महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-20

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सप्तदशो (17) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्‍तकवधपर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व : सप्तदशो अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

सुशर्मा आदि संशप्‍तक वीरों की प्रतिज्ञा तथा अर्जुन का युद्ध के लिये उनके निकट जाना

संजय कहते हैं– प्रथानाथ ! वे दोनों सेनाएँ अपने शिविर में जाकर ठहर गयी । जो सैनिक जिस विभाग और जिस सैन्‍यदल में नियुक्‍त थे, उसी में यथायोग्‍य स्‍थान पर जाकर सब ओर ठहर गये। सेनाओं को युद्ध से लौटाकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अत्‍यन्‍त दुखी हो दुर्योधन की ओर देखते हुए लज्जित होकर बोले। राजन् ! मैंने पहले ही कह दिया था कि अर्जुन के रहते हुए सम्‍पूर्ण देवता भी युद्ध में युधिष्ठिर को पकड़ नही सकते हैं। तुम सब लोगों के प्रयत्‍न करने पर भी उस युद्धस्‍थल में अर्जुन ने मेरे पूर्वोक्‍त कथन को सत्‍य कर दिखाया है। तुम मेरी बात पर संदेह न करना। वास्‍तव मे श्रीकृष्‍ण और अर्जुन मेरे लिये अजेय हैं। राजन ! यदि किसी उपाय से श्‍वेत वाहन अर्जुन दूर हटा दिये जाये तो ये राजा युधिष्ठिर मेरे वश में आ जायँगे। यदि कोई वीर अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारकर दूसरे स्‍थान में खींच ले जाये तो वह कुन्‍तीकुमार उसे परास्‍त किये बिना किसी प्रकार नही लौट सकता। नरेश्‍वर ! इस सूने अवसर में मैं धृष्‍टधुम्न के देखते-देखते पाण्‍डव सेना को विदीर्ण करके धर्मराज युधिष्ठिर को अवश्‍य पकड़ लूँगा। अर्जुन से अलग रहने पर यदि पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर मुझे निकट आते देख युद्धस्‍थल का परित्‍याग नहीं कर देगे तो तुम निश्‍चय समझों, वे मेरी पकड़ में आ जायँगे। महाराज ! यदि अर्जुन के बिना दो घड़ी भी युद्धभूमि में खड़े रहे तो मैं तुम्‍हारे लिये धर्मपुत्र पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को आज उनके गणों सहित अवश्‍य पकड़ लाऊँगा; इसमें संदेह नही है और यदि वे संग्राम से भाग जाते है तो यह हमारी विजय से भी बढ़कर है।

संजय कहते हैं– राजन ! द्रोणाचार्य का यह वचन सुनकर उस समय भाइयों सहित त्रिगर्तराज सुशर्मा ने इस प्रकार कहा। महाराज ! गाण्‍डीवधारी अर्जुन ने हमेशा हम लोगों का अपमान किया है । यदपि हम सदा निरपराध रहे है तो भी उनके द्वारा सर्वदा हमारे प्रति अपराध किया गया। हम पृथक-पृथक किये गये उन अपराधों को याद करके क्रोधाग्नि से दग्‍ध होते रहते है तथा रात में हमें कभी नींद नहीं आती है ।।१३।। अब हमारे सौभाग्‍य से अर्जुन स्‍वयं ही अस्‍त्र-शस्‍त्र धारण करके ऑखों के सामने आ गये हैं । इस दशा में हम मन-ही-मन जो कुछ करना चाहते थे, वह प्रतिशोधात्‍मक कार्य अवश्‍य करेंगे। उसने आपका तो प्रिय होगा ही, हम लोगों की सुयश की भी वृद्धि होगी। हम इन्‍हें युद्धस्‍थल से बाहर खींच ले जायँगे और मार डालेंगे। आज हम आपके सामने यह सत्‍य प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि यह भूमिया तो अर्जुन से सूनी हो जायेगी या त्रिगतों में से कोई इस भूतल पर नहीं रह जायगा । मेरा यह कथन कभी मिथ्‍या नही होगा। भरतनन्‍दन ! सुशर्मा के ऐसा कहने पर सत्‍यरथ, सत्‍यवर्मा, सत्‍यव्रत, सत्‍येषु तथा सत्‍यकर्मा नाम वाले उसके पॉच भाइयों ने भी इसी प्रतिज्ञा को दुहराया ।उनके साथ दस हजार रथियों की सेना भी थी । महाराज ! ये लोग युद्ध के लिये शपथ खाकर लौटे थे। महाराज ! ऐसी प्रतिज्ञा करके प्रस्‍थलाधिपति पुरूषसिंह त्रिगर्तज सुशर्मा तीस हजार रथियों सहित मालव, तुण्डिकेर, मावेलक, ललित्‍थ, मद्रकगण तथा दस हजार रथियों से युक्‍त अपने भाइयों के साथ युद्ध के लिये (शपथ ग्रहण करने को) गया। विभिन्‍न देशों से आये हुए दस हजार श्रेष्‍ठ महारथी भी वहॉ शपथ लेने के लिये उठकर गये । उन सबने पृथक-पृथक अग्निदेव की पूजा करके हवन किया तथा कुश के चीर और विचित्र कवच धारण कर लिये। कवच बाँधकर कुश-चीर धारण कर लेने के पश्‍चात् उन्‍होंने अपने अंगों में घी लगाया और मौवीं नाम‍क तृणविशेष की बनी हुई मेखला धारण की । वे सभी वीर पहले यज्ञ करके लाखों स्‍वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में बांट चुके थे। उन सबने पूर्वकाल में यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था, वे सभी पुत्र भगवान तथा पुण्‍यलोकों में जाने के अधिकारी थे, उन्‍होने अपने कर्तव्‍यों को पूरा कर लिया था । वे हर्षपूर्वक युद्ध में अपने शरीर का त्‍याग करने को अघत थे और अपने आपको यश एवं विजय से संयुक्‍त करने जा रहे थे। ब्रह्माचर्य पालन, वेदों के स्‍वाध्‍याय तथा पर्याप्‍त दक्षिणा वाले यज्ञों के अनुष्‍ठान आदि साधनों से जिन पुण्‍य लोकों की प्राप्ति होती है, उन सबमें वे उत्‍तम युद्ध के द्वारा ही शीघ्र पहुँचने की इच्‍छा रखते थे। ब्राह्माणों को भोजन आदि से तृप्‍त करके उन्‍हें अलग-अलग स्‍वर्णमुद्राओं, गौओं तथा वस्‍त्रों की दक्षिणा देकर परस्‍पर बातचीत करके उन्‍होंने वहॉ एकत्र हुए श्रेष्‍ठ ब्राह्माणों द्वारा स्‍वस्तिवाचन कराया, आशीर्वाद प्राप्‍त किया और हर्षोल्‍लासपूर्वक निर्मल जल का स्‍पर्श करके अग्नि को प्रज्‍वलित किया । फिर समीप आकर युद्ध का व्रत ले अग्नि के सामने ही दृढ़निश्‍चय पूर्वक प्रतिज्ञा की।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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