"महाभारत वन पर्व अध्याय 11 श्लोक 22-38" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के ५ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
==  एकादश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)==
+
==  एकादश (11) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
{| style="background:none;" width="100%" cellspacing="30"
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत वनपर्व एकादश अध्याय श्लोक 30-55</font>
 
|-
 
| style="width:50%; text-align:justify; padding:10px;" valign="top"|
 
‘मैं प्रतिदिन हथियार उठाये [[भीम|भीमसेन]] का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था। ‘आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है,मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन् ! इसने(एक चक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपट वेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्या बल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था। ‘इस प्रकार वन में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्ब को भी इस दुरात्मा ने मार डाला और उसकी बहिन-का अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहले की बातें हैं। ‘वही  यह मूढ़ भीमसेन हम लोगों के घूमने-फिरने की बेला में आधी रात के समय मेरे इस गहन वन में आ गया है। ‘आज इससे मैं उस पुराने वैर का बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्त से बकासुर का तर्पण करूँगा। ‘आज मैं राक्षसों के लिये कण्टक रूप इस भीमसेन को मारकर अपने भाई तथा मित्र के ऋण से उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा। ‘[[युधिष्ठिर]] ! यदि पहले बकासुर ने भीमसेन को छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे खा जाऊँगा। जैसे [[ अगस्त्य|महर्षि अगस्त्य]] ने वातापिनामक महान् राक्षस को खाकर पचा लिया, उसी प्रकार मैं भी इस ‘महाबली भीम को मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा‘। उसके कहने पर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने कुपित हो उस राक्षस को फटकारते हुए कहा- ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता‘।
 
  
तदनन्तर महाबाहु भीमसेन ने बड़े वेग से हिलाकर एक दस व्याम  लम्बे<ref>दोनों भुजाओं के दोनों ओर फैलाने पर एक हाथ की अँगुलियों के सिर से दूसरे हाथ की अँगुलियों के सिरे तक जितनी दूरी होती है, उसे ‘व्याम‘ कहते हैं। यही पुरुष प्रमाण है। इसकी लम्बाई लबभग 3 ½  हाथ की होती है। </ref> वृक्ष को उखाड़ लिया और उसके पत्ते झाड़ दिये। इधर विजयी [[अर्जुन]] ने भी पलक मारते-मारते अपने उस गाण्डीव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी, जिसे वज्र को भी पीस डालने का गौरव था। भारत ! भीमसेन ने अर्जुन को रोक दिया और मेघ के समान गर्जना करने वाले उस राक्षस पर आक्रमण करते हुए कहा-‘अरे ! खड़ा रह, खड़ा रह‘। ऐसा कहकर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए बलवान पाण्डु-नन्दन भीमसेन ने वस्त्र से अच्छी तरह अपनी कमर कस ली औार हाथ से हाथ रगड़कर दाँतों से होंठ चबाते हुए वृक्ष को ही आयुध बनाकर बड़े वेग से उसकी तरफ दौड़े और जैसे इन्द्र वज्र का प्रहार करते हैं, उसी प्रकार यमदण्ड के समान उस भयंकर वृक्ष को राक्षस के मस्तक पर उन्होंने बड़े जोर से मारा । तो भी वह निशाचर युद्ध में अविचल भाव से खड़ा दिखायी दिया। तत्पश्चात् उसने भी प्रज्वलित वज्र के समान जलता हुआ काठ भीम के ऊपर फेंका, परंतु योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम ने उस जलते काठ को अपने बाँयें पैर से मारकर इस तरह फेंका, कि वह पुनः उस राक्षस पर ही जा गिरा। फिर तो किर्मीर ने भी सहसा एक वृक्ष उखाड़ लिया और क्रोध में भरे हुए दण्डपाणि यमराज की भाँति उस युद्ध में पाण्डुकुमार भीम पर आक्रमण किया।
+
‘तुम कौन हो , किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाये? यह सब बताओ।‘ तब उस राक्षस ने धर्मराज [[युधिष्ठिर]] से कहा- ‘मैं बका का का भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवन में निवास करता हूँ। यहाँ मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। ‘यहाँ आये हुए मनुष्यों को युद्ध में जीतकर सदा उन्हीं को खाया करता हूँ। तुम लोग कौन हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बनने के लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सब को युद्ध में परास्त करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा।'
  
जैसे पूर्वकाल में स्त्री की अभिलाषा रखने बाली और [[सुग्रीव]] दोनों भाइयों में भारी युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उन दोनों का वह वृक्ष-युद्ध वन के वृक्षों का विनाशक था। जैसे दो मत वाले गजराजों के मस्तक पर पड़े हुए कमल-पत्र क्षण भर में छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते हैं, वैसे ही उन दोनों के मस्तक पर पड़े हुए वृक्षों के अनेक टुकड़े हो जाते थे।
+
'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - भारत ! उस दुरात्मा की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे गोत्र एवं नाम आदि सब बातों का परिचय दिया।
वहाँ उस महान् वन में बहुत-से वृक्ष मूँज की भाँति जर्जर हो गये थे। वे फटे चीथड़ों की तरह इधर-उधर फैले हुए सुशोभित होते थे। भरत श्रेष्ठ ! राक्षसराज किर्मीर और मनुष्यों में भीमसेन का वह वृक्ष युद्ध दो घड़ी तक चलता रहा। तदनन्तर राक्षस ने कुपित हो राक्षस ने कूपित हो एक पत्थर की चट्टान लेकर युद्ध में खडे. हुए भीमसेन पर चलायी। भीम उसके प्रहार से जडवत् हो गये। वे शिला के आघात से जडवत् हो रहे थे। उस अवस्था में वह राक्षस [[भीम|भीमसेन]] की ओर उसी तरह दौड़ा जैसे राहु अपनी भुजाओं से सूर्य की किरणों का निवारण करते हुए उन-पर आक्रमण करता है। वे दोनों वीर परस्पर भिड़ गये और दोनों दोनोंको खींचने लगे। दो ह्रष्ट-पुष्ट की भाँति परस्पर भिड़े हुए उन दोनों योद्धाओं की बड़ी शोभा हो रही थी। नख और दाढ़ो से ही आयुधा का काम लेने वाले दो उन्मत्त व्याघ्रों की भाँति उन दोनों में अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युंद्ध छिड़ा हुआ था। दुर्योधन के द्वारा प्राप्त हुए तिरस्कार से तथा अपने बाहुबल से भीमसेन का शौर्य एवं अभिमान जाग उठा था। इधर [[द्रौपदी]] भी प्रेमपूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देख रही थी; अतः वे उस युद्ध में  उत्तरोत्तर उत्साहित हो रहे थे।
 
  
|}
+
'''युधिष्ठिर बोले'''- मैं पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानों में भी पड़ा हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओं ने जुए में हरण कर लिया है। अतः मैं [[भीम|भीमसेन]], [[अर्जुन]] आदि सब भाइयों के साथ वन में रहने का निश्चय करके तुम्हारे निवास स्थान इस घोर काम्ययकवन में आया हूँ।
  
{{लेख क्रम |पिछला= महाभारत वनपर्व अध्याय 10 श्लोक 23- 39|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 11 श्लोक 56-75 }}
+
'''विदुरजी कहते हैं''' - राजन ! जब किर्मीर ने युधिष्ठिर से कहा- ‘आज सौभाग्यवश देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनों के मनोरथ की पूर्ति कर दी। ‘मै प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेन का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था। ‘आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है, मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन ! इसने(एक चक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपट वेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्या बल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था।
 +
 
 +
‘मैं प्रतिदिन हथियार उठाये [[भीम|भीमसेन]] का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था।' ‘आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है,मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन ! इसने(एक चक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपटवेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्याबल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था। ‘इस प्रकार वन में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्ब को भी इस दुरात्मा ने मार डाला और उसकी बहिन का अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहले की बातें हैं। ‘वही  यह मूढ़ भीमसेन हम लोगों के घूमने-फिरने की बेला में आधी रात के समय मेरे इस गहन वन में आ गया है।' ‘आज इससे मैं उस पुराने वैर का बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्त से बकासुर का तर्पण करूँगा।' ‘आज मैं राक्षसों के लिये कण्टक रूप इस भीमसेन को मारकर अपने भाई तथा मित्र के ऋण से उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा। ‘[[युधिष्ठिर]] ! यदि पहले बकासुर ने भीमसेन को छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे खा जाऊँगा। जैसे [[ अगस्त्य|महर्षि अगस्त्य]] ने वातापि नामक महान राक्षस को खाकर पचा लिया, उसी प्रकार मैं भी इस ‘महाबली भीम को मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा।' 'उसके कहने पर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने कुपित हो उस राक्षस को फटकारते हुए कहा- ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता।'
 +
 
 +
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-21|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 11 श्लोक 39-55}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
+
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

१३:२१, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकादश (11) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद

‘तुम कौन हो , किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाये? यह सब बताओ।‘ तब उस राक्षस ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘मैं बका का का भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवन में निवास करता हूँ। यहाँ मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। ‘यहाँ आये हुए मनुष्यों को युद्ध में जीतकर सदा उन्हीं को खाया करता हूँ। तुम लोग कौन हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बनने के लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सब को युद्ध में परास्त करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा।'

वैशम्पायनजी कहते हैं - भारत ! उस दुरात्मा की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे गोत्र एवं नाम आदि सब बातों का परिचय दिया।

युधिष्ठिर बोले- मैं पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानों में भी पड़ा हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओं ने जुए में हरण कर लिया है। अतः मैं भीमसेन, अर्जुन आदि सब भाइयों के साथ वन में रहने का निश्चय करके तुम्हारे निवास स्थान इस घोर काम्ययकवन में आया हूँ।

विदुरजी कहते हैं - राजन ! जब किर्मीर ने युधिष्ठिर से कहा- ‘आज सौभाग्यवश देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनों के मनोरथ की पूर्ति कर दी। ‘मै प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेन का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था। ‘आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है, मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन ! इसने(एक चक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपट वेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्या बल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था।

‘मैं प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेन का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था।' ‘आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है,मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन ! इसने(एक चक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपटवेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्याबल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था। ‘इस प्रकार वन में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्ब को भी इस दुरात्मा ने मार डाला और उसकी बहिन का अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहले की बातें हैं। ‘वही यह मूढ़ भीमसेन हम लोगों के घूमने-फिरने की बेला में आधी रात के समय मेरे इस गहन वन में आ गया है।' ‘आज इससे मैं उस पुराने वैर का बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्त से बकासुर का तर्पण करूँगा।' ‘आज मैं राक्षसों के लिये कण्टक रूप इस भीमसेन को मारकर अपने भाई तथा मित्र के ऋण से उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा। ‘युधिष्ठिर ! यदि पहले बकासुर ने भीमसेन को छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे खा जाऊँगा। जैसे महर्षि अगस्त्य ने वातापि नामक महान राक्षस को खाकर पचा लिया, उसी प्रकार मैं भी इस ‘महाबली भीम को मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा।' 'उसके कहने पर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने कुपित हो उस राक्षस को फटकारते हुए कहा- ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता।'


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।