महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 22-38

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बाईसवाँ अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व अध्याय 22 श्लोक 33- 54 का हिन्दी अनुवाद

आकाश में जाते ही उस सुर्दशन चक्र का स्वरूप प्रलयकाल में उगनेवाले द्वितीय सूर्य के भांति प्रकाशित हो उठा। उस दिव्य शास्त्र ने सौभनगर में पहुँचकर उसे श्रीहीन कर दिया और जैसे आरा ऊँचे काठ को चीर डालता है, उसी प्रकार सौभ विेमान को बीच से काट डाला। सुदर्शन चक्र की शक्ति से कटकर दो टुकड़ों में बँटा हुआ सौभ विमान महादेवजी के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए त्रिपुर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। सौभ विमान के गिरने पर चक्र फिर से मेरे हाथों में आ गया। मैंने फिर उसे लेकर वेग पूर्वक चलाया और कहा-‘अब की बार शाल्व को मारने के लिये तुम्हें छोड़ रहा हूँ‘। तब उस चक्र ने उस महासमर में बड़ी भारी गदा घुमाने वाले शाल्व के सहसा दो टुकड़े कर दिये और वह तेज से प्रज्वलित हो उठा। वीर शाल्व के मारे जाने पर दानवों के मन मे भय समा गया। मेरे बाणों से पीडि़त हो हाहाकार करते हुए वे सब दिशाओं में भाग गये। तब मैंने सौभ विमान के समीप अपने रथ को खड़ा करके प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाकर सभी सुहृदों को हर्ष में निमग्न कर दिया। मेरुपर्वत के शिखर के समान आकृति वाले सौभ नगर की अट्टालिका और गोपुर सभी नष्ट हो गये। उसे जलते देख उस पर रहने वाली स्त्रियाँ इधर-उधर भाग गयीं। धर्मराज ! इस प्रकार सौभ विमान तथा राजा शाल्व को नष्ट करके पुनः आनर्तनगर ( द्वारका ) में लौट आया और सहृकों का हर्ष बढ़ाया। राजन् ! यही कारण है, जिससे मैं उन दिनों हस्तिनापुर में न आ सका। शत्रुवीरों का नाश करने वाले धर्मराज ! मेरे आने पर या तो जुआ नहीं होता या दुर्योधन जीवित नहीं रह पाता। जैसे बाँध टूट जाने पर पानी को कोई रोका नहीं सकता, उसी प्रकार आज जब कि सब कुछ बिगड़ चुका है, तब मैं क्या कर सकूँगा।

वैशम्पायनजी कहते है - जनमेजय । ऐसा कहकर पुरुषों मे श्रेष्ठ महाबाहु श्रीमान मधुसूदन कुरुनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर द्वारका की ओर चल पड़े।महाबाहु श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम किया। राजा युधिष्ठिर तथा भीम ने बड़ी-बड़ी भुजाओं वाले श्रीकृष्ण का सिर सूँघा। अर्जुन ने उनको गले से लगाया और नकुल-सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया। पुरोहित धौम्यजी ने उनका सम्मान किया तथा द्रौपदी ने अपने आँसुओं से उनकी अर्चना की। पाण्डवों से सम्मानित श्रीकृष्ण सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने सुवर्णमय रथ पर बैठकर स्वयं भी उस पर आरूढ़ हुए। उस रथ में शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़े जुते हुए थे और सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत होता था। युधिष्ठिर को आश्वासन देकर श्री कृष्ण उसी रथ के द्वारा द्वारकापुरी की ओर चल दिये। श्रीकृष्ण के चले जाने पर द्रुपद पुत्र धृष्ट द्युम्न ने द्रौपदी-कुमारों को साथ ले अपनी राजधानी को प्रस्थान किया। चेदिराज धृष्टकेतु भी अपनी बहिन करेणुमति को, जो नकुल की भार्या थी, साथ ले पाण्डवों से मिल-जुलकर अपनी सुरम्य राजधानी शुक्तीमतीपुरी को चले गये। भारत ! केकयराजकुमार भी अमित तेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा पा समस्त पाण्डवों से विदा लेकर अपने नगर को चले गये। युधिष्ठिर के राज्य में रहने वाले ब्राह्मण तथा वैश्य बारंबार विदा करने पर भी पाण्डवों को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। भरतवंशभूषण महाराज जनमेजय ! उस समय काम्यक वन में उन महात्माओं का बड़ा अद्भुत सम्मेलन जुटा था। तदनन्तर महात्मा युधिष्ठिर ने सब ब्राह्मणों की अनुमति से अपने सेवकों को समय पर आज्ञा दी--‘रथों को जोतकर तैयार करो‘।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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