, तथापि तुम उसे मान नहीं रहे हो। जैसे कोई अविवेकी मनुष्य वर्षाकाल में बड़े हुए ग्राह और मकर आदि जलजन्तुओं से युक्त गंगाजी के वेग को दोनों बाहुओं से तैरना चाहता हो, उसी प्रकार तुम मेरे पास बल है, ऐसा समझकर पांडव-सेना को सहसा लांघ जाने की इच्छा रखते हो। जैसे कोई दूसरे का छोड़ा हुआ वस्त्र पहन ले और उसे अपना मानने लगे, उसी प्रकार तुम त्यागी हुई माला की भांति युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी को पाकर अब उसे लोभवश अपनी समझते हो। अपने अस्त्र-शस्त्रधारी भाइयों से घिरे हुए द्रौपदी सहित पांडुनंदन युधिष्ठिर वन में रहे तो भी उन्हें राज्य सिंहासन पर बैठा हुआ कौन नरेश युद्ध में जीत सकेगा? समस्त राजा जिनकी आज्ञा में किंकर की भाँति खड़े रहते हैं, उन्हीं राजराज कुबेर से मिलकर धर्मराज युधिष्ठिर उनके साथ विराजमान हुए थे। कुबेर के भवन में जाकर उनसे भाँति–भाँति के रत्न लेकर अब पांडव तुम्हारे समृद्धिशाली राष्ट्र पर आक्रमण करके अपना राज्य वापस लेना चाहते हैं। हम दोनों ने तो दान, यज्ञ और स्वाध्याय कर लिए । धन से ब्राह्मणों को तृप्त कर लिया । अब हमारी आयु समाप्त हो चुकी है, अत: हमें तो तुम कृतकृत्य ही समझो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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