"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 78-94" के अवतरणों में अंतर
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१२:२४, २६ जुलाई २०१५ का अवतरण
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
‘दुर्धर्ष वीर! मै पापरहित एवं निरपराध रहकर आपके साथ युद्ध करूंगा; इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूं। राजन् ! आपकी आज्ञा पाकर मैं समस्त शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर सकता हूं’।शल्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नही आते तो मैं युद्ध में तुम्हारी पराजय के लिये तुम्हे शाप दे देता। अब मैं बहुत संतुष्ट हूं। तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया। तुम जो चाहते हो, वह पूर्ण हो। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध करो ओर विजय प्राप्त करो। वीर! तुम कुछ ओर बताओ, किस प्रकार तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा ? मैं तुम्हें क्या दूं? महाराज! इस परिस्थिति में युद्ध विषयक सहयोग को छोड़कर तुम मुझसे और क्या चाहते हो ? पुरूष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नही है। महाराज! यह सच्ची बात है। कौरवों के द्वारा मैं अर्थसे बॅधा हुआ हूं। इसलिये मैं तुमसे नपुंसक की भॉति कह रहा हूं। बताओ, तुम युद्धविषयक सहयोग के सिवा और क्या चाहते हो ? मेरे भानजे ! मैं तुम्हारा अभीष्ठ मनोरथ पूर्णकरूंगा।युधिष्ठिर बोले- महाराज! मैं आपसे यही वर मॉगताहूं कि आप प्रतिदिन उत्तम हित की सलाह मुझे देते रहे। अपने इच्छानुसार युद्ध दूसरे के लिये करे।शल्य बोले-नृपश्रेष्ठ! बताओ, इस विषयमें मैं तुम्हारी क्या सहायता करूं? कौरवों द्वारा मैं अर्थ से बॅधा हुआ हूं; अतः अपने इच्छानुसार युद्ध तो मैं तुम्हारे विपक्षी की और से ही करूंगा।युधिष्ठिर बोले-मामाजी! जब युद्ध के लिये उद्योगचल रहा था, उन दिनों आपने मुझे जो वर दिया था, वही वर आज भी मेरे लिये आवश्यक है। सुतपुत्र को अर्जुन के साथ युद्ध हो तो उस समय आपको उसका उत्साह नष्ट करना चाहिये। मामाजी! मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि उस युद्ध में दुर्योधन आप-जैसे शुरवीर को सूतपूत्र के सारथी का कार्य करने के लिये अवश्य नियुक्त करेगा। शल्य बोले-कुन्तीनन्दन! तुम्हारा यह अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। जाओ, निश्चिन्त होकर युद्ध करो। मैं तुम्हारे वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा करता हूं। संजय कहते हैं- राजन्! इस प्रकार अपने मामा मद्रराज शल्य की अनुमति लेकर भाईयों से घिरे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर उस विशाल सेना से बाहर निकल गये।इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण उस युद्ध में राधानन्दन कर्ण के पास गये। वहां जाकर उन गजाग्रज ने पाण्डवों के हित के लिये उससे इस प्रकार कहा। ‘कर्ण ! मैंने सुना है, तुम भीष्म से द्वेष होने के कारण युद्ध नही करोगे। राधानन्दन ! ऐसी दशा में जबतक भीष्म मारे नही जाते हैं, तबतक हमलोगों का पक्ष ग्रहण कर लो। ‘राधेय! जब भीष्म मारे जायें, उसके बाद तुम यदि ठीक समझो तो युद्ध में पुनः दुर्योधन की सहायता के लिये चले जाना’।कर्ण बोला- केशव! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं दुर्योधन की हितैषी हूं। उसके लिये अपने प्राणों को निछावर किये बैठा हूं; अतः मै उसका अग्रिम कदापि नही करूंगा। संजय कहते हैं- भारत! कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण लौट आये और युधिष्ठिर आदि पाण्डवों से जा मिले। तदनन्तर ज्येष्ठ पाण्ड युधिष्ठिरने सेना के बीच में खडे़ होकर पुकारा-‘जो कोई वीर सहायता के हमारे पक्ष में आना स्वीकार करे, उसे मैं भी स्वीकार करूंगा।
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