महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 19-38

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द्वादश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व द्वादश अध्याय श्लोक 33- 62 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओं को आपने युद्ध में मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औंरो के भी नाम सुनिये। इरावती के तट पर आपने कार्तवीर्य अर्जुन के सदृश पराक्रमी भोज को युद्ध में मार गिराया। गोपति और तालकेतु-- ये दोनों भी आपके हाथ से मारे गये। जनार्दन ! भोग सामग्रियों से सम्‍पन्‍न तथा ऋषि मुनियों की प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरी को अन्त में समुद्र में विलीन कर देंगे। मधुसूदन ! वास्तव में तो आप में तो क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशार्ह ! फिर आप में कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत ! महल के मध्य भाग में बैठे और अपने तेज से उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियों ने अभय की याचना की। परंतप मधुसूदन ! प्रलयकाल में समस्त भूतों का संहार करके इस जगत् को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं। वार्ष्णेय ! सृष्टि के प्रारम्भ काल में आपके नाभि कमल से चराचर गुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत् है। जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्री हरि के ललाट- से भगवान् शंकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्म और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारद जी ने बतलायी थी। नारायण श्री कृष्ण ! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान् पुण्डरीकाक्ष ! आप महान बलवान् हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान् कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलास पर्वत पर भी रहे हैं।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! श्री कृष्ण के आत्मस्वरूप् पाण्डुनन्दन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये । तब भगवान् जनार्दन ने कुन्ती कुमार से इस प्रकार कहा--। ‘पार्थ ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। ‘दुर्द्धर्ष वीर ! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर-नारायण ऋषि ही इस लोक में आये हैं‘। ‘कुन्ती कुमार ! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक् नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता‘।

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई पांचाल राजकुमारी द्रौपदी भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।

द्रौपदी ने कहा - प्रभो ! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत् का स्रष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवकाल का यही मत है। दुर्द्धर्ष मधुसूदन ! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्री हरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुराम का कथन है। पुरुषोत्तम ! कश्यप जी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर ! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के ईश्वर नारदजी ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है,उसी प्रकार आप ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से बारम्बार क्रिड़ा करते रहते है। प्रभो ! स्वर्गलोक आपके मस्तक से और पृथ्वी आपके चरणों से व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्म ज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परम श्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम ! युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो ( सबके स्वामी ), आप ही विभु ( सर्वव्यापी ) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं। लोक, लोकपाल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, आकाश चन्द्रमा और सूर्य सब आप में प्रतिष्ठित हैं। महाबाहो ! भूलोक के प्राणियों की मृत्युपरवशता, देवताओं की अमरता तथा सम्पूर्ण जगत् का कार्य सब कुछ आप में ही प्रतिष्ठित है। मधुसूदन ! मैं आपके प्रति प्रेम होने के कारण आपसे अपना दुःख निवेदन करूँगी; क्योंकि दिव्य और मानव जगत् में जितने भी प्राणी हैं; उन सबके ईश्वर आप ही हैं। भगवन् कृष्ण ! मेरे-जैसी स्त्री को कुन्ती पुत्रों की पत्नी, आपकी सखी और धृष्टद्युम्न-जैसे वीर की बहिन हो, क्या किसी तरह सभा में ( केश पकड़कर ) घसीटकर लायी जा सकती है?। मैं रजस्वला थी, मेरे कपड़ों पर रक्त के छींटे लगे थे, शरीर पर एक ही वस्त्र था और लज्जा एवं भय से मैं थर-थर काँप रही थी। उस दशा में मुझ दुखिनी अबला को कौरवों की सभा में घसीटकर लाया गया था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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