"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-21" के अवतरणों में अंतर

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त्रिचत्वारिंश (43) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

गीता का महात्म्य तथा युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य से अनुमति लेकर युद्ध के लिये तैयार होना

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने की क्या आवश्यकता है। गीता का ही अच्छी तरह से गान (श्रवण, कीर्तन, पठन-पाठन, मनन और धारण) करना चाहिये; क्योकि वह स्वयं पद्भनाथ भगवान् के साक्षात् मुखकमल से निकली हुई है। गीता सर्वशास्त्रमयी है (गीता में सब शास्त्रों के सार-तत्व का समावेश है) । भगवान् श्रीहरि सर्वदेवमय है । गंगा सर्वतीर्थमयी है और मनु (उनका धर्मशास्त्र) सर्व वेदमय हैं। गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द-इन ‘ग’ कारयुक्त चार नामों को ह्रदय में धारण कर लेने पर मनुष्यका फिर इस संसार में जन्म नही होता। इस गीता में छःसौ बीस श्लोक भगवान् श्रीकृष्ण ने कहे हैं, सत्तावन श्लोक अर्जुन के कहे हुए है, सडसठ श्लोक संजय ने कहे है और एक श्लोक धृतराष्ट कहा हुआ है, यह गीता का मान बताया जाता है।भारतरूपी अमृतराशिके सर्वस्व सारभूत गीता का मन्थन करके उसका सार निकालकर श्रीकृष्ण अर्जुन के मुख में (कानोंद्वारा मन-बुद्धि में ) डाल दिया है। संजय कहते है-राजन्! तदनन्तर अर्जुन को गाण्डीव धनुष और धारण किये देख पाण्डव महारथियों, सोमको तथा उनके अनुगामी सैनिकोंने पुनः बडे़ जोर से सिंहनाद किया। साथ ही उन सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक समुद्र प्रकट होनेवाले शंखों को बजाया।तदनन्तर भेरी, पेशी, क्रकच और नरसिंहे आदि बाजे सहसा बज उठे। इससे वहां महान् शब्द गूंजने लगा। नरेश्वर! उस समय देवता, गन्धर्व, पितर, सिद्ध, चारण तथा महाभाग महर्षिगण देवराज इन्द्र को आगे करके उस भीषण मार-काटकों देखने के लिये एक साथ वहां आये। राजन्! तदनन्तर वीर राजा युधिष्ठिर ने समुद्र के समान उन दोनों सेनाओं को युद्ध के लिये उपस्थित और चंचल हुई देख कवच खोलकर अपने उत्तम आयुधों को नीचे डाल दिया और यथ से शीध्र उतरकर वे पैदल ही हाथ जोडे़ पितामह भीष्म को लक्ष्य करके चल दिये। धर्मराज युधिष्ठिर मौन एवं पूर्वाभिमुख हो शत्रुसेना की और चले गये। कुन्तीपुत्र धनंजय उन्हे शत्रु-सेनाकी ओर जाते देखतुरन्त रथ के ऊपर पडे़ और भाईयो सहित उनके पीछे-पीछे जाने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण भी उनके पीछे गये तथा उन्हीं में चित्त लगाये रहने वाले प्रधान-प्रधान राजा भी उत्सुक होकर उनके साथ गये। अर्जुन ने पूछा-राजन् ! आपने क्या निश्चय किया है कि हम लोगों को छोड़कर आप पूर्वाभिमुख हो पैदल ही शत्रुसेना की और चल दिये है। भीमसेन ने भी पूछा-महाराज! पृथ्वीराज! कवच और आयुध नीचे डालकर भाईयों को भी छोड़कर कवच आदि से सुसज्‍ज्‍ति हुई शत्रु-सेना में कहां जायेंगे ? नकुल ने पूछा- भारत ! भारत आप मेरे बडे़ भाई है। आपके इस प्रकार शत्रु सेना की और चल देने पर भारी भय मेरे ह्रदय को पीडित कर रहा है। बताईये, आप कहां जायेंगे ? सहदेव ने पूछा- नरेश्वर! इस रणक्षेत्र में जहां शत्रु सेना का समुह जुटा हुआ है और महान् भय उपस्थित है, आप हमे छोड़कर शत्रुओं की ओर कहां जायेंगे? संजय कहते है- राजन् ! भाईयों के इस प्रकार कहने पर भी कुरूकुल को आनन्दित करनेवाले राजा युधिष्ठिर उनसे कुछ नही बोले। चुपचाप चलते ही गये। तब परम बुद्धिमान महामना भगवान् वासुदेव ने उन चारों भाईयों से हंसते हुएसेकहा- ‘इनका अभिप्राय मुझे ज्ञात हो गया है’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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