"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर
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− | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योग पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div> | |
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत | ||
उपश्रुति देवी की सहायता से इन्द्राणी की इन्द्र से भेट | उपश्रुति देवी की सहायता से इन्द्राणी की इन्द्र से भेट | ||
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उपश्रुति बोली--देवि ! मै उपश्रुति हूँ और तुम्हारे पास आयी हूँ । भामिनि ! तुम्हारे सत्य से प्रभावित होकर मैने तुम्हे दर्शन दिया है। तुम पतिव्रता होने के साथ ही यम और नियम से संयुक्त हो, अतः मै तुम्हे वृत्रासुर निषूदन इन्द्रदेव का दर्शन कराऊँगी। तुम्हारा कल्याण हो ! तुम शीघ्र मेरे पीछे-पीछे चली आओ । तुम्हे सुरश्रेष्ठ देवराज के दर्शन होगे । ऐसा कहकर उपश्रुति देवी वहाँ से चल दी;फिर इन्द्राणी भी उनके पीछे हो ली। देवताओं के अनेकानेक वन, बहुत से पर्वत तथा हिमालय को लाँघकर उपश्रुति देवी उसके उत्तर भाग में जा पहुँची । तदन्तर अनेक येजनों तक फैले हए समुद्र के पास पहुचकर उन्होंने एक महाद्वीप में प्रवेश किया, जो नाना प्रकार के वृक्षो और लताओं से सुशोभित था। वहाँ एक दिव्य सरोवर दिखायी दिखायी दिया, जिसमें अनेक प्रकार क ेजल-पक्षी निवास करते थे । वह सुन्दर सरोवर सौ योजन लंबा औै उतना ही चैडा था भारत ! उसके भीतर सहस्त्रो कमल खिले हुए थे, जो पाँच रंग के दिखायी देते थे । उन पर मडराते हुए भौरे गुनगुना रहे थे। उक्त सरोवर के मध्य भाग में एक बहुत बड़ी सुन्दर कमलिनी थी, जिसे एक ऊँची नाल वाले गौर वर्ण के विशाल कमलने घेर रखा था। उपश्रुति देवी ने उस कमलनाल को चीरकर इन्द्राणी सहित उस कमल के भीतर प्रवेश किया और वही एक तन्तु में घुसकर छिपे हुए शतक्रतु इन्द्र को देखा। अत्यन्त सूक्ष्म रूप से अवस्थित भगवान इन्द्र को वहाँ देखकर देवी उपश्रुति तथा इन्द्राणि भी सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। इन्द्राणी ने पहले विख्यात कर्मो का बखान करके इन्द्र देव स्तवन किया । अपनी स्तुती सुनकर इन्द्रदेव ने शची से कहा। देवी ! तुम किसलिये यहाँ आयी हो और तुम्हे कैसे पता लगा है? तब इन्द्राणी ने नहुष की कुचेष्टा का वर्णन किया। शतकतो ! तीनो लोको के इन्द्र का पद पाकर नहुष बल पराक्रम से सम्पन्न हो घमंड में भर गया हे । उस दुष्टात्माने मुझ से भी कहा है कि तू मेरी सेवा में उपस्थित हो । उस कू्रर नरेश ने मेरे लिये लिये कुछ समय की अवधि दी है । प्रभो ! यदि आप मेरी रक्षा नहीं करेंगे तो वह पापी मुझे अपने वश में कर लेगा। महाबाहु इन्द्र ! इसी कारण मै शीघ्रतापूर्वक आपके निकट आयी हूँ । पापपूर्ण विचार रखने वाले उस नहुष को आप मार डालिये। देत्यानवसूदन प्रभो ! अब आप अपने आपको प्रकाश में लाइये, तेज प्राप्त कीजिये और देवताओं के राज्य का शासन अपने हाथ में लीजिये। | उपश्रुति बोली--देवि ! मै उपश्रुति हूँ और तुम्हारे पास आयी हूँ । भामिनि ! तुम्हारे सत्य से प्रभावित होकर मैने तुम्हे दर्शन दिया है। तुम पतिव्रता होने के साथ ही यम और नियम से संयुक्त हो, अतः मै तुम्हे वृत्रासुर निषूदन इन्द्रदेव का दर्शन कराऊँगी। तुम्हारा कल्याण हो ! तुम शीघ्र मेरे पीछे-पीछे चली आओ । तुम्हे सुरश्रेष्ठ देवराज के दर्शन होगे । ऐसा कहकर उपश्रुति देवी वहाँ से चल दी;फिर इन्द्राणी भी उनके पीछे हो ली। देवताओं के अनेकानेक वन, बहुत से पर्वत तथा हिमालय को लाँघकर उपश्रुति देवी उसके उत्तर भाग में जा पहुँची । तदन्तर अनेक येजनों तक फैले हए समुद्र के पास पहुचकर उन्होंने एक महाद्वीप में प्रवेश किया, जो नाना प्रकार के वृक्षो और लताओं से सुशोभित था। वहाँ एक दिव्य सरोवर दिखायी दिखायी दिया, जिसमें अनेक प्रकार क ेजल-पक्षी निवास करते थे । वह सुन्दर सरोवर सौ योजन लंबा औै उतना ही चैडा था भारत ! उसके भीतर सहस्त्रो कमल खिले हुए थे, जो पाँच रंग के दिखायी देते थे । उन पर मडराते हुए भौरे गुनगुना रहे थे। उक्त सरोवर के मध्य भाग में एक बहुत बड़ी सुन्दर कमलिनी थी, जिसे एक ऊँची नाल वाले गौर वर्ण के विशाल कमलने घेर रखा था। उपश्रुति देवी ने उस कमलनाल को चीरकर इन्द्राणी सहित उस कमल के भीतर प्रवेश किया और वही एक तन्तु में घुसकर छिपे हुए शतक्रतु इन्द्र को देखा। अत्यन्त सूक्ष्म रूप से अवस्थित भगवान इन्द्र को वहाँ देखकर देवी उपश्रुति तथा इन्द्राणि भी सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। इन्द्राणी ने पहले विख्यात कर्मो का बखान करके इन्द्र देव स्तवन किया । अपनी स्तुती सुनकर इन्द्रदेव ने शची से कहा। देवी ! तुम किसलिये यहाँ आयी हो और तुम्हे कैसे पता लगा है? तब इन्द्राणी ने नहुष की कुचेष्टा का वर्णन किया। शतकतो ! तीनो लोको के इन्द्र का पद पाकर नहुष बल पराक्रम से सम्पन्न हो घमंड में भर गया हे । उस दुष्टात्माने मुझ से भी कहा है कि तू मेरी सेवा में उपस्थित हो । उस कू्रर नरेश ने मेरे लिये लिये कुछ समय की अवधि दी है । प्रभो ! यदि आप मेरी रक्षा नहीं करेंगे तो वह पापी मुझे अपने वश में कर लेगा। महाबाहु इन्द्र ! इसी कारण मै शीघ्रतापूर्वक आपके निकट आयी हूँ । पापपूर्ण विचार रखने वाले उस नहुष को आप मार डालिये। देत्यानवसूदन प्रभो ! अब आप अपने आपको प्रकाश में लाइये, तेज प्राप्त कीजिये और देवताओं के राज्य का शासन अपने हाथ में लीजिये। | ||
− | इसप्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इसप्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> |
− | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत | + | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 13 श्लोक 22-27|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-20}} |
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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१५:१६, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
चतुर्दश (14) अध्याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
उपश्रुति देवी की सहायता से इन्द्राणी की इन्द्र से भेट
शल्य कहते है-युधिष्ठिर ! तदन्तर उपश्रुति देवी मुर्तिमती होकर साध्वी शचीदेवी के पास आयी । नूंतन बय तथा मनोहर रूप से सुशोभित उपश्रुति देवी को उपस्थित हुई देख इन्द्राणी का मन प्रसन्न हो गया । उन्होंने उनका पूजन करके कहा सुमुखि ! मै आपको जानना चाहती हूँ, बताइये आप कौन है?
उपश्रुति बोली--देवि ! मै उपश्रुति हूँ और तुम्हारे पास आयी हूँ । भामिनि ! तुम्हारे सत्य से प्रभावित होकर मैने तुम्हे दर्शन दिया है। तुम पतिव्रता होने के साथ ही यम और नियम से संयुक्त हो, अतः मै तुम्हे वृत्रासुर निषूदन इन्द्रदेव का दर्शन कराऊँगी। तुम्हारा कल्याण हो ! तुम शीघ्र मेरे पीछे-पीछे चली आओ । तुम्हे सुरश्रेष्ठ देवराज के दर्शन होगे । ऐसा कहकर उपश्रुति देवी वहाँ से चल दी;फिर इन्द्राणी भी उनके पीछे हो ली। देवताओं के अनेकानेक वन, बहुत से पर्वत तथा हिमालय को लाँघकर उपश्रुति देवी उसके उत्तर भाग में जा पहुँची । तदन्तर अनेक येजनों तक फैले हए समुद्र के पास पहुचकर उन्होंने एक महाद्वीप में प्रवेश किया, जो नाना प्रकार के वृक्षो और लताओं से सुशोभित था। वहाँ एक दिव्य सरोवर दिखायी दिखायी दिया, जिसमें अनेक प्रकार क ेजल-पक्षी निवास करते थे । वह सुन्दर सरोवर सौ योजन लंबा औै उतना ही चैडा था भारत ! उसके भीतर सहस्त्रो कमल खिले हुए थे, जो पाँच रंग के दिखायी देते थे । उन पर मडराते हुए भौरे गुनगुना रहे थे। उक्त सरोवर के मध्य भाग में एक बहुत बड़ी सुन्दर कमलिनी थी, जिसे एक ऊँची नाल वाले गौर वर्ण के विशाल कमलने घेर रखा था। उपश्रुति देवी ने उस कमलनाल को चीरकर इन्द्राणी सहित उस कमल के भीतर प्रवेश किया और वही एक तन्तु में घुसकर छिपे हुए शतक्रतु इन्द्र को देखा। अत्यन्त सूक्ष्म रूप से अवस्थित भगवान इन्द्र को वहाँ देखकर देवी उपश्रुति तथा इन्द्राणि भी सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। इन्द्राणी ने पहले विख्यात कर्मो का बखान करके इन्द्र देव स्तवन किया । अपनी स्तुती सुनकर इन्द्रदेव ने शची से कहा। देवी ! तुम किसलिये यहाँ आयी हो और तुम्हे कैसे पता लगा है? तब इन्द्राणी ने नहुष की कुचेष्टा का वर्णन किया। शतकतो ! तीनो लोको के इन्द्र का पद पाकर नहुष बल पराक्रम से सम्पन्न हो घमंड में भर गया हे । उस दुष्टात्माने मुझ से भी कहा है कि तू मेरी सेवा में उपस्थित हो । उस कू्रर नरेश ने मेरे लिये लिये कुछ समय की अवधि दी है । प्रभो ! यदि आप मेरी रक्षा नहीं करेंगे तो वह पापी मुझे अपने वश में कर लेगा। महाबाहु इन्द्र ! इसी कारण मै शीघ्रतापूर्वक आपके निकट आयी हूँ । पापपूर्ण विचार रखने वाले उस नहुष को आप मार डालिये। देत्यानवसूदन प्रभो ! अब आप अपने आपको प्रकाश में लाइये, तेज प्राप्त कीजिये और देवताओं के राज्य का शासन अपने हाथ में लीजिये।
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