महाभारत वन पर्व अध्याय 158 श्लोक 52-77

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अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 52-77 का हिन्दी अनुवाद

इन वृक्षोंपर निवास करनेवाले चकीर, मोर, भृगंराज, तोते, कोयल, कलविग (गौरैया चिडि़या), हारीत (हारिल), चकवा, प्रियक, चातक तथा दूसरे नाना प्रकारके पक्षी, श्रवणसुखद मधुरशब्द बोल रहे थे। वहां चारों और जलचर जन्तुओंसे भरे हुए मनोहर सरोवर दृष्टिगोचर होते कमल सब ओर व्याप्त थे। कादम्ब, चक्रवाक, कुरर, जलकुक्कुट, कारण्डव, प्लव, हंस, बक, मदुर तथा अन्य कितने ही जलचर पक्षी कमलोंके मकदन्दनका पान करके मदसे मतवाले ओर हर्षसे मुग्ध हुए उन सरोवरोंमें सब ओर फैले थे। कमलोंसे भरे हुए तालाबोंमें मीठे स्वरसे बोलनेवाले भ्रमरोंकेशब्द गूंज रहे थे। वे भ्रमर कमलके भीतरसे निकली हुई रज तथा केसरोंके लाल रंगमें रंगेसे जान पड़ते थे। इस प्रकार वे नरश्रेष्ठ गन्धमादनके शिखरोंपर पद्यशण्डमण्डित तालाबोंको सब ओर देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। वहां लता-मण्डपोमें मोरिनयोंके साथ नाचते हुए मोर दिखायी देते थे। जो मेघोंके मृदगंतुल्य गम्भीर गर्जना सुनकर उदाम कामसे अत्यन्त उन्मत हो रहे थे। वे अपनी मधुर केकाध्वनिका विस्तार करके मीठे स्वरमें संगीतकी रचना करते थे और अपनी विचित्र पांखें फैलाकर विलासयुक्त मदालस भावसे वनविहारके लिये उत्सुक हो प्रसन्नताके साथ नाच रहे थे। कुछ मोर लतावल्लरियोंसे व्याप्त कुटज वृक्षोंके कुओंमें स्थित हो अपनी पत्नी प्यारी मोरिनीयोंके साथ रमण करते थे और कुछ कुटजोंकी डालियोंपर मदमत होकर बैठे थे तथा अपनी सुन्दर पांखोंके घटाटोपसे युक्त हो मुकुटके समान जान पड़ते थे। कितने ही सुन्दर मोर वृक्षोंके कोटरोंमे बैठे थे। पाण्डवोंने उन सबको देखा। पर्वतोंके शिखरोंपर अधिकाधिक संख्यामें सुनहरे कुसुमोंसे सुशोभित सुन्दरशेफौलिकाके पौधे दिखायी देते थे, जो कामदेवके तोमर नामक बाण-से प्रतीत होते थे। खिले हुए कनेरके फूल उत्‍तम कर्णपूरके समान प्रतीत होते थे। इसी प्रकार वन-श्रेणियोंमें विकसीत कुरबक नामक वृक्ष भी उन्होंने देखे, जो कामासक्त पुरूषोंको उत्कण्डित[१]करने वाले कामदेवके बाण-समूहोंके समान जान पड़ते थे। इसी प्रकार उन्हें तिलकके वृक्ष दृष्टिगोचर हुए जो बनश्रेणियोंके ललाटमें रचित सुन्दर तिलकके समानशोभा पा रहे थे। कहीं मनोहर मंजरियोंसे विभूषित मनोरम आम्र वृक्ष दीख पड़ते थे, जो कामदेवके बाणोंकीसी आकृति धारण करते थे। उनकी डालियोंपर भौंरोकी भीड़ गूंजती रहती थी। उन पर्वतोंके शिखरोंपर कितने ही ऐसे वृक्ष थे, जिनमें सुवर्णमें दावानलका भ्रम उत्पन्न करते थे। किन्हीं वृक्षोंके फूल लाल, काले तथा वैदूर्य-मणिके सदृश्य धूमिल थे। इस प्रकार पर्वतीय शिखरोंपर विभिन्न प्रकारके पुष्पोंसे विभूषित वृक्ष बड़ीशोभा पा रहे थे। इसी तरहशाल, तमाल, पाटल और बकुल आदि वृक्ष उनशैल-शिखरोंपर धारणकी हुई मालकी भांतिशोभा पा रहे थे। पाण्डवोंने पर्वतीय शिखरोंपर बहुत-से ऐसे सरोवर देखे, जो निर्मल स्फटिकमणिके समान सुशोभित थे। उनमें सफेद पांखवाले पक्षी कलहंस आदि विचरते तथा सारस कलरव करते थे। कमल और उत्पल पुष्पोंसे संयुक्त उन सरोवरमें सुखद एवंशीतल जल भरा थ। इस प्रकार वे वीर पाण्डव चारों ओर सुगन्धित पुष्पमालाएं, सरस, फल, मनोहर सरोवर और मनोरम वृक्षावलियोंको क्रमश: देखते हुए गन्धमादन पर्वतके वनमें प्रविष्ट हुए। वहां पहुंचनेपर उन सबकी आंखे आश्चर्यसे खिल उठीं। उस समय कमल, उत्पल, कहार और पुण्डरीककी सुन्दर गन्ध लिये मन्द मधुर वायु उस वनमें मानो उन्हें व्यंजन डुलाती थी। तदनन्तर युधिष्ठिरने भीमसेनसे प्रसन्नतापूर्ण यह बात कही- भीम! यह गन्धमादन-कानन कितना सुन्दर और कैसा अद्भुत है ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिन्धुवारशब्दका अर्थ आचार्य नीलकण्ठने कमल माना है। आधुनिक कोशकारोंने 'सिन्धुवार' कोशेफालिका या निर्गणीका पर्याय माना है। उसके फूल मंजरीके आकारमें केसरिया रंगके होते हैं, अतः तोमरसे उनकी उपमा ठीक बैठती है। इसीलिये यहांशेफालियाका अर्थ लिया गया।

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