"महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 19-38" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के ३ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
==   द्वादश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)==
+
==द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
{| style="background:none;" width="100%" cellspacing="30"
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत वनपर्व द्वादश अध्याय श्लोक 33- 62 का हिन्दी अनुवाद</font>
 
|-
 
| style="width:50%; text-align:justify; padding:10px;" valign="top"|
 
इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओं को आपने युद्ध में मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औरों के भी नाम सुनिये। इरावती के तट पर आपने कार्तवीर्य [[अर्जुन]] के सदृश पराक्रमी भोज को युद्ध में मार गिराया। गोपति और तालकेतु-- ये दोनों भी आपके हाथों से मारे गये। जनार्दन ! भोग सामग्रियों से सम्‍पन्‍न तथा ऋषिमुनियों की प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरी को अन्त में समुद्र में विलीन कर देंगे। [[मधुसूदन]] ! वास्तव में तो आप में तो न क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशार्ह ! फिर आप में कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत ! महल के मध्य भाग में बैठे और अपने तेज से उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियों ने अभय की याचना की। परंतप मधुसूदन ! प्रलयकाल में समस्त भूतों का संहार करके इस जगत को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं। वार्ष्णेय ! सृष्टि के प्रारम्भ काल में आपके नाभिकमल से चराचर गुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत है। जब [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्री हरि के ललाट- से [[ शंकर|भगवान शंकर]] का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्म और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारदजी ने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण ! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान पुण्डरीकाक्ष ! आप महान बलवान हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलाश पर्वत पर भी रहे हैं।
 
  
'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''- जनमेजय ! [[कृष्ण|श्री कृष्ण]] के आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये । तब भगवान जनार्दन ने [[कुन्ती]] कुमार से इस प्रकार कहा-- ‘पार्थ  ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। ‘दुर्द्धर्ष वीर ! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर- नारायण ऋषि ही इस लोक में आये है।' ‘कुन्तीकुमार ! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता।'
+
सम्पूर्ण लोकों पर विजय पाने वाले लोकेश्वर प्रभु ने वह कर्म करके सामना करने के लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवों का युद्धस्थल में वध किया। महाबाहु केशव ! तदनन्तर शचीपति को सर्वेश्वर पद प्रदान करके आप इस समय मनुष्यों में प्रकट हुए हैं। परंतप ! पुरुषोत्तम ! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूप में प्रकट हुए, ब्रह्म, सोम, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं। [[मधुसूदन]] श्रीकृष्ण ! आपने चैत्ररथ वन में अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। आप सबके उत्तम आश्रय,देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं। जनार्दन ! उस  समय आपने प्रत्येक यज्ञ के रूप में पृथक-पृथक एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में दीं।
  
'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - जनमेजय ! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई [[पांचाल]] राजकुमारी [[द्रौपदी]] भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।
+
यदुनन्दन ! आप [[अदिति]] के पुत्र हो, इन्द्र के छोटे भाई होकर सर्वव्यापी [[विष्णु]] के नाम से विख्यात हैं। परंतप !  श्रीकृष्ण ! आपने वामन अवतार के समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेज से तीन डगों द्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक--तीनों को नाप लिया। भूतात्मन ! आप ने सूर्य के रथ पर स्थित हो द्युलोक और आकाश में व्याप्त होकर अपने तेज से भगवान भास्कर को भी अत्यन्त प्रकाशित किया है। विभो ! आपने सहस्त्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारों में सैकडों असुरों का, जो अधर्म में रुचि रखने वाले थे, वध किया है। आपने मुर दैत्य के लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुर को मार डाला और पुनः प्राग्ज्योतिष पुर का मार्ग सकुशल यात्रा करने योग्य बना दिया। भगवन ! आपने जारूथी नगरी में आहुति, क्राथ साथियों सहित शिशुपाल, जरासंध, शैब्य और शतधन्वा को परास्त किया। इसी प्रकार मेघ के समान घर्घर शब्द करने वाले सूर्य-तुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा कुण्डिनपुर में जाकर आपने रुक्‍मी को युद्ध में जीता और भोजवंशी कन्या रुक्मिणी को अपनी पटरानी के रूप  में प्राप्त किया। प्रभो ! आपने क्रोध से इन्द्रद्युम्न को मारा और यवन जातीय कसेरुमान एवं सौभपति शाल्व को भी पहुँचा दिया। साथ ही शाल्व के सौभ विमान को भी छिन्न-भिन्न करके धरती पर गिरा दिया।
  
'''द्रौपदी ने कहा''' - प्रभो ! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत का सृष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवकाल का यही मत है। दुर्द्धष [[मधुसूदन]] ! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्री हरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन [[परशुराम]] का कथन है। पुरुषोत्तम ! कश्यपजी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर ! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के ईश्वर [[नारद|नारदजी]] ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है,उसी प्रकार आप ब्रह्मा, [[इन्द्र]] आदि देवताओं से बारम्बार क्रीड़ा करते रहते हैं। प्रभो ! स्वर्गलोक आपके मस्तक में और पृथ्वी आपके चरणों में व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्मज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परमश्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम ! युद्ध में कभी पीठ दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो ( सबके स्वामी ), आप ही विभु ( सर्वव्यापी ) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं। लोक, लोकपाल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, आकाश चन्द्रमा और सूर्य सब आप में प्रतिष्ठित हैं। महाबाहो ! भूलोक के प्राणियों की मृत्युपरवशता, देवताओं की अमरता तथा सम्पूर्ण जगत का कार्य सब कुछ आप में ही प्रतिष्ठित है।
+
इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओं को आपने युद्ध में मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औरों के भी नाम सुनिये। इरावती के तट पर आपने कार्तवीर्य [[अर्जुन]] के सदृश पराक्रमी भोज को युद्ध में मार गिराया। गोपति और तालकेतु-- ये दोनों भी आपके हाथों से मारे गये। जनार्दन ! भोग सामग्रियों से सम्‍पन्‍न तथा ऋषिमुनियों की प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरी को अन्त में समुद्र में विलीन कर देंगे। [[मधुसूदन]] ! वास्तव में तो आप में तो न क्रोध है, मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशार्ह ! फिर आप में कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत ! महल के मध्य भाग में बैठे और अपने तेज से उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियों ने अभय की याचना की। परंतप मधुसूदन ! प्रलयकाल में समस्त भूतों का संहार करके इस जगत को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं। वार्ष्णेय ! सृष्टि के प्रारम्भ काल में आपके नाभिकमल से चराचर गुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत है।
मधुसूदन ! मैं आपके प्रति प्रेम होने के कारण आपसे अपना दुःख निवेदन करूँगी; क्योंकि दिव्य और मानव जगत में जितने भी प्राणी हैं; उन सबके ईश्वर आप ही हैं। भगवान कृष्ण ! मेरे-जैसी स्त्री को कुन्ती पुत्रों की पत्नी, आपकी सखी और धृष्टद्युम्न-जैसे वीर की बहिन हो, क्या किसी तरह सभा में ( केश पकड़कर ) घसीटकर लायी जा सकती है?। मैं राजबाला थी, मेरे कपड़ों पर रक्त के छींटे लगे थे, शरीर पर एक ही वस्त्र था और लज्जा एवं भय से मैं थर-थर काँप रही थी। उस दशा में मुझ दुखिनी अबला को कौरवों की सभा में घसीटकर लाया गया था।
 
  
|}
+
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-18|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 39-57}}
 
 
 
 
{{लेख क्रम |पिछला= महाभारत वनपर्व अध्याय 12 श्लोक 1- 32|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 12 श्लोक 63-90 }}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
+
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

१३:२३, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद

सम्पूर्ण लोकों पर विजय पाने वाले लोकेश्वर प्रभु ने वह कर्म करके सामना करने के लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवों का युद्धस्थल में वध किया। महाबाहु केशव ! तदनन्तर शचीपति को सर्वेश्वर पद प्रदान करके आप इस समय मनुष्यों में प्रकट हुए हैं। परंतप ! पुरुषोत्तम ! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूप में प्रकट हुए, ब्रह्म, सोम, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं। मधुसूदन श्रीकृष्ण ! आपने चैत्ररथ वन में अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। आप सबके उत्तम आश्रय,देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं। जनार्दन ! उस समय आपने प्रत्येक यज्ञ के रूप में पृथक-पृथक एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में दीं।

यदुनन्दन ! आप अदिति के पुत्र हो, इन्द्र के छोटे भाई होकर सर्वव्यापी विष्णु के नाम से विख्यात हैं। परंतप ! श्रीकृष्ण ! आपने वामन अवतार के समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेज से तीन डगों द्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक--तीनों को नाप लिया। भूतात्मन ! आप ने सूर्य के रथ पर स्थित हो द्युलोक और आकाश में व्याप्त होकर अपने तेज से भगवान भास्कर को भी अत्यन्त प्रकाशित किया है। विभो ! आपने सहस्त्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारों में सैकडों असुरों का, जो अधर्म में रुचि रखने वाले थे, वध किया है। आपने मुर दैत्य के लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुर को मार डाला और पुनः प्राग्ज्योतिष पुर का मार्ग सकुशल यात्रा करने योग्य बना दिया। भगवन ! आपने जारूथी नगरी में आहुति, क्राथ साथियों सहित शिशुपाल, जरासंध, शैब्य और शतधन्वा को परास्त किया। इसी प्रकार मेघ के समान घर्घर शब्द करने वाले सूर्य-तुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा कुण्डिनपुर में जाकर आपने रुक्‍मी को युद्ध में जीता और भोजवंशी कन्या रुक्मिणी को अपनी पटरानी के रूप में प्राप्त किया। प्रभो ! आपने क्रोध से इन्द्रद्युम्न को मारा और यवन जातीय कसेरुमान एवं सौभपति शाल्व को भी पहुँचा दिया। साथ ही शाल्व के सौभ विमान को भी छिन्न-भिन्न करके धरती पर गिरा दिया।

इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओं को आपने युद्ध में मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औरों के भी नाम सुनिये। इरावती के तट पर आपने कार्तवीर्य अर्जुन के सदृश पराक्रमी भोज को युद्ध में मार गिराया। गोपति और तालकेतु-- ये दोनों भी आपके हाथों से मारे गये। जनार्दन ! भोग सामग्रियों से सम्‍पन्‍न तथा ऋषिमुनियों की प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरी को अन्त में समुद्र में विलीन कर देंगे। मधुसूदन ! वास्तव में तो आप में तो न क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशार्ह ! फिर आप में कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत ! महल के मध्य भाग में बैठे और अपने तेज से उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियों ने अभय की याचना की। परंतप मधुसूदन ! प्रलयकाल में समस्त भूतों का संहार करके इस जगत को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं। वार्ष्णेय ! सृष्टि के प्रारम्भ काल में आपके नाभिकमल से चराचर गुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।