"महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 78-99" के अवतरणों में अंतर

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==द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 78-99 का हिन्दी अनुवाद</div>  
|+ <font size="+1">महाभारत वनपर्व  द्वादश अध्याय श्लोक 91- 118 का हिन्दी अनुवाद</font>
 
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ऐसा कहकर पराक्रमी एव बलवान [[भीम]] ने आर्या [[कुन्ती]] को बायें अंग में, धर्मराज को दाहिने अंग मे, [[नकुल]] और [[सहदेव]] को दोनों कंधों पर तथा [[अर्जुन]] को पीठ पर चढ़ा लिया और सबको लिये-लिये सहसा वेग से उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्नि से भाइयों तथा माता की रक्षा की<ref>आदि पर्व के 147वें अध्याय के लाक्षा गृहदाह प्रसंग में बतलाया है कि ‘भीमसेन ने माता को तो कंधे पर चढ़ा लिया और नकुल, सहदेव को गोद में उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे।‘ इस कथन से [[द्रौपदी]] के वचन भिन्न हैं; क्योंकि द्रौपदी का उस समय विवाह नहीं हुआ था, अतः द्रौपदी इस बात को ठीक-ठीक नहीं जानती थी, इसी से वह लोगों के मुख से सुनी-सुनायी बात अनुमान से कह रही है; अतः लाक्षा गृहदाह के प्रसंग की बात ही ठीक है।</ref>। फिर वे यशस्वी पाण्डव माता के साथ रात में ही वहाँ से चल दिये और [[हिडिम्ब]] -वन के पास एक भारी वन में जा पहुँचे। वहाँ माता सहित ये दुखी पाण्डव थककर सो गये। सो जाने पर इनके निकट [[हिडिम्बा]] नामक राक्षसी आयी। माता सहित पाण्डवों को वहाँ धरती सोते देख काम से पीड़ित हो उस राक्षसी ने भीमसेन की कामना की। भीम के पैरों को अपनी गोदी में लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथों से प्रसन्नता पूर्वक दबाने लगी। उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्य पराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे। जागने पर उन्होंने पूछा--‘सुन्दरी ! यहाँ  तुम क्या चाहती हो?‘। इस प्रकार पूछने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली उस अनिन्ध सुन्दरी राक्षस कन्या ने महात्मा भीम से कहा- ‘ आप लोग यहाँ से जल्दी भाग जायें, मेरा यह बलवान-भाई हिडिम्ब आपको मारने के लिये आयेगा; अतः आप जल्दी चले जाइये,देर न कीजिये‘। यह सुनकर भीमसेन ने अभिमान पूर्वक कहा--‘मैं उस राक्षस से नहीं डरता। यदि वह यहाँ आयेगा, तो मैं ही उसे मार डालूँगा‘। उन दोनों की बातचीत सुनकर वह भीम रूप धारी भयंकर एवं नीच राक्षस बड़े जोर से गर्जना करता हुआ वहाँ आ पहुँचा।
 
  
'''राक्षस बोला'''- हिडिम्बे ! ‘तू किससे बात कर रही है? लाओ इसे मेरे पास। हम लोग खायेंगे। अब तुम्हें देर नहीं करनी चाहिये। मनस्विनी एवं अनिन्दिता हिडिम्बा ने स्नेह युक्त हृदय के कारण दयावश यह क्रूरता पूर्ण संदेश भीमसेन से कहना उचित न समझा। इतने में ही वह नरभक्षी राक्षस घोर गर्जना करता हुआ बड़े वेग से भीमसेन की ओर दौड़ा। क्रोध में भरे हुए उस बलवान राक्षस ने बड़े. वेग से निकट जाकर अपने हाथ से भीमसेन का हाथ पकड़ लिया। भीमसेन के हाथ का स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान था। उनका शरीर भी वैसा सुदृढ़ था। राक्षस ने भीमसेन से भिड़कर उनके हाथ को सहसा झटक दिया। राक्षस ने भीमसेन के हाथ को अपने हाथ से पकड. लिया; यह बात महाबाहु भीमसेन नहीं सह सके। वे वहीं कुपित हो गये। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता भीमसेन और हिडिम्ब में इन्द्र और वृत्तासुर के समान भयानक एवं घमासान युद्व होने लगा। निष्पाप श्रीकृष्ण ! महापराक्रमी और बलवान भीमसेन ने उस राक्षस के साथ बहुत देर तक खिलवाड़ करके उसके निर्बल हो जाने पर उसे मार डाला। इस प्रकार हिडिम्ब को मारकर हिडिम्बा को आगे किये भीमसेन अपने भाइयों के साथ आगे बढ़े। उसी हिडिम्बा से घटेात्कच का जन्म हुआ। तदनन्तर सब परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ आगे बढ़े। ब्राह्मणों से घिरे हुए ये लोग एकचक्रा नगरी की ओर चल दिये। उस यात्रा में इनके प्रिय एवं हित में लगे हुए व्यासजी ही इनके परामर्शदाता हुए। उत्तम व्रत का पालन करने वाले पाण्डव उन्हीं की सम्मति से एकचक्रा पुरी में गये। वहा जाने पर भी इन्हें नरभक्षी राक्षस महाबली बाकासुर मिला। वह भी हिडिम्ब के समान भयंकर था।
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कृष्ण ! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, जिसके होते हुए [[दुर्योधन]] इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है। मधुसूदन ! पहले बाल्यावस्था में, जब कि पाण्डव ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए अध्ययन में लगे थे, किसी की हिंसा नहीं करते थे, जिस दुष्ट ने इन्हें इनकी माता के साथ राज्य से बाहर निकाल दिया था। जिस पापी ने भीमसेन के भोजन में नूतन, तीक्ष्ण परिमाण में अधिक एवं रोमांचकारी कालकूट नामक विष डलवा दिया था। महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन ! भीमसेन की आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्न के साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया( इस प्रकार उस दुर्योधन के अत्याचारों को कहाँ तक गिनाया जाये )।
  
योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम उस भयंकर राक्षस को मारकर अपने सब भाइयों के साथ मेरे पिता द्रुपद की राजधानी में गये। श्रीकृष्ण ! जैसे आपने भीष्मक नन्दिनी रुक्मिणी को जीता था, उसी प्रकार मेरे पिता की राजधानी में रहते समय सव्यसाची अर्जुन ने मुझे जीता। मधुसूदन ! स्वयंवर में, जो महान कर्म दूसरों के लिये दुष्कर था, वह करके भारी युद्ध में भी अर्जुन ने मुझे जीत लिया था। परंतु आज मैं इन सबके होते हुए भी अनेक प्रकार के क्लेश भोगती और अत्यन्त दुःख में डूबी रहकर अपनी सास [[कुन्ती]] से अलग हो धौम्यजी को आगे रखकर वन में निवास करती हूँ। ये सिंह के समान पराक्रमी पाण्डव बल-वीर्य में शत्रुओं से बढ़े-चढ़े है, इनसे सर्वथा हीन कौरव मुझे भरी सभा में कष्ट दे रहे थे, तो भी इन्होंने क्यों मेरी उपेक्षा की?
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श्रीकृष्ण ! प्रमाणकोटि तीर्थ में, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय दुर्योधन ने इन्हें बाँधकर गंगा में फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानी में लौट आया। जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनों को तोड़ कर जल से ऊपर उठे। इनके सारे अंगों में विषैले काले सर्पो से डसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न सके। जागने पर कुन्तीनन्दन भीम ने सब सर्पों को उठा-उठा-कर पटक दिया। दुर्योधन ने भीमसेन के प्रिय सारथि को भी उलटे हाथ से मार डाला। इतना ही नहीं, वारणावत में आर्या [[कुन्ती]] के साथ में ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस समय उसने घर में आग लगवा दी, ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवों से इस प्रकार बोलीं- ‘मैं बड़े भारी संकट में पड़ी, आग से घिर गयी।' ‘हाय ! हाय !' मैं मारी गयी, अब इस आग से कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथ की तरह अपने  पुत्रों के साथ नष्ट हो जाऊँगी।' उस समय वहाँ वायु के समान वेग और पराक्रम वाले महाबाहु [[भीम|भीमसेन]] ने आर्या कुन्ती तथा भाइयों को आश्वासन देते हुए कहा--‘पक्षियों में श्रेष्ठ विनतानन्दन गरुड़ जैसे उड़ा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सब को लेकर यहाँ से चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी भय नहीं है ।'
  
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ऐसा कहकर पराक्रमी एव बलवान [[भीम]] ने आर्या [[कुन्ती]] को बायें अंग में, धर्मराज को दाहिने अंग में, [[नकुल]] और [[सहदेव]] को दोनों कंधों पर तथा [[अर्जुन]] को पीठ पर चढ़ा लिया और सबको लिये-लिये सहसा वेग से उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्नि से भाइयों तथा माता की रक्षा की<ref>आदि पर्व के 147वें अध्याय के लाक्षा गृहदाह प्रसंग में बतलाया है कि ‘भीमसेन ने माता को तो कंधे पर चढ़ा लिया और नकुल, सहदेव को गोद में उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे।‘ इस कथन से [[द्रौपदी]] के वचन भिन्न हैं; क्योंकि द्रौपदी का उस समय विवाह नहीं हुआ था, अतः द्रौपदी इस बात को ठीक-ठीक नहीं जानती थी, इसी से वह लोगों के मुख से सुनी-सुनायी बात अनुमान से कह रही है; अतः लाक्षा गृहदाह के प्रसंग की बात ही ठीक है।</ref>। फिर वे यशस्वी पाण्डव माता के साथ रात में ही वहाँ से चल दिये और [[हिडिम्ब]] -वन के पास एक भारी वन में जा पहुँचे। वहाँ माता सहित ये दुखी पाण्डव थककर सो गये। सो जाने पर इनके निकट [[हिडिम्बा]] नामक राक्षसी आयी। माता सहित पाण्डवों को वहाँ धरती पर सोते देख काम से पीड़ित हो उस राक्षसी ने भीमसेन की कामना की। भीम के पैरों को अपनी गोदी में लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथों से प्रसन्नतापूर्वक दबाने लगी। उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्य पराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे। जागने पर उन्होंने पूछा--‘सुन्दरी ! यहाँ  तुम क्या चाहती हो?।' इस प्रकार पूछने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली उस अनिन्ध सुन्दरी राक्षसकन्या ने महात्मा भीम से कहा- ‘ आप लोग यहाँ से जल्दी भाग जायें, मेरा यह बलवान भाई हिडिम्ब आपको मारने के लिये आयेगा; अतः आप जल्दी चले जाइये,देर न कीजिये‘।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
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१३:२३, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 78-99 का हिन्दी अनुवाद

कृष्ण ! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, जिसके होते हुए दुर्योधन इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है। मधुसूदन ! पहले बाल्यावस्था में, जब कि पाण्डव ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए अध्ययन में लगे थे, किसी की हिंसा नहीं करते थे, जिस दुष्ट ने इन्हें इनकी माता के साथ राज्य से बाहर निकाल दिया था। जिस पापी ने भीमसेन के भोजन में नूतन, तीक्ष्ण परिमाण में अधिक एवं रोमांचकारी कालकूट नामक विष डलवा दिया था। महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन ! भीमसेन की आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्न के साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया( इस प्रकार उस दुर्योधन के अत्याचारों को कहाँ तक गिनाया जाये )।

श्रीकृष्ण ! प्रमाणकोटि तीर्थ में, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय दुर्योधन ने इन्हें बाँधकर गंगा में फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानी में लौट आया। जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनों को तोड़ कर जल से ऊपर उठे। इनके सारे अंगों में विषैले काले सर्पो से डसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न सके। जागने पर कुन्तीनन्दन भीम ने सब सर्पों को उठा-उठा-कर पटक दिया। दुर्योधन ने भीमसेन के प्रिय सारथि को भी उलटे हाथ से मार डाला। इतना ही नहीं, वारणावत में आर्या कुन्ती के साथ में ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस समय उसने घर में आग लगवा दी, ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवों से इस प्रकार बोलीं- ‘मैं बड़े भारी संकट में पड़ी, आग से घिर गयी।' ‘हाय ! हाय !' मैं मारी गयी, अब इस आग से कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथ की तरह अपने पुत्रों के साथ नष्ट हो जाऊँगी।' उस समय वहाँ वायु के समान वेग और पराक्रम वाले महाबाहु भीमसेन ने आर्या कुन्ती तथा भाइयों को आश्वासन देते हुए कहा--‘पक्षियों में श्रेष्ठ विनतानन्दन गरुड़ जैसे उड़ा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सब को लेकर यहाँ से चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी भय नहीं है ।'

ऐसा कहकर पराक्रमी एव बलवान भीम ने आर्या कुन्ती को बायें अंग में, धर्मराज को दाहिने अंग में, नकुल और सहदेव को दोनों कंधों पर तथा अर्जुन को पीठ पर चढ़ा लिया और सबको लिये-लिये सहसा वेग से उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्नि से भाइयों तथा माता की रक्षा की[१]। फिर वे यशस्वी पाण्डव माता के साथ रात में ही वहाँ से चल दिये और हिडिम्ब -वन के पास एक भारी वन में जा पहुँचे। वहाँ माता सहित ये दुखी पाण्डव थककर सो गये। सो जाने पर इनके निकट हिडिम्बा नामक राक्षसी आयी। माता सहित पाण्डवों को वहाँ धरती पर सोते देख काम से पीड़ित हो उस राक्षसी ने भीमसेन की कामना की। भीम के पैरों को अपनी गोदी में लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथों से प्रसन्नतापूर्वक दबाने लगी। उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्य पराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे। जागने पर उन्होंने पूछा--‘सुन्दरी ! यहाँ तुम क्या चाहती हो?।' इस प्रकार पूछने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली उस अनिन्ध सुन्दरी राक्षसकन्या ने महात्मा भीम से कहा- ‘ आप लोग यहाँ से जल्दी भाग जायें, मेरा यह बलवान भाई हिडिम्ब आपको मारने के लिये आयेगा; अतः आप जल्दी चले जाइये,देर न कीजिये‘।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदि पर्व के 147वें अध्याय के लाक्षा गृहदाह प्रसंग में बतलाया है कि ‘भीमसेन ने माता को तो कंधे पर चढ़ा लिया और नकुल, सहदेव को गोद में उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे।‘ इस कथन से द्रौपदी के वचन भिन्न हैं; क्योंकि द्रौपदी का उस समय विवाह नहीं हुआ था, अतः द्रौपदी इस बात को ठीक-ठीक नहीं जानती थी, इसी से वह लोगों के मुख से सुनी-सुनायी बात अनुमान से कह रही है; अतः लाक्षा गृहदाह के प्रसंग की बात ही ठीक है।

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