"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-22" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के ८ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
== एक सौ साठवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (उलूकदूतागमनपर्व)==
+
==षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)==
 +
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ साठवाँ अध्याय: श्लोक 1- 33 का हिन्दी अनुवाद </div>
+
दुर्योधनका उलूकको दूत बनाकर पाण्‍डवोंके पास भेजना और उनसे कहनेके लिये संदेश देना
  
दुर्योधनका उलूकको दूत बनाकर पाण्‍डवोंके पास भेजना और उनसे कहनेके लिये संदेश देना
+
संजय कहते हैं—महाराज ! महात्‍मा पाण्‍डवोंने जब हिरण्‍वती नदीके तटपर अपना पडाव डाल‍ दिया, तब कौरवोंने भी विधिपूर्वक दूसरे स्‍थानपर अपनी छावनी डाली। राजा दुर्योधनने वहाँ अपनी शक्तिशालिनी सेना ठहराकर समस्‍त राजाओंको समादर करके उन सबकी रक्षा के लिये कई गुल्‍म सैनिकोंकी टुकडियोंको तैनात कर दिया।  भारत ! इस प्रकार योद्धाओंके संरक्षणकी व्‍यवस्‍था करके राजा दुर्योधन कर्ण, दुशासन तथा सुबलपुत्र शकुनि को बुलाकर गुप्‍तरूपसे मन्‍त्रणा की। राजेन्‍द्र ! भरतनन्‍दन ! नरश्रेष्‍ठ ! दुर्योधनने भाई कर्ण, भाई दुशासन तथा सुबलपुत्र शकुनिसे सम्‍भाषण एवं सलाह करके उलूकको एकान्‍तमें बुलाकर उसे इस प्रकार कहा- द्यूतकुशलन शकुनिके पुत्र उलूक ! तुम सोमको और पाण्‍डवों के पास जाओ तथा वहाँ पहुँचकर वासुदेव श्रीकृष्‍णके सामने ही उनसे मेरा यह संदेश कहो—कितने ही बर्षोंसे जिसका विचार चल रहा था, वह सम्‍पूर्ण जगत्‍ के लिये अत्‍यन्‍त भंयकर कौरव-पाण्‍डवोंका युद्ध अब सिरपर आ पहुँचा है। कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर ! श्रीकृष्‍णकी सहायता पाकर भाइयोंसहित गर्जना करते हुए तुमने संजयसे जो आत्‍मश्‍लाघापूर्ण बातें कही थीं और जिन्‍हें संजयने कौरवोंकी सभामें बहुत बढा-चढाकर सुनाया था, उन सबको सत्‍य करके दिखाने का यह अवसर आ गया है। तुमलोगोंने जो-जो प्रतिज्ञाएं की हैं, उन सबको पूर्ण करो’। उलूक ! तुम मेरे कहनेसे कुन्‍तीके ज्‍येष्‍ठ पुत्र युधिष्ठिरके सामने जाकर इस प्रकार कहना-राजन्‍ ! तुम तो अपने सभी भाइयों, सोमको और केकयोंसहित बडे धर्मात्‍मा बनते हो। धर्मात्‍मा होकर अधर्ममें कैसे मन लगा रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्‍वास था कि तुमने समस्‍त प्राणियों को अभयदान दे दिया है; परंतु इस समय तुम एक निर्दय मनुष्‍यकी भांति सम्‍पूर्ण जगत्‍का विनाश देखता चाहते हो। भरतश्रेष्‍ठ ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो । सुना जाता है कि पूर्वकालमें जब देवताओंने प्रहलादका राज्‍य छीन लिया था, तब उन्‍होंने इस श्‍लोकाक गान किया था। देवताओं ! साधारण ध्‍वजकी भांति जिसकी धर्ममयी ध्‍वजा सदा ऊँचेतक फहराती रहती है; परंतु जिसके द्वारा गुप्‍त रूपसे पाप भी होते रहते हैं, उसके उव व्रतको विडालव्रत कहते हैं। नरेश्‍वर ! इस विषयमें तुम्‍हें यह उत्‍तम आख्‍यान सुना रहा हूं, जिसे नारदजीने मेरे पिताजीसे कहा था। राजन्‍ ! यह प्रसिद्ध है कि किसी समय एक दुष्‍ट बिलाव दोनों भुजाएं ऊपर किये गंगाजीके तटपर खडा रहा। वह किसी भी कार्यके लिये तनिक भी चेष्‍टा नहीं करता था। इस प्रकार समस्‍त देहधारियोंपर विश्‍वास जमानेके लिये वह सभी प्राणियोंसे यही कहा करता था कि अब मैं मानसिक शुद्धि करके– हिंसा छोड़कर धर्माचरण कर रहा हूं। राजन्‍ ! दीर्घकालके पश्‍चात्‍ धीरे-धीरे पक्षियोंने उसपर विश्‍वास कर दिया। अब वे उस बिलावके पास आकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पक्षियोंको अपना आहार बनानेवाला सह बिलाव जब उन समस्‍त पक्षियोंद्वारा अधिक आदर-सत्‍कार पाने लगा, तब उसने यह समझ लिया कि मेरा काम बन गया और मुझे धर्मानुष्‍ठानका भी अभीष्‍ट फल प्राप्‍त हो गया। तदन्‍तर बहुत समय के पश्‍चात उस स्‍थानमें चूहे भी गये। वहां जाकर उन्‍होंने कठोर मतका पालन करनेवाले उस धर्मात्‍मा बिलावको देखा। भारत ! दम्‍भयुक्‍त महान कर्मोंके अनुष्‍ठानमें लगे हुए उस बिलावको देखकर उनके मनमें यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ। हम सब लोगोंके बहुतसे मित्र हैं, अत: अब यह विबाल भी हमारा मामा होकर रहे और हमारे यहां जो वृद्ध तथा बालक है, उन सबकी सदा रक्षा करता रहे।  
संजय कहते हैं—महाराज ! महात्‍मा पाण्‍डवोंने जब हिरण्‍वती नदीके तटपर अपना पडाव डाल‍ दिया, तब कौरवोंने भी विधिपूर्वक दूसरे स्‍थानपर अपनी छावनी डाली। राजा दुर्योधनने वहाँ अपनी शक्तिशालिनी सेना ठहराकर समस्‍त राजाओंको समादर करके उन सबकी रक्षा के लिये कई गुल्‍म सैनिकोंकी टुकडियोंको तैनात कर दिया।  भारत ! इस प्रकार योद्धाओंके संरक्षणकी व्‍यवस्‍था करके राजा दुर्योधन कर्ण, दुशासन तथा सुबलपुत्र शकुनि को बुलाकर गुप्‍तरूपसे मन्‍त्रणा की। राजेन्‍द्र ! भरतनन्‍दन ! नरश्रेष्‍ठ ! दुर्योधनने भाई कर्ण, भाई दुशासन तथा सुबलपुत्र शकुनिसे सम्‍भाषण एवं सलाह करके उलूकको एकान्‍तमें बुलाकर उसे इस प्रकार कहा- द्यूतकुशलन शकुनिके पुत्र उलूक ! तुम सोमको और पाण्‍डवों के पास जाओ तथा वहाँ पहुँचकर वासुदेव श्रीकृष्‍णके सामने ही उनसे मेरा यह संदेश कहो—कितने ही बर्षोंसे जिसका विचार चल रहा था, वह सम्‍पूर्ण जगत्‍ के लिये अत्‍यन्‍त भंयकर कौरव-पाण्‍डवोंका युद्ध अब सिरपर आ पहुँचा है। कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर ! श्रीकृष्‍णकी सहायता पाकर भाइयोंसहित गर्जना करते हुए तुमने संजयसे जो आत्‍मश्‍लाघापूर्ण बातें कही थीं और जिन्‍हें संजयने कौरवोंकी सभामें बहुत बढा-चढाकर सुनाया था, उन सबको सत्‍य करके दिखाने का यह अवसर आ गया है। तुमलोगोंने जो-जो प्रतिज्ञाएं की हैं, उन सबको पूर्ण करो’। उलूक ! तुम मेरे कहनेसे कुन्‍तीके ज्‍येष्‍ठ पुत्र युधिष्ठिरके सामने जाकर इस प्रकार कहना-राजन्‍ ! तुम तो अपने सभी भाइयों, सोमको और केकयोंसहित बडे धर्मात्‍मा बनते हो। धर्मात्‍मा होकर अधर्ममें कैसे मन लगा रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्‍वास था कि तुमने समस्‍त प्राणियों को अभयदान दे दिया है; परंतु इस समय तुम एक निर्दय मनुष्‍यकी भांति सम्‍पूर्ण जगत्‍का विनाश देखता चाहते हो। भरतश्रेष्‍ठ ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो । सुना जाता है कि पूर्वकालमें जब देवताओंने प्रहलादका राज्‍य छीन लिया था, तब उन्‍होंने इस श्‍लोकाक गान किया था। देवताओं ! साधारण ध्‍वजकी भांति जिसकी धर्ममयी ध्‍वजा सदा ऊँचेतक फहराती रहती है; परंतु जिसके द्वारा गुप्‍त रूपसे पाप भी होते रहते हैं, उसके उव व्रतको विडालव्रत कहते हैं। नरेश्‍वर ! इस विषयमें तुम्‍हें यह उत्‍तम आख्‍यान सुना रहा हूं, जिसे नारदजीने मेरे पिताजीसे कहा था। राजन्‍ ! यह प्रसिद्ध है कि किसी समय एक दुष्‍ट बिलाव दोनों भुजाएं ऊपर किये गंगाजीके तटपर खडा रहा। वह किसी भी कार्यके लिये तनिक भी चेष्‍टा नहीं करता था। इस प्रकार समस्‍त देहधारियोंपर विश्‍वास जमानेके लिये वह सभी प्राणियोंसे यही कहा करता था कि अब मैं मानसिक शुद्धि करके– हिंसा छोड़कर धर्माचरण कर रहा हूं। राजन्‍ ! दीर्घकालके पश्‍चात्‍ धीरे-धीरे पक्षियोंने उसपर विश्‍वास कर दिया। अब वे उस बिलावके पास आकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पक्षियोंको अपना आहार बनानेवाला सह बिलाव जब उन समस्‍त पक्षियोंद्वारा अधिक आदर-सत्‍कार पाने लगा, तब उसने यह समझ लिया कि मेरा काम बन गया और मुझे धर्मानुष्‍ठानका भी अभीष्‍ट फल प्राप्‍त हो गया। तदन्‍तर बहुत समय के पश्‍चात उस स्‍थानमें चूहे भी गये। वहां जाकर उन्‍होंने कठोर मतका पालन करनेवाले उस धर्मात्‍मा बिलावको देखा। भारत ! दम्‍भयुक्‍त महान कर्मोंके अनुष्‍ठानमें लगे हुए उस बिलावको देखकर उनके मनमें यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ। हम सब लोगोंके बहुतसे मित्र हैं, अत: अब यह विबाल भी हमारा मामा होकर रहे और हमारे यहां जो वृद्ध तथा बालक है, उन सबकी सदा रक्षा करता रहे। यह सोचकर वे सभी उस विलावके पास गये और इस प्रकार बोले—मामाजी ! हम सब लोग आपकी कृपासे सुख पूर्वक विचरना चाहते हैं। आप ही हमारे निर्भय आश्रय हैं और आप ही हमारे परम सुदृढ हैं। हम सब लोग एक साथ संगठित होकर आपकी शरणमें आये है। आप सदा धर्ममें तत्‍पर रहते हैं ओर धर्ममेंही आप की निष्‍ठा है। महामते ! जैसे वज्रधारी इन्‍द्र, देवताओंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारा संरक्षण करें। प्रजानाथ ! उन सम्‍पूर्ण चूहोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर मूषकोंके लिये यमराजस्‍वरूप उस बिलावने उन सबको इस प्रकार उत्‍त्‍र दिया– मैं तपस्‍या भी करूं और तुम्‍हारी रक्षा भी—इन दोनों कार्योंका परस्‍पर सम्‍बन्‍ध मुझे दिखायी नहीं देता है—ये दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते हैं। तथापि मुझे तुमलोगोंके हितकी बात भी अवश्‍य करनी चाहिये। तुम्‍हें भी प्रतिदिन मेरी एक आज्ञाका पालन करना होगा। मैं तपस्‍या करते-करते बहुत थक गया हूं और दृढतापूर्वक संयम-नियमके पालनमें लगा रहता हूं। बहुत सोचनेपर भी मुझे अपने भीतर चलने-फिरने की कोई शक्ति नहीं दिखायी देती; अत: तात ! तुम्‍हें सदा मुझे यहां से नदीके तटतक पहुंचाना पडेगा। भरतश्रेष्‍ठ ! ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर चूहोंने बिलावकी आज्ञाका पालन करनेके लिये हामी भर ली और वृद्ध तथा बालकोंसहित अपना सारा परिवार उस बिलावको सौंप दिया। फिर तो वह पापी एवं दुष्‍टात्‍मा बिलाव प्रतिदिन चूहोंको खा-खाकर मोटा और सुंदर होने लगा। उसके अंगोंकी एक-एक जोड़ मजबूत हो गयी। इधर चूहोंकी संख्‍या बडे वेगसे घटने लगी और वह बिलाव तेज और बलसे सम्‍पन्‍न हो प्रतिदिन बढने लगा। तब वे चूहे परस्‍पर मिलकर एक-दूसरेसे कहने लगे— क्‍यों जी ! क्‍या कारण है कि मामा तो नित्‍य मोटा-ताजा होता जा रहा है और हमारी संख्‍या बडे वेग से घटती चली जा रही है।
 
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 159 श्लोक 1-15|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 160 श्लोक 34- 65}}
+
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 159 श्लोक 1-15|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 23-43}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
+
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योगपर्व]]
+
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योग पर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

०९:५७, २ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधनका उलूकको दूत बनाकर पाण्‍डवोंके पास भेजना और उनसे कहनेके लिये संदेश देना

संजय कहते हैं—महाराज ! महात्‍मा पाण्‍डवोंने जब हिरण्‍वती नदीके तटपर अपना पडाव डाल‍ दिया, तब कौरवोंने भी विधिपूर्वक दूसरे स्‍थानपर अपनी छावनी डाली। राजा दुर्योधनने वहाँ अपनी शक्तिशालिनी सेना ठहराकर समस्‍त राजाओंको समादर करके उन सबकी रक्षा के लिये कई गुल्‍म सैनिकोंकी टुकडियोंको तैनात कर दिया। भारत ! इस प्रकार योद्धाओंके संरक्षणकी व्‍यवस्‍था करके राजा दुर्योधन कर्ण, दुशासन तथा सुबलपुत्र शकुनि को बुलाकर गुप्‍तरूपसे मन्‍त्रणा की। राजेन्‍द्र ! भरतनन्‍दन ! नरश्रेष्‍ठ ! दुर्योधनने भाई कर्ण, भाई दुशासन तथा सुबलपुत्र शकुनिसे सम्‍भाषण एवं सलाह करके उलूकको एकान्‍तमें बुलाकर उसे इस प्रकार कहा- द्यूतकुशलन शकुनिके पुत्र उलूक ! तुम सोमको और पाण्‍डवों के पास जाओ तथा वहाँ पहुँचकर वासुदेव श्रीकृष्‍णके सामने ही उनसे मेरा यह संदेश कहो—कितने ही बर्षोंसे जिसका विचार चल रहा था, वह सम्‍पूर्ण जगत्‍ के लिये अत्‍यन्‍त भंयकर कौरव-पाण्‍डवोंका युद्ध अब सिरपर आ पहुँचा है। कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर ! श्रीकृष्‍णकी सहायता पाकर भाइयोंसहित गर्जना करते हुए तुमने संजयसे जो आत्‍मश्‍लाघापूर्ण बातें कही थीं और जिन्‍हें संजयने कौरवोंकी सभामें बहुत बढा-चढाकर सुनाया था, उन सबको सत्‍य करके दिखाने का यह अवसर आ गया है। तुमलोगोंने जो-जो प्रतिज्ञाएं की हैं, उन सबको पूर्ण करो’। उलूक ! तुम मेरे कहनेसे कुन्‍तीके ज्‍येष्‍ठ पुत्र युधिष्ठिरके सामने जाकर इस प्रकार कहना-राजन्‍ ! तुम तो अपने सभी भाइयों, सोमको और केकयोंसहित बडे धर्मात्‍मा बनते हो। धर्मात्‍मा होकर अधर्ममें कैसे मन लगा रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्‍वास था कि तुमने समस्‍त प्राणियों को अभयदान दे दिया है; परंतु इस समय तुम एक निर्दय मनुष्‍यकी भांति सम्‍पूर्ण जगत्‍का विनाश देखता चाहते हो। भरतश्रेष्‍ठ ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो । सुना जाता है कि पूर्वकालमें जब देवताओंने प्रहलादका राज्‍य छीन लिया था, तब उन्‍होंने इस श्‍लोकाक गान किया था। देवताओं ! साधारण ध्‍वजकी भांति जिसकी धर्ममयी ध्‍वजा सदा ऊँचेतक फहराती रहती है; परंतु जिसके द्वारा गुप्‍त रूपसे पाप भी होते रहते हैं, उसके उव व्रतको विडालव्रत कहते हैं। नरेश्‍वर ! इस विषयमें तुम्‍हें यह उत्‍तम आख्‍यान सुना रहा हूं, जिसे नारदजीने मेरे पिताजीसे कहा था। राजन्‍ ! यह प्रसिद्ध है कि किसी समय एक दुष्‍ट बिलाव दोनों भुजाएं ऊपर किये गंगाजीके तटपर खडा रहा। वह किसी भी कार्यके लिये तनिक भी चेष्‍टा नहीं करता था। इस प्रकार समस्‍त देहधारियोंपर विश्‍वास जमानेके लिये वह सभी प्राणियोंसे यही कहा करता था कि अब मैं मानसिक शुद्धि करके– हिंसा छोड़कर धर्माचरण कर रहा हूं। राजन्‍ ! दीर्घकालके पश्‍चात्‍ धीरे-धीरे पक्षियोंने उसपर विश्‍वास कर दिया। अब वे उस बिलावके पास आकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पक्षियोंको अपना आहार बनानेवाला सह बिलाव जब उन समस्‍त पक्षियोंद्वारा अधिक आदर-सत्‍कार पाने लगा, तब उसने यह समझ लिया कि मेरा काम बन गया और मुझे धर्मानुष्‍ठानका भी अभीष्‍ट फल प्राप्‍त हो गया। तदन्‍तर बहुत समय के पश्‍चात उस स्‍थानमें चूहे भी गये। वहां जाकर उन्‍होंने कठोर मतका पालन करनेवाले उस धर्मात्‍मा बिलावको देखा। भारत ! दम्‍भयुक्‍त महान कर्मोंके अनुष्‍ठानमें लगे हुए उस बिलावको देखकर उनके मनमें यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ। हम सब लोगोंके बहुतसे मित्र हैं, अत: अब यह विबाल भी हमारा मामा होकर रहे और हमारे यहां जो वृद्ध तथा बालक है, उन सबकी सदा रक्षा करता रहे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।