"महाभारत वन पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर

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== अट्ठाईसवाँ अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)==
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==अष्‍टविंश (28) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत वनपर्व अध्याय 28 श्लोक 1- 36 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्‍टविंश अध्याय: श्लोक 1- 20 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
 
द्रौपदी द्वारा प्रहलाद-बलि-संवाद का वर्णन-तेज और क्षमा के अवसर
 
द्रौपदी द्वारा प्रहलाद-बलि-संवाद का वर्णन-तेज और क्षमा के अवसर
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द्रौपदी कहती है- महाराज ! इस विषय में प्रहलाद तथा विरोचन पुत्र बलि के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। असुरों के स्वामी परम बुद्धिमान दैत्यराज प्रहलाद सभी धर्मों के रहस्य को जानने वाले थे। एक समय बलि ने उन अपने पितामह प्रहलादजी से पूछा।
 
द्रौपदी कहती है- महाराज ! इस विषय में प्रहलाद तथा विरोचन पुत्र बलि के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। असुरों के स्वामी परम बुद्धिमान दैत्यराज प्रहलाद सभी धर्मों के रहस्य को जानने वाले थे। एक समय बलि ने उन अपने पितामह प्रहलादजी से पूछा।
  
बलि ने पूछा- तात! क्षमा और तेज में से क्षमा श्रेष्ठ है अथवा तेज? यह मेरा संशय है। मैं इसका समाधान पूछता हूँ। आप इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय कीजिये। धर्मज्ञ ! इनमें जो श्रेष्ठ है, वह मुझे अवश्य बताइये, मैं आपके सब आदेशों का यथावत पालन करूँगा। बलि के इस प्रकार पूछने पर समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता विद्वान पितामह प्रहलाद ने संदेश निवारण करने के लिये पूछने वाले पौत्र के प्रति इस प्रकार कहा। प्रहलाद बोले- तात ! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही। इन दोनों के विषय में मेरा ऐसा ही निश्चय जानो, इसमें संशय नहीं है। वत्स ! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करते हैं। कोई भी प्राणी कभी उसके सामने विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करते, अतः तात ! सदा क्षमा करना विद्वानों के लिये भी वर्जित है। सेवकगण उसकी अवहेलना करके बहुत-से अपराध करते हैं। इतना ही नहीं, वे मूर्ख भृत्यगण उसके धन को भी हड़प लेने का हौंसला रखते हैं। विभिन्न कार्यों में नियुक्त किये हुए मूर्ख सेवक अपने इच्छानुसार क्षमाशील स्वामी के रथ, वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन, भोजन, पान तथा समस्त सामग्रियों का उपयोग करते रहते हैं तथा स्वामी की आज्ञा होने पर भी किसी को देने योग्य वस्तुएँ नहीं देते हैं। स्वामी का जितना आदर होना चाहिये, उतना आदर वे किसी प्रकार भी नहीं करते। इस संसार में सेवकों द्वारा अपमान तो मृत्यु से अधिक निन्दित है। तात ! उपर्युक्त क्षमाशील को अपने सेवक, पुत्र, भृत्य, तथा उदासीन वृत्ति के लोग कटुवचन भी सुनाया करते हैं। इतना ही नहीं, वे क्षमाशील स्वामी की अवहेलना करके उसकी स्त्रियों को भी हस्तगत करना चाहते हैं और वैसे पुरुष की मूर्ख स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो जाती हैं। यदि उन्हें अपने स्वामी से तनिक भी दण्ड नहीं मिलता तो वे सदा उड़ती हैं और आचार से दूषित हो जाती हैं। दुष्टा होने पर वे अपने स्वामी का अपकार भी कर बैठती हैं। सदा क्षमा करने वाले पुरुषों को ये तथा और भी बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं। विरोचनकुमार ! अब क्षमा न करने वालों के दोषों को सुनो। क्रोधी मनुष्य रजोगुण से आवृत्त होकर योग्य या अयोग्य अवसर का विचार किये बिना ही अपने उत्तेजित स्वभाव से लोगों को नाना प्रकार के दण्ड देता रहता है। तेज ( उत्तेजना ) से व्याप्त मनुष्य मित्रों से विरोध पैदा कर लेता है तथा साधारण लोगों और स्वजनों का द्वेषपात्र बन जाता है। वह मनुष्य दूसरों का अपमान करने के कारण सदा धन-की हानि उठाता है। इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा कर लेता है। मनुष्य क्रोधवश अन्याय पूर्वक दूसरे लोगों पर नाना प्रकार के दण्ड का प्रयोग करके अपने ऐश्वर्य,प्राण और स्वजनों से भी हाथ धो बैठता है। जो उपकारी मनुष्यों और चोरों के साथ भी उत्तेजनायुक्त बर्ताव ही करता है, उससे सब उसी प्रकार उद्विग्न होते हैं, जैसे घर में रहने वाले सर्प से। जिससे सब लोग उद्विग्न होते हैं, उसे ऐश्वर्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? उसका थोड़ा-सा भी छिद्र देखकर लोग निश्चय ही उसकी बुराई करने लगते हैं। इसलिये न तो सदा उत्तेजना ही प्रयोग करें और न सर्वदा कोमल ही बने रहें। समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार कभी कोमल और कभी तेज स्वभाव वाला बन जायें। जो मौका देखकर कोमल होता है और उपयुक्त अवसर आने पर भयंकर भी बन जाता है, वही इस लोक और  परलोक में सुख पाता है। अब मैं तुम्हें क्षमा के योग्य अवसर बताता हूं, उन्हें  विस्तारपूर्वक सुनो, जैसा कि मनीषी पुरुष कहते हैं, उन अवसरों का तुम्हें भी त्याग नहीं करना चाहिये। जिसने भी तुम्हारा पहले उपकार किया हो, उससे यदि कोई भारी अपराध हो जाये, तो भी पहले के उपकार का स्मरण करके उस अपराधी के अपराध को तुम्हें क्षमा कर देना चाहिये। जिन्होंने अनजाने में अपराध कर डाला हो, उनका वह अपराध क्षमा के ही योग्य है; क्योंकि किसी भी पुरुष के लिये सर्वत्र विद्वता ( बुद्धिमानी ) ही सुलभ हो, यह सम्भव नहीं है। परंतु जो जान-बूझकर किये हुए अपराध को भी उसे कर लेने के बाद अनजाने में किया हुआ बताते हों, उन उद्दण्ड पापियों को थोड़े-से अपराध के लिये भी अवश्य दण्ड देना चाहिये।सभी प्राणियों का एक अपराध तो तुम्हें क्षमा ही कर देना चाहिये। यदि उससे फिर दुबारा अपराध बन जाये तो थोड़े-से अपराध के लिये भी उसे दण्ड देना आवश्यक है। अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करने पर यदि यह सिद्ध हो जाये कि अमुक अपराध अनजाने में ही हो गया है, तो उसे क्षमा के ही योग्य बताया गया है। मनुष्य कोमल भाव ( सामनीति ) के द्वारा उग्र स्वभाव तथा शान्त स्वभाव के शत्रु का भी नाश कर देता है; मृदुता से कुछ भी असाध्य नहीं है। अतः मृदुतापूर्ण नीति को तीव्रतर ( उत्तम ) समझें। देश, काल तथा अपने बल का विचार करके ही मृदुता ( सामनीति ) का प्रयोग करना चाहिये। अयोग्य देश अथवा अनुपयुक्त काल में उसके प्रयोग से कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता, अतः उपयुक्त देशकाल की प्रतीक्षा करनी चाहिये। कहीं लोक के भय से भी अपराधी को क्षमा देने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार क्षमा के अवसर बताये गये हैं। इनके विपरीत बर्ताव करने वालों को राह पर लाने के लिये तेज ( उत्तेजनापूर्ण बर्ताव ) का अवसर कहा गया है।  
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बलि ने पूछा- तात! क्षमा और तेज में से क्षमा श्रेष्ठ है अथवा तेज? यह मेरा संशय है। मैं इसका समाधान पूछता हूँ। आप इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय कीजिये। धर्मज्ञ ! इनमें जो श्रेष्ठ है, वह मुझे अवश्य बताइये, मैं आपके सब आदेशों का यथावत पालन करूँगा। बलि के इस प्रकार पूछने पर समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता विद्वान पितामह प्रहलाद ने संदेश निवारण करने के लिये पूछने वाले पौत्र के प्रति इस प्रकार कहा। प्रहलाद बोले- तात ! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही। इन दोनों के विषय में मेरा ऐसा ही निश्चय जानो, इसमें संशय नहीं है। वत्स ! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करते हैं। कोई भी प्राणी कभी उसके सामने विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करते, अतः तात ! सदा क्षमा करना विद्वानों के लिये भी वर्जित है। सेवकगण उसकी अवहेलना करके बहुत-से अपराध करते हैं। इतना ही नहीं, वे मूर्ख भृत्यगण उसके धन को भी हड़प लेने का हौंसला रखते हैं। विभिन्न कार्यों में नियुक्त किये हुए मूर्ख सेवक अपनी इच्छानुसार क्षमाशील स्वामी के रथ, वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन, भोजन, पान तथा समस्त सामग्रियों का उपयोग करते रहते हैं तथा स्वामी की आज्ञा होने पर भी किसी को देने योग्य वस्तुएँ नहीं देते हैं। स्वामी का जितना आदर होना चाहिये, उतना आदर वे किसी प्रकार भी नहीं करते। इस संसार में सेवकों द्वारा अपमान तो मृत्यु से भी अधिक निन्दित है। तात ! उपर्युक्त क्षमाशील को अपने सेवक, पुत्र, भृत्य, तथा उदासीन वृत्ति के लोग कटुवचन भी सुनाया करते हैं। इतना ही नहीं, वे क्षमाशील स्वामी की अवहेलना करके उसकी स्त्रियों को भी हस्तगत करना चाहते हैं और वैसे पुरुष की मूर्ख स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो जाती हैं। यदि उन्हें अपने स्वामी से तनिक भी दण्ड नहीं मिलता तो वे सदा उड़ती हैं और आचार से दूषित हो जाती हैं। दुष्टा होने पर वे अपने स्वामी का अपकार भी कर बैठती हैं। सदा क्षमा करने वाले पुरुषों को ये तथा और भी बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं। विरोचनकुमार ! अब क्षमा न करने वालों के दोषों को सुनो। क्रोधी मनुष्य रजोगुण से आवृत्त होकर योग्य या अयोग्य अवसर का विचार किये बिना ही अपने उत्तेजित स्वभाव से लोगों को नाना प्रकार के दण्ड देता रहता है। तेज ( उत्तेजना ) से व्याप्त मनुष्य मित्रों से विरोध पैदा कर लेता है तथा साधारण लोगों और स्वजनों का द्वेषपात्र बन जाता है। वह मनुष्य दूसरों का अपमान करने के कारण सदा धन की हानि उठाता है। इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा कर लेता है। मनुष्य क्रोधवश अन्यायपूर्वक दूसरे लोगों पर नाना प्रकार के दण्ड का प्रयोग करके अपने ऐश्वर्य,प्राण और स्वजनों से भी हाथ धो बैठता है।  
  
( द्रौपदी कहती है- )-नरेश्वर ! धृतराष्ट्र के पुत्र लोभी तथा सदा आपका अपकार करने वाले हैं; अतः उनके प्रति आपके तेज के प्रयोग का यह अवसर आया है, ऐसा मेरा मत है। कौरवों के प्रति क्षमा का कोई अवसर नहीं है। अब आपको तेज प्रकट करने का अवसर प्राप्त है; अतः उन पर आपको अपने तेज का ही प्रयोग करना चाहिये। कोमलतापूर्ण बर्ताव करने वाले की सब लोग अवहेलना करते हैं और तीक्ष्ण स्वभाव वाले पुरुष से सबको उद्वेग प्राप्त होता है। जो उचित अवसर आने पर इन दोनों का प्रयोग करना जानता है, वही सफल भूपाल होता है।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 27 श्लोक 22-40|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 28 श्लोक 21-36}}
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">
 
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदीवाक्यविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वनपर्व अध्याय 27 श्लोक 27-40 |अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 29 श्लोक 1-27 }}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
+
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
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१३:४१, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्‍टविंश (28) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्‍टविंश अध्याय: श्लोक 1- 20 का हिन्दी अनुवाद

द्रौपदी द्वारा प्रहलाद-बलि-संवाद का वर्णन-तेज और क्षमा के अवसर

द्रौपदी कहती है- महाराज ! इस विषय में प्रहलाद तथा विरोचन पुत्र बलि के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। असुरों के स्वामी परम बुद्धिमान दैत्यराज प्रहलाद सभी धर्मों के रहस्य को जानने वाले थे। एक समय बलि ने उन अपने पितामह प्रहलादजी से पूछा।

बलि ने पूछा- तात! क्षमा और तेज में से क्षमा श्रेष्ठ है अथवा तेज? यह मेरा संशय है। मैं इसका समाधान पूछता हूँ। आप इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय कीजिये। धर्मज्ञ ! इनमें जो श्रेष्ठ है, वह मुझे अवश्य बताइये, मैं आपके सब आदेशों का यथावत पालन करूँगा। बलि के इस प्रकार पूछने पर समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता विद्वान पितामह प्रहलाद ने संदेश निवारण करने के लिये पूछने वाले पौत्र के प्रति इस प्रकार कहा। प्रहलाद बोले- तात ! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही। इन दोनों के विषय में मेरा ऐसा ही निश्चय जानो, इसमें संशय नहीं है। वत्स ! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करते हैं। कोई भी प्राणी कभी उसके सामने विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करते, अतः तात ! सदा क्षमा करना विद्वानों के लिये भी वर्जित है। सेवकगण उसकी अवहेलना करके बहुत-से अपराध करते हैं। इतना ही नहीं, वे मूर्ख भृत्यगण उसके धन को भी हड़प लेने का हौंसला रखते हैं। विभिन्न कार्यों में नियुक्त किये हुए मूर्ख सेवक अपनी इच्छानुसार क्षमाशील स्वामी के रथ, वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन, भोजन, पान तथा समस्त सामग्रियों का उपयोग करते रहते हैं तथा स्वामी की आज्ञा होने पर भी किसी को देने योग्य वस्तुएँ नहीं देते हैं। स्वामी का जितना आदर होना चाहिये, उतना आदर वे किसी प्रकार भी नहीं करते। इस संसार में सेवकों द्वारा अपमान तो मृत्यु से भी अधिक निन्दित है। तात ! उपर्युक्त क्षमाशील को अपने सेवक, पुत्र, भृत्य, तथा उदासीन वृत्ति के लोग कटुवचन भी सुनाया करते हैं। इतना ही नहीं, वे क्षमाशील स्वामी की अवहेलना करके उसकी स्त्रियों को भी हस्तगत करना चाहते हैं और वैसे पुरुष की मूर्ख स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो जाती हैं। यदि उन्हें अपने स्वामी से तनिक भी दण्ड नहीं मिलता तो वे सदा उड़ती हैं और आचार से दूषित हो जाती हैं। दुष्टा होने पर वे अपने स्वामी का अपकार भी कर बैठती हैं। सदा क्षमा करने वाले पुरुषों को ये तथा और भी बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं। विरोचनकुमार ! अब क्षमा न करने वालों के दोषों को सुनो। क्रोधी मनुष्य रजोगुण से आवृत्त होकर योग्य या अयोग्य अवसर का विचार किये बिना ही अपने उत्तेजित स्वभाव से लोगों को नाना प्रकार के दण्ड देता रहता है। तेज ( उत्तेजना ) से व्याप्त मनुष्य मित्रों से विरोध पैदा कर लेता है तथा साधारण लोगों और स्वजनों का द्वेषपात्र बन जाता है। वह मनुष्य दूसरों का अपमान करने के कारण सदा धन की हानि उठाता है। इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा कर लेता है। मनुष्य क्रोधवश अन्यायपूर्वक दूसरे लोगों पर नाना प्रकार के दण्ड का प्रयोग करके अपने ऐश्वर्य,प्राण और स्वजनों से भी हाथ धो बैठता है।


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