"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 146 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ छियालिसवां अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ छियालिसवां अध्याय: श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
  
 
कर्ण का कुन्‍ती को उत्‍तर तथा अर्जुन को छोड़कर शेष चारों पाण्‍डवोंको न मारने की प्रतिज्ञा
 
कर्ण का कुन्‍ती को उत्‍तर तथा अर्जुन को छोड़कर शेष चारों पाण्‍डवोंको न मारने की प्रतिज्ञा
वैशम्‍पायनजी कहते है- जनमेजय ! तदन्‍तर सूर्यमण्‍डल से एक वाणी प्रकट हुई, जो सूर्यदेवकी ही कही हुई थी। उसमें पिता के समान स्‍नेह भरा हुआ था और वह दुर्लभ्‍य प्रतीत होती थी। कर्ण ने उसे सुना। ( वह वाणी इस प्रकार थी)' नरश्रेष्‍ठ कर्ण ! कुन्‍ती सत्‍य कहती है । तुम माता की आज्ञा का पालन करो। उसका पूर्णरूप पालन करनेपर तुम्‍हारा कल्‍याण होगा। वैश्‍म्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! माता कुन्‍ती और पिता साक्षात सूर्यदेव के ऐसा कहनेपर भी उस समय सच्‍चे धैर्यवाले कर्ण की बुद्धि विचलित नहीं हुई। कर्ण बोला- राजपुत्रि ! तुमने जो कुछ कहा है, उस पर मेरी श्रद्धा नहीं होती । तुम्‍हारी इस आज्ञा का पालन करना मेरे लिये धर्म का द्वारा है, इसपर भी मैं विश्‍वास नहीं करता। तुमने मेरे प्रति जो अत्‍याचार किया है, वह महान कष्‍टदायक है’। माता! तुमने जो मुझे पानी में फेंक दिया, वह मेरे लिये यश और कीर्ति का नाशक बन गया। यद्यपि मैं क्षत्रियकुल में उत्‍पन्‍न हुआ था तो भी तुम्‍हारे कारण क्षत्रियोचित संस्‍कार से वंचित रह गया। कोई शत्रु भी मेरा इससे बढ़कर कष्‍टदायक एवं अहितकारक कार्य और क्‍या कर सकता है? जब मेरे लिये कुछ करने का अवसर था, उस समय तो तुमने यह दया नहीं दिखायी और आज जब मेरे संस्‍कार का समय बीत गया है, ऐसे समय में तुम मुझे क्षात्रधर्म की ओर प्रेरित करने चली हो। पूर्वकाल में तुमने माता के समान मेरे हित चेष्‍टा कभी नहीं की और आज केवल अपने हित की कामना रखकर मुझे मेरे कर्तव्‍यका उपदेश दे रही हो। श्रीकृष्‍ण के साथ मिले हुए अर्जुन से आज कौन वीर भय मानकर पीडित नहीं होता १ यदि इस समय मैं पाण्‍डवों की सभा में सम्मिलित हो जाऊँ तो मुझे कौन भयभीत नहीं समझेगा।  आज से पहले मुझे कोई नहीं जानता था कि मैं पाण्‍डवों का भाई हूँ। युद्ध के समय मेरा यह सम्‍बन्‍ध प्रकाश में आया है। इस समय यदि पाण्‍डवों से मिल जाऊँ तो क्षत्रियसमाज मुझे क्‍या कहेगा? धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने मुझे सब प्रकार की मनोवांछित वस्‍तुएं दी हैं ओर मुझे सुखपूर्वक रखते हुए सदा मेरा सम्‍मान किया है। उनके उस उपकार को मैं निष्‍फल कैसे कर सकता हूँ? शत्रुओंसे वैर बाँधकर जो नित्‍य मेरी उपासना करते हैं तथा जैसे वसुगण इन्‍द्र को प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार जो सदा मुझे मस्‍तक झुकाते हैं, मेरी ही प्राणशक्तिके भरोसे जो शत्रुओं के सामने डटकर खडे़ होने का साहस करते हैं और इसी आशा से जो मेरा आदर करते हैं, उनके मनोरथ को मैं छिन्‍न-भिन्‍न कैसे करूँ? जो मुझको ही नौका बनाकर उसके सहारे दुर्लभ्‍य समरसागर को पार करना चाहते हैं और मेरे ही भरोसे अपार संकट से पार होने की इच्‍छा रखते हैं, उन्‍हें इस संकट के समय में कैसे त्‍याग दूँ? दुर्योधनके आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करनेवालों के लिये यही उपकार का बदला चुकाने के योग्‍य अवसर आया है। इस समय मुझे अपने प्राणों की रक्षा न करते हुए उनके ऋण से उऋण होना है। जो किसी के द्वारा अच्‍छी तरह पालित-पोषित होकर कृतार्थ होते हैं; परंतु उस उपकार का बदला चुकाने योग्‍य समय आनेपर जो अस्थिरचित्‍त पापात्‍मा पुरूष पूर्वकृत उपकारों को न देखकर बदल जाते हैं, वे स्‍वामी के अन्‍न का अपहरण करनेवाले तथा उपकारी राजा के प्रति अपराधी हैं। उन पापाचारी कृतघ्‍नों के लिये न तो यह लोक सुखद होता है न परलोक ही। मैं तुमसे झूठ नहीं बोलता। धृतराष्‍ट्र के पुत्रों के लिये मैं अपनी शक्तिऔर बल के अनुसार तुम्‍हारे पुत्रों के साथ युद्ध अवश्‍य करूँगा।  परंतु उस दशा में भी दयालुता तथा सजनोचित सदाचार की रक्षा करता रहूंगा। इसीलिये लाभदायक होते हुए भी तुम्‍हारे इस आदेश को आज मैं नहीं मानूँगा। परंतु मेरे पास आनेका जो कष्‍ट तुमने उठाया है, वह भी व्‍यर्थ नहीं होगा। संग्राम में तुम्‍हारें चार पुत्रों को काबू के अंदर तथा वध के योग्‍य अवस्‍था में पाकर भी मैं नहीं मारूँगा। वे चार हैं, अर्जुन को छोड़कर युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव! युधिष्ठिर की सेना में अर्जुन के साथ ही मेरा युद्ध होगा। अर्जुन को युद्ध में मार देनेपर मुझे संग्राम का फल प्राप्‍त हो जायेगा अथवा स्‍वयं ही सव्‍यसाची अर्जुन के हाथ से मारा जाकर मैं यश का भागी बनूँगा। यशस्विनि ! किसी भी दशा में तुम्‍हारे पाँच पुत्र अवश्‍य शेष रहेंगे। यदि अर्जुन मारे गये तो कर्णसहित और यदि मैं मारा गया तो अर्जुनसहित तुम्‍हारे पाँच पुत्र रहेंगे। कर्ण की बात सुनकर कुन्‍ती धैर्य से विचलित न होने वाले अपने पुत्र कर्ण को हृदय से लगाकर दु:ख से काँपती हुई बोली-'कर्ण ! देव बड़ा बलवान है। तुम जैसा कहते हो वैसा ही हो। इस युद्ध के द्वारा कौरवों का संहार होगा। 'शत्रुसूदन ! तुमने अपने चार भाइयों को अभयदान दिया है। युद्ध में उन्‍हें छोड़ देने की प्रतिज्ञापर दृढ़ रहना।। 'तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम्‍हें किसी प्रकार का कष्‍ट न हो।' इस प्रकार जब कुन्‍ती ने कर्ण से कहा, तब कर्ण ने भी 'तथास्‍तु' कहकर उसकी बात मान ली। फिर वे दोनों पृथक–पृथक अपने स्‍थान को चले गये। 
 
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत भगवद्यानपर्व में कुन्‍ती और कर्ण की भेंटविषेयक एक सौ छियालिसवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
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वैशम्‍पायनजी कहते है- जनमेजय ! तदन्‍तर सूर्यमण्‍डल से एक वाणी प्रकट हुई, जो सूर्यदेवकी ही कही हुई थी। उसमें पिता के समान स्‍नेह भरा हुआ था और वह दुर्लभ्‍य प्रतीत होती थी। कर्ण ने उसे सुना। ( वह वाणी इस प्रकार थी)' नरश्रेष्‍ठ कर्ण ! कुन्‍ती सत्‍य कहती है । तुम माता की आज्ञा का पालन करो। उसका पूर्णरूप पालन करनेपर तुम्‍हारा कल्‍याण होगा। वैश्‍म्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! माता कुन्‍ती और पिता साक्षात सूर्यदेव के ऐसा कहनेपर भी उस समय सच्‍चे धैर्यवाले कर्ण की बुद्धि विचलित नहीं हुई। कर्ण बोला- राजपुत्रि ! तुमने जो कुछ कहा है, उस पर मेरी श्रद्धा नहीं होती । तुम्‍हारी इस आज्ञा का पालन करना मेरे लिये धर्म का द्वारा है, इसपर भी मैं विश्‍वास नहीं करता। तुमने मेरे प्रति जो अत्‍याचार किया है, वह महान कष्‍टदायक है’। माता! तुमने जो मुझे पानी में फेंक दिया, वह मेरे लिये यश और कीर्ति का नाशक बन गया। यद्यपि मैं क्षत्रियकुल में उत्‍पन्‍न हुआ था तो भी तुम्‍हारे कारण क्षत्रियोचित संस्‍कार से वंचित रह गया। कोई शत्रु भी मेरा इससे बढ़कर कष्‍टदायक एवं अहितकारक कार्य और क्‍या कर सकता है? जब मेरे लिये कुछ करने का अवसर था, उस समय तो तुमने यह दया नहीं दिखायी और आज जब मेरे संस्‍कार का समय बीत गया है, ऐसे समय में तुम मुझे क्षात्रधर्म की ओर प्रेरित करने चली हो। पूर्वकाल में तुमने माता के समान मेरे हित चेष्‍टा कभी नहीं की और आज केवल अपने हित की कामना रखकर मुझे मेरे कर्तव्‍यका उपदेश दे रही हो। श्रीकृष्‍ण के साथ मिले हुए अर्जुन से आज कौन वीर भय मानकर पीडित नहीं होता १ यदि इस समय मैं पाण्‍डवों की सभा में सम्मिलित हो जाऊँ तो मुझे कौन भयभीत नहीं समझेगा।  आज से पहले मुझे कोई नहीं जानता था कि मैं पाण्‍डवों का भाई हूँ। युद्ध के समय मेरा यह सम्‍बन्‍ध प्रकाश में आया है। इस समय यदि पाण्‍डवों से मिल जाऊँ तो क्षत्रियसमाज मुझे क्‍या कहेगा? धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने मुझे सब प्रकार की मनोवांछित वस्‍तुएं दी हैं ओर मुझे सुखपूर्वक रखते हुए सदा मेरा सम्‍मान किया है। उनके उस उपकार को मैं निष्‍फल कैसे कर सकता हूँ? शत्रुओंसे वैर बाँधकर जो नित्‍य मेरी उपासना करते हैं तथा जैसे वसुगण इन्‍द्र को प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार जो सदा मुझे मस्‍तक झुकाते हैं, मेरी ही प्राणशक्तिके भरोसे जो शत्रुओं के सामने डटकर खडे़ होने का साहस करते हैं और इसी आशा से जो मेरा आदर करते हैं, उनके मनोरथ को मैं छिन्‍न-भिन्‍न कैसे करूँ? जो मुझको ही नौका बनाकर उसके सहारे दुर्लभ्‍य समरसागर को पार करना चाहते हैं और मेरे ही भरोसे अपार संकट से पार होने की इच्‍छा रखते हैं, उन्‍हें इस संकट के समय में कैसे त्‍याग दूँ? दुर्योधनके आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करनेवालों के लिये यही उपकार का बदला चुकाने के योग्‍य अवसर आया है। इस समय मुझे अपने प्राणों की रक्षा न करते हुए उनके ऋण से उऋण होना है। जो किसी के द्वारा अच्‍छी तरह पालित-पोषित होकर कृतार्थ होते हैं; परंतु उस उपकार का बदला चुकाने योग्‍य समय आनेपर जो अस्थिरचित्‍त पापात्‍मा पुरूष पूर्वकृत उपकारों को न देखकर बदल जाते हैं, वे स्‍वामी के अन्‍न का अपहरण करनेवाले तथा उपकारी राजा के प्रति अपराधी हैं। उन पापाचारी कृतघ्‍नों के लिये न तो यह लोक सुखद होता है न परलोक ही।
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 145 श्लोक 1-12|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 147 श्लोक 1-28}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 145 श्लोक 1-12|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 146 श्लोक 18-27}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योगपर्व]]
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योग पर्व]]
 
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१५:१५, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण का कुन्‍ती को उत्‍तर तथा अर्जुन को छोड़कर शेष चारों पाण्‍डवोंको न मारने की प्रतिज्ञा

वैशम्‍पायनजी कहते है- जनमेजय ! तदन्‍तर सूर्यमण्‍डल से एक वाणी प्रकट हुई, जो सूर्यदेवकी ही कही हुई थी। उसमें पिता के समान स्‍नेह भरा हुआ था और वह दुर्लभ्‍य प्रतीत होती थी। कर्ण ने उसे सुना। ( वह वाणी इस प्रकार थी)' नरश्रेष्‍ठ कर्ण ! कुन्‍ती सत्‍य कहती है । तुम माता की आज्ञा का पालन करो। उसका पूर्णरूप पालन करनेपर तुम्‍हारा कल्‍याण होगा। वैश्‍म्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! माता कुन्‍ती और पिता साक्षात सूर्यदेव के ऐसा कहनेपर भी उस समय सच्‍चे धैर्यवाले कर्ण की बुद्धि विचलित नहीं हुई। कर्ण बोला- राजपुत्रि ! तुमने जो कुछ कहा है, उस पर मेरी श्रद्धा नहीं होती । तुम्‍हारी इस आज्ञा का पालन करना मेरे लिये धर्म का द्वारा है, इसपर भी मैं विश्‍वास नहीं करता। तुमने मेरे प्रति जो अत्‍याचार किया है, वह महान कष्‍टदायक है’। माता! तुमने जो मुझे पानी में फेंक दिया, वह मेरे लिये यश और कीर्ति का नाशक बन गया। यद्यपि मैं क्षत्रियकुल में उत्‍पन्‍न हुआ था तो भी तुम्‍हारे कारण क्षत्रियोचित संस्‍कार से वंचित रह गया। कोई शत्रु भी मेरा इससे बढ़कर कष्‍टदायक एवं अहितकारक कार्य और क्‍या कर सकता है? जब मेरे लिये कुछ करने का अवसर था, उस समय तो तुमने यह दया नहीं दिखायी और आज जब मेरे संस्‍कार का समय बीत गया है, ऐसे समय में तुम मुझे क्षात्रधर्म की ओर प्रेरित करने चली हो। पूर्वकाल में तुमने माता के समान मेरे हित चेष्‍टा कभी नहीं की और आज केवल अपने हित की कामना रखकर मुझे मेरे कर्तव्‍यका उपदेश दे रही हो। श्रीकृष्‍ण के साथ मिले हुए अर्जुन से आज कौन वीर भय मानकर पीडित नहीं होता १ यदि इस समय मैं पाण्‍डवों की सभा में सम्मिलित हो जाऊँ तो मुझे कौन भयभीत नहीं समझेगा। आज से पहले मुझे कोई नहीं जानता था कि मैं पाण्‍डवों का भाई हूँ। युद्ध के समय मेरा यह सम्‍बन्‍ध प्रकाश में आया है। इस समय यदि पाण्‍डवों से मिल जाऊँ तो क्षत्रियसमाज मुझे क्‍या कहेगा? धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने मुझे सब प्रकार की मनोवांछित वस्‍तुएं दी हैं ओर मुझे सुखपूर्वक रखते हुए सदा मेरा सम्‍मान किया है। उनके उस उपकार को मैं निष्‍फल कैसे कर सकता हूँ? शत्रुओंसे वैर बाँधकर जो नित्‍य मेरी उपासना करते हैं तथा जैसे वसुगण इन्‍द्र को प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार जो सदा मुझे मस्‍तक झुकाते हैं, मेरी ही प्राणशक्तिके भरोसे जो शत्रुओं के सामने डटकर खडे़ होने का साहस करते हैं और इसी आशा से जो मेरा आदर करते हैं, उनके मनोरथ को मैं छिन्‍न-भिन्‍न कैसे करूँ? जो मुझको ही नौका बनाकर उसके सहारे दुर्लभ्‍य समरसागर को पार करना चाहते हैं और मेरे ही भरोसे अपार संकट से पार होने की इच्‍छा रखते हैं, उन्‍हें इस संकट के समय में कैसे त्‍याग दूँ? दुर्योधनके आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करनेवालों के लिये यही उपकार का बदला चुकाने के योग्‍य अवसर आया है। इस समय मुझे अपने प्राणों की रक्षा न करते हुए उनके ऋण से उऋण होना है। जो किसी के द्वारा अच्‍छी तरह पालित-पोषित होकर कृतार्थ होते हैं; परंतु उस उपकार का बदला चुकाने योग्‍य समय आनेपर जो अस्थिरचित्‍त पापात्‍मा पुरूष पूर्वकृत उपकारों को न देखकर बदल जाते हैं, वे स्‍वामी के अन्‍न का अपहरण करनेवाले तथा उपकारी राजा के प्रति अपराधी हैं। उन पापाचारी कृतघ्‍नों के लिये न तो यह लोक सुखद होता है न परलोक ही।


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