"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 23 श्लोक 18-27" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
देवी ने कहा- पाण्डुनन्दन । तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। दुर्घर्ष वीर। तुम तो साक्षात् नर हो। ये साक्षात् नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो। साक्षात् इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर करदायिनी देवी दुर्गा वहाँ से क्षणभर में अन्तर्धान हो गयीं। वह वरदान पाकर कुम्तीकुमार अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने परम सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए। फिर एक रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्‍णऔर अर्जुन ने अपने दिव्य शंक बजाये। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचों से कभी भय नहीं होता। शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतों वाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुल से भी उन्हें कोई भय नहीं होता है। इसका पाठ करने से विवाद में विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धन से मुक्त हो जाता है। वह दुर्गम संकट से अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं। वह संग्राम में सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, इसका पाठ करने वाला पुरुष आरोग्य और बल से सम्पन्न हो सौ वर्षों की आयु तक जीवित रहता है। यह सब परम बुद्धिमान् भगवान् व्यासजी के कृपा-प्रसाद से मैंने प्रत्यक्ष देखा है। राजन् आपके सभी दुरात्मा पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मोहवश यह नहीं जानते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन ही साक्षात् नर-नारायण ऋषि हैं। वे कालपाश से बद्ध होने के कारण इस समयोचित बात को बताने पर भी नहीं सुनते। द्वैपायन व्यास, नारद, कण्व तथा पापशून्य परशुराम ने तुम्हारे पुत्र को बहुत रोका था, परंतु उसने उनकी बात नहीं माना। जहाँ न्यायोचित बर्ताव, तेज और कान्ति है, जहाँ ही श्री और बुद्धि हो तथा जहाँ धर्म विद्यामान है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।  
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देवी ने कहा- पाण्डुनन्दन । तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। दुर्घर्ष वीर। तुम तो साक्षात् नर हो। ये साक्षात् नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो। साक्षात् इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर करदायिनी देवी दुर्गा वहाँ से क्षणभर में अन्तर्धान हो गयीं। वह वरदान पाकर कुम्तीकुमार अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने परम सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए। फिर एक रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्‍णऔर अर्जुन ने अपने दिव्य शंक बजाये। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचों से कभी भय नहीं होता। शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतों वाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुल से भी उन्हें कोई भय नहीं होता है। इसका पाठ करने से विवाद में विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धन से मुक्त हो जाता है। वह दुर्गम संकट से अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं। वह संग्राम में सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, इसका पाठ करने वाला पुरुष आरोग्य और बल से सम्पन्न हो सौ वर्षों की आयु तक जीवित रहता है। यह सब परम बुद्धिमान् भगवान् व्यासजी के कृपा-प्रसाद से मैंने प्रत्यक्ष देखा है। राजन् आपके सभी दुरात्मा पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मोहवश यह नहीं जानते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन ही साक्षात् नर-नारायण ऋषि हैं। वे कालपाश से बद्ध होने के कारण इस समयोचित बात को बताने पर भी नहीं सुनते। द्वैपायन व्यास, नारद, कण्व तथा पापशून्य परशुराम ने तुम्हारे पुत्र को बहुत रोका था, परंतु उसने उनकी बात नहीं माना। जहाँ न्यायोचित बर्ताव, तेज और कान्ति है, जहाँ ही श्री और बुद्धि हो तथा जहाँ धर्म विद्यामान है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।  
  
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपव्र के अन्‍तर्गत संवादविषयक तेईसवांअध्‍याय पूरा हुआ।</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपव्र के अन्‍तर्गत संवादविषयक तेईसवांअध्‍याय पूरा हुआ।</div>

०६:२९, १० जुलाई २०१५ का अवतरण

त्रयोविंश अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद

देवी ने कहा- पाण्डुनन्दन । तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। दुर्घर्ष वीर। तुम तो साक्षात् नर हो। ये साक्षात् नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो। साक्षात् इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर करदायिनी देवी दुर्गा वहाँ से क्षणभर में अन्तर्धान हो गयीं। वह वरदान पाकर कुम्तीकुमार अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने परम सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए। फिर एक रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्‍णऔर अर्जुन ने अपने दिव्य शंक बजाये। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचों से कभी भय नहीं होता। शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतों वाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुल से भी उन्हें कोई भय नहीं होता है। इसका पाठ करने से विवाद में विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धन से मुक्त हो जाता है। वह दुर्गम संकट से अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं। वह संग्राम में सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, इसका पाठ करने वाला पुरुष आरोग्य और बल से सम्पन्न हो सौ वर्षों की आयु तक जीवित रहता है। यह सब परम बुद्धिमान् भगवान् व्यासजी के कृपा-प्रसाद से मैंने प्रत्यक्ष देखा है। राजन् आपके सभी दुरात्मा पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मोहवश यह नहीं जानते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन ही साक्षात् नर-नारायण ऋषि हैं। वे कालपाश से बद्ध होने के कारण इस समयोचित बात को बताने पर भी नहीं सुनते। द्वैपायन व्यास, नारद, कण्व तथा पापशून्य परशुराम ने तुम्हारे पुत्र को बहुत रोका था, परंतु उसने उनकी बात नहीं माना। जहाँ न्यायोचित बर्ताव, तेज और कान्ति है, जहाँ ही श्री और बुद्धि हो तथा जहाँ धर्म विद्यामान है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपव्र के अन्‍तर्गत संवादविषयक तेईसवांअध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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