महाभारत वन पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-21

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एकविंश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व एकविंश अध्याय श्लोक 1- 30 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण शाल्व की माया से मोहित होकर पुनः सजग होना

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- पुरुषसिंह ! इस प्रकार मेरे साथ युद्ध करने वाला महाशत्रु शाल्वराज पुनः आकाश में चला गया। महाराज ! वहाँ से विजय की इच्छा रखने वाले मन्दबुद्धि शाल्व ने क्रोध में भरकर मेरे ऊपर शतघ्नियाँ, बड़ी-बड़ी गदाएँ, प्रज्वलित शूल, मुसल और खड्ग फेंके। उनके आते ही मैंने तुरंत शीघ्रगामी बाणों द्वारा उन्हें रोककर उन गगनचारी शत्रुओं को आकाश में ही मार डालने का निश्चय किया और शीघ्र छोड़े हुए बाणों द्वारा उन सब के दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर डाले। इससे अन्तरिक्ष में बड़ा भारी आत्र्तनाद हुआ। तदनन्तर शाल्व ने झुकी हुई गाँठों वाले लाखों बाणों का प्रहार करके दारुक, घोड़ों तथा रथ को आच्छादित कर दिया।। 4 ।। वीरवर ! तब दारुक व्याकुल-सा होकर मुझसे बोला--‘प्रभो ! युद्ध में डटे रहना‘ इसे स्मरण करके ही मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ; किंतु शाल्व के बाणों से अत्यन्त पीडि़त होने के कारण मुझमें खडे़ रहने की भी शक्ति नहीं रह गयी है। 'मेरा अंग शिथिल होता जा रहा है।' सारथि का यह करुण वचन सुनकर मैंने उसकी ओर देखा। उसे बाणों द्वारा बड़ी पीड़ा हो रही थी। पाण्डव श्रेष्ठ ! उसकी छाती में, मस्तक पर, शरीर के अन्य अवयवों में तथा दोनों भुजाओं में, थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं दिखायी देता था, जिसमें बाण न चुभे हुए हों। जैसे मेघ के वर्षा करने पर गेरू आदि धातुओं से युक्त पर्वत से लाल पानी की धारा बहाने लगती है, वैसे ही वह बाणों से छिदे हुए अपने अंगों से भयंकर रक्त की धारा बहा रहा था। महाबाहो ! उस युद्ध में हाथ में बागडोर लिये सारथि को शाल्व के बाणों से पीडि़त होकर कष्ट पाते देख, मैंने उसे ढांढ़स बँधाया। भरतवंशी वीरवर ! इतने में ही कोई द्वारकावासी पुरुष आकर तुरंत मेरे रथ पर चढ़ गया और सौहार्द दिखाता हुआ-सा बोला। वह राजा उग्रसेन का सेवक था और दुखी होकर उसने गद्गद कण्ठ से उनका जो संदेश सुनाया, उसे बताता हूँ, सुनिये। ( दूत बोला-- ) ‘वीर ! द्वारका नरेश उग्रसेन ने आपको यह एक संदेश दिया है। केशव ! वे आपके पिता के सखा हैं; उन्होंने आपसे कहा है कि यहाँ आ जाओ और जान बचा लो। ‘दुर्द्धर्ष वृष्णिनन्दन !' आपके युद्ध में आसक्त होने-पर शाल्व ने अभी द्वारकापुरी में शूरनन्दन वसुदेवजी को बल पूर्वक मार डाला है। ‘जनार्दन ! अब युद्ध करके क्या लेना है? लौट आओ। द्वारका की रक्षा करो। तुम्हारे लिये यही सबसे महान् कार्य है। दूत का यह वचन सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मैं कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में कोई निश्चय नहीं कर पाता था। वीर युधिष्ठिर ! वह महान् अप्रिय वृत्तान्त सुनकर मैं मन-ही-मन सात्यकि, बलरामजी तथा महारथी प्रद्युम्न की निन्दा करने लगा। कुरुनन्दन ! मैं द्वारका तथा पिताजी की रक्षा का भार उन्हीं लोगों पर रखकर सौभविमान का नाश करने के लिये चला था। क्या शत्रुहन्ता महाबली बलरामजी जीवित हैं? क्या सात्यकि, रुक्मिणीनन्दन, प्रद्युम्न, महाबली चारुदेष्ण तथा साम्ब आदि जीवन धारण करते हैं? इन बातों का विचार करते-करते मेरा मन उदास हो गया। नरश्रेष्ठ ! इन वीरों के जीते-जी साक्षात् इन्द्र भी मेरे पिता वसुदेवजी को किसी प्रकार मार नहीं सकते थे। अवश्य ही शूरनन्दन वसुदेवजी मारे गये और यह भी स्पष्ट है कि बलरामजी आदि सभी प्रमुख वीर प्राणत्याग कर चुके हैं--यह मेरा विचार निश्चित हो गया। महाराज ! इस प्रकार सब के विनाश का बारंबार चिन्तन करके भी मैं व्याकुल न होकर राजा शाल्व से पुनः युद्ध करने लगा। वीर महाराज ! इसी समय मैंने देखा, सौभ-विमान से मेरे पिता वसुदेवजी नीचे गिर रहे हैं। इससे मुझे शाल्व की माया से मुझे मूर्च्छा-सी आ गयी। नरेश्वर ! उस विमान से गिरते हुए मेरे पिता का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो पुण्यक्षय होने पर स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरने वाले राजा ययाति का शरीर हो। उसकी मलिन पगड़ी बिखर गयी थी, शरीर के वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे और बाल बिखर गये थे। वे गिरते समय पुण्यहीन ग्रह की भाँति दिखायी देते थे। कुन्तीनन्दन ! उनकी यह अवस्था देख धनुषों में श्रेष्ठ शांग मेरे हाथ से छूटकर गिर गया और मैं शाल्व की माया से मोहित- सा होकर रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठ गया। भारत ! फिर तो मुझे रथ के पिछले भाग में प्राण रहित के समान पड़ा देख मेरी सारी सेना हाहाकार कर उठी। सब की चेतना लुप्त-सी हो गयी। हाथों और पैरों को फैलाकर गिरते हुए मेरे पिता का शरीर मरकर गिरने वाले पक्षी के समान जान पड़ता था। वीरवर महाबाहो ! गिरते समय शत्रु-सैनिक हाथों में शूल और पट्टिश लिये उनके ऊपर प्रहार कर रहे थे। उनके इस क्रू कृत्य ने मेरे हृदय को कम्पित-सा कर दिया। वीरवर ! तदनन्तर दो घड़ी के बाद जब मैं सचेत होकर देखता हूँ, तब उस महासमर में न तो सौभविमान का पता है, न मेरा शत्रु शाल्व दिखायी देता है और न मेरे बूढ़े पिता ही दृष्टिगोचर होते हैं। तब मेरे मैंने मन में यह निश्चय हो गया कि यह वास्तव में माया ही थी। तब मैंने सजग होकर सैकड़ों बाणों की वर्षा प्रारम्भ की।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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