"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 60-77" के अवतरणों में अंतर

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त्रिचत्वारिंश (43) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 60-77 का हिन्दी अनुवाद

यहां धर्म है, यहां श्रीकृष्ण है और जहां श्रीकृष्ण है, वही विजय है। कुन्तीकुमार! जाओ, युद्ध करो । और भी पूछो, तुम्हें क्या बताऊॅ। युधिष्ठिर बोले- द्विजश्रेष्ठ! मै आपसे पूछता हूं। आप मेरे मनोवांछित प्रश्नों को सुनिये। आप किसी से भी परास्त होने वाले नही हैं; फिर आपको मैं युद्ध में कैसे जीत सकुंगा ? द्रोणाचार्य बोले- राजन्! मैं जब तक समरभूमि मैं युद्ध करूंगा, तब तक तुम्हारी विजय नही हो सकती। तुम अपने भाईयों सहित ऐसा प्रयत्न करो, जिससे शीघ्र मेरी मृत्यु हो जाये। युधिष्ठिर बोले- महाबाहु आचार्य ! इसलिये अब आप अपने वध का उपाय मुझे बताईये। आपको नमस्कार है। मै आपके चरणों में प्रणाम करके यह प्रश्न कर रहा हूं। द्रोणाचार्य बोले- तात! जब मैं रथपर बैठकर कुपित हो बाणों की वर्षा करते हुए युद्ध में संलग्न रहूं उस समय जो मुझे मार सके, ऐसे किसी शत्रु को नही देख रहा हूं। राजन्! जब मैं हथियार डालकर अचेत-सा होकर आमरण अनशन के लिये बैठ जाऊॅ, उस अवस्था को छोडकर और किसी समय कोई मुझे और किसी समय कोई मुझे नही मार सकता। उसी अवस्था में कोई श्रेष्ठ योद्धा युद्ध में मुझे मार सकता है; यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूं। यदि मैं किसी विश्वसनीय पुरूष से युद्धभूमि में कोई अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन लूं तो हथियार नीचे डाल दूंगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूं। संजय कहते है- महाराज! परम बुद्धिमान् द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर उनका सम्मन करके राजा युधिष्ठिर कृपाचार्य के पास गये। उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात् वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने दुर्द्धर्ष वीर कृपाचार्य से कहा-‘निष्पाप गुरूदेव ! मै पापरहित रहकर आपके साथ युद्ध कर सकूं, इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूं। आपका आदेश पाकर मैं समस्त शत्रुओ को संग्राम में जीत सकता हूं। कृपाचार्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चर्य कर लेने पर तुम मेरे पास नही आते तो मै तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये तुम्हे शाप दे देता। पुरूष अर्थ का दास है, अथ किसी का दास नही है। महाराज! यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूं। महाराज! मै निश्चय कर चुका हूं कि मुझे उन्‍हींके लिये युद्ध करना है; अतः तुमसे नपुंसक की तरह पूछ रहा हूं कि तुम युद्ध सम्बन्धी सहयोग को छोड़कर मुझसे क्या चाहते हो ? युधिष्ठिर बोले- आचार्य! इसलिये अब मै आपसे पूछता हूं। आप मेरी बात सुनिये। इतना कहकर राजा युधिष्ठिर व्यथित और अचेत-से होकर उनसे कुछ भी न बोल सके। संजय कहते है-पृथ्वीपते! कृपाचार्य यह समझ गये कि युधिष्ठिर क्या कहना चाहते है; अतः उन्होनें उनसे इस प्रकार कहा-‘राजन्! मै अवध्य हूं। जाओ, युद्ध करो और विजय प्राप्त करो। ‘नरेश्वर! तुम्हारे इस आगमन से बड़ीप्रसन्नता हुई है; अतः सदा उठकर मैं तुम्हारी विजय के लिये शुभकामना करूंगा। यह तुमसे सच्ची बात कहता हूं। महाराज! प्रजानाथ! कृपाचार्य की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी अनुमति ले जहां मद्रराज शल्य थे, उस और चले गये।दुर्जय वीर शल्य को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात् राजा युधिष्ठिर ने उनसे अपने हित की बात कही।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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