महाभारत वन पर्व अध्याय 174 श्लोक 1-17

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चतुःसप्तत्यधिकशततम (174) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: चतुःसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुनके मुखसे यात्राका वृतान्त सुनकर युधिष्ठिर उनका अभिनन्दन और दिव्यास्त्रदर्शनकी इच्छा प्रकट करना

अर्जुन कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर मैं देवराजका अत्यन्त विश्वासपात्र बन गया। धीर-धीरे शरीरके सब धाव भर गये ।तब एक दिन देवराज इन्द्रने मेरा हाथ पकड़कर कहा-'भरतनन्दन ! तुममें सब दिव्यास्त्र विद्यमान हैं। भूमण्डलका कोई भी मनुष्य तुम्हें पराजित नहीं कर सकता। 'बेटा ! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा राजाओंसहित शकुनि-ये सब-के-सब संग्राममें खड़े होनेपर तुम्हारी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते'। महाराज ! उन देवेश्वर इन्द्रने स्वयं मेरे शरीरकी रक्षा करनेवाला यह अभेद्य दिव्य कवच और यह सुवर्णमयी माला मुझे दी। फिर उन्होंने बड़े जोरकी आवाज करनेवाला यह देवदत नामक शंक प्रदान किया। स्वयं देवराज इन्द्रने ही यह दिव्य किरीट मेरे मस्तकपर रखा था। तत्पश्चात् देवराजने मुझे ये मनोहर एवं विशाल दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषण दिये। महाराज ! इस प्रकार सम्मानित होकर मैं उस पवित्र इन्द्रभवनमें गन्धर्वकुमारोंके साथ सुखपूर्वक रहने लगा। तदनन्तर देवताओंसहित इन्द्रने प्रसन्न होकर मुझसे कहा-अर्जुन ! अब तुम्हारे जानेका समय आ गया हैं, क्योंकि तुम्हारे भाई तुम्हें बहुत याद करते हैं'। भारत ! इस प्रकार द्यूतजनित कलहका स्मरण करते हुए मैंने इन्द्र-भवनमें पांच वर्ष व्यतीत किये हैं। इसके बाद इस गन्धमादनकी शाखाभूत इस पर्वतको शिखरपर भाइयोंसहित आपका दर्शन किया है। युधिष्ठिर बोले-धनंजय ! बड़े सौभाग्यशाली बात है कि तुमने दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये। भारत ! यह भी भाग्यकी ही बात है कि तुमने देवताओंके स्वामी राजराजेश्वर इन्द्रको आराधनाद्वारा प्रसन्न कर लिया। निष्पाप परंतप ! सबसे बड़ी सौभाग्यकी बात तो यह है कि तुमने देवी पार्वतीके साथ साक्षात् भगवान् शंकरका दर्शन किया और उन्हें अपनी युद्धकलासे संतुष्ट कर लिया। भरतश्रेष्ठ ! समस्त लोकपालोंके साथ तुम्हारी भेंट हुई, यह भी हमारे लिये सौभाग्यका सूचक है। हमारा अहोभाग्य है कि हम उन्नतिके पथपर अग्रसर हो रहे हैं। अर्जुन ! हमारे भाग्यसे ही तुम पुनः हमारे पास लौट आये। आज मुझे यह विश्वास हो गया कि हम नगरोंसे सुशोभित समूची वसुधादवीको जीत लेंगे। अब हम धृतके पु़त्रोंको भी अपने वशमें पड़ा हुआ ही मानते हैं। भारत ! अब मेरी इच्छा उन दिव्यास्त्रोंको देखनेकी हो रही हैं, जिनके द्वारा तुमने उस प्रकारके उन महापराक्रमी निवातकवचोंका विनाश किया है। अर्जुन बोले-महाराज ! कल सबेरे आप उन सब दिव्यास्त्रोंको देखियेगा, जिनके द्वारा मैंने भयानक निवात कवचोंको मार गिराया है। वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! इस प्रकार अपने आगमनका वृतान्त सुनाकर सब भाइयोंसहित अर्जुनने यहां वह रात व्यतीत की।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें अस्त्रदर्शनके लिये संकेतविषयक एक सौ चौहतरवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

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