"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-21" के अवतरणों में अंतर

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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:३०, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण

तेरहवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत उद्योगपर्व: तेरहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद

नहुष का इन्द्राणी को कुछ काल की अवधि देना इन्द्र का ब्रह्महत्या से उद्धार तथा शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना

शल्य कहते है--उस समय देवराज नहुष ने इन्द्राणी को देखकर कहा--शुचिस्मिते ! मै तीनो लोको का स्वामी इन्द्र हूँ । उत्‍तम रूप-रंगवाली सुन्दरी ! तुम मुझे अपना पति बना लो। नहुष के ऐसा कहने पर पतिव्रता देवी शची भय से उद्विग्न हो तेज हवा में हिलने वाले केले के वृक्ष की भाँति काँपने लगीं । उन्होंने मस्तक झुकाकर ब्राह्मजी को प्रणाम किया और भयंकर दृष्टिवाले देवराज नहुष से हाथ जोड़कर कहा--देवेश्वर ! मै आप से कुछ समय की अवधि लेना चाहती। हूँअभी यह पता नहीं है कि देवेन्द्र किस अवस्था में पडे है? अथवा कहाँ चले गये है? प्रभो इसका ठीक-ठीक पता लगाने पर यदि कोई बात मालूम नहीं हो सकी, तो मै आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगी । यह मै आप से सत्य कहती हूँ ।इन्द्राणी के ऐसा कहने पर नहुष बड़ी प्रसन्नता हुई ॥।

नहुष बोले--सुन्दरी ! तुम मुझ से यहाँ जैसा कह रही हो ऐसा ही! इसके अनुसार तुम्हे मेरे पास आ जाना चाहिये ; इस सत्य को सदा याद रखना ॥७॥नहुष से विदा लेकर शुभलक्षणा यशस्विनी शची उस स्थान से निकली और पुनः बृहस्पति जी के भवन में चली गयी। वृष श्रेष्ठ ! इन्द्राणी की बात सुनकर अग्नि आदि सब देवता एकाग्रचित होकर इन्द्र की खोज करने के लिये आपस में विचार करने लगे। फिर बातचीत कुशल देवगण सम्पूर्ण जगत् की उत्पŸिा के कारण भूत देवाधिदेव भगवान विष्णु से मिले और भय से अद्विग्न हो उन से इस प्रकार बोले। देवेश्वर ! देवसमुदाय के स्वामी इन्द्र ब्रह्महत्या से अभिभूत होकर कही छिपे गये है । भगवन ! आप ही हमारे आश्रय और सम्पूर्ण जगत के पूर्वज तथा प्रभु है। आपने समस्त प्राणियो की रक्षा के लिये विष्णु रूप धारण किया है । यद्यपि वृत्रासुर आपकी ही शक्ति से मारा गया है तथापि इन्द्र को ब्रह्महत्या ने आक्रान्त कर लिया है । सुरगण श्रेष्ठ ! अब आप ही उनके उद्वार का उपाय बताइये। देवताओं की यह बात सुनकर भगवान विष्णु बोले-इन्द्र यज्ञोंद्वारा केवल मेरी ही अराधना करे, इससे मै वज्रधारी इन्द्र को पवित्र अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा मेरी अराधना करके पुनः निर्भय हो देवेन्द्र-पद को प्राप्त कर लेगे और खोटी बुद्धिवाला नहुष अपने कर्मो से ही नष्ट हो जायेगा । देवताओ ! तुम आलस्य छोड़कर कुछ काल तक और यह कष्ट सहन करो। भगवान विष्णु की यह शुभ, सत्य तथा अमृत के समान मधुर वाणी सुनकर गुरू तथा महर्षियों सहित सब देवता उस स्थान पर गये, जहाँ भय से व्याकुल हुए इन्द्र छिपकर रहते थे। नरेश्वर! वहाँ महात्मा महेन्द्र की शुद्धि के लिये एक महान अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान हुआ, जो ब्रह्महत्या को दूर करने वाला था। युधिष्ठिर ! इन्द्र ने वृक्ष, नदी पर्वत, पृथ्वी और स्त्री समुदाय ब्रह्महत्या को बाँट दिया। इस प्रकार समस्त भूतो में ब्रह्महत्या का विभाजन करके देवेश्वर इन्द्र ने उसे त्याग दिया और स्वयं मन को यज्ञ में करके निष्पाप तथ निश्चिन्त हो गये। परन्तु बल नामक दान का नाश करने वाले इन्द्र जब अपना स्थान ग्रहण करने के लिये स्वर्गलोक मे आये, जब उन्होंने देखा-नहुष देवताओं के वरदान से अपनी दृष्टि मात्र से समस्त प्राणियों के तज को नष्ट करने में समर्थ और दुःसह हो गया है । यह देखकर वे काँप उठे। तदन्तर शचीपति इन्द्रदेव पुनः सबकी आँखो से ओझल हो गये तथा अनुकुल समय की प्रतीक्षा करते हुए समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर विचरने लगे। इन्द्र के पुनः अदृश्य हो जाने पर शची देवी शोक में डूब गयी और अत्यन्त दुखी हो रहा ! इन्द्र कहती हुई विलाप करने लगी। तत्पश्चात वे इस प्रकार बोली-यदि मैने दान दिया हो, होम किया हो, गुरूजनो को संतुष्ट रखा हो तथा मुझ में विद्यमान हो, तो मेरा पतित्रत्य सुरक्षित रहे। उत्‍तरायण के दिन जो वह पुण्य एवं दिव्य रात्रि आ रही है, उसकी अधिष्ठात्री देवी रात्रि को मै नमस्कार करती हूँ, मेरा मनोरथ सफल हो॥२५॥ऐसा कहकर शची ने और इन्द्रियों को संयम में रखकर रात्रि देवी की उपासना की। पतिव्रता तथा सत्यपरायणा होने के कारण उन्होंने उपश्रुति नामावली रात्रि का इन्द्र हो, वह स्थान दिखाइये । सत्य का सत्य से ही दर्शन आवाहन किया और उनसे कहा देवि ! जहाँ देवराज होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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