"महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 17-34" के अवतरणों में अंतर

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== उन्‍तीसवाँ अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)==
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==एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत वनपर्व अध्याय 29 श्लोक 28- 52 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को। कृष्णे ! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी। शुभानने ! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा  सन्धि मूलक ही है। द्रौपदी ! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाये तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायेगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने ! पुरुष को सभी प्राणियों पर क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान् पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है, वही विद्वान् और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है। इस विषय में जानकर लोग क्षमावान पुरुषों की गाथा का उदाहरण  देते हैं।  कृष्णे ! क्षमावान महात्मा कश्यप ने इस गाथा का गान किया था। क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने के योग्य हो जाता है। क्षमा ब्रह्मा है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा शौच है। क्षमा ने ही सम्पूर्ण जगत्-को धारण कर रखा है। क्षमाशील मनुष्य यज्ञवेता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषों से भी ऊँचे लोक प्राप्त करते हैं। ( सकामभाव से ) यज्ञ कर्मों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों के लोक दूसरे हैं एवं ( सकामभाव से ) वापी, कूप, तडाग और दान आदि कर्म करने वाले मनुष्यों के लोक दूसरे हैं। परंतु क्षमावानों के लोक ब्रह्मलोक के अन्तर्गत हैं; जो अत्‍यन्त पूजित हैं। क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है, क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी पुरुषों का सत्य है। क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम ( मनोनिग्रह ) है। कृष्णे ! जिसका महत्व ऐसा बताया गया है, जिसमें ब्रह्म, सत्य, यज्ञ और लोक सभी प्रतिष्ठित हैं, उस क्षमा को मेरे जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है। विद्वान् पुरुष को सदा क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिये। जब मनुष्य सब कुछ सहन कर लेता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। क्षमावानों के लिये ही यह लोक है। क्षमावानों के लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष इस जगत में सम्मान और परलोक में उत्तम गति पाते हैं। जिन मनुष्यों का क्रोध सदा क्षमाभाव से दबा रहता है, उन्‍हें सर्वोत्‍तम लोक प्राप्‍त होते हैं। अत: क्षमा सबसे उत्‍कृष्‍ट मानी गयी है। इस प्रकार काश्यपजी ने नित्य क्षमाशील पुरुषों की इस गाथा का गान किया है। द्रौपदी ! क्षमा की यह गाथा सुनकर संतुष्ट हो जाओ, क्रोध न करो। मेरे पितामह शान्तुनन्दन भीष्म शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण भी शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। आचार्य द्रोण और विदुर भी शान्ति को ही अच्छा कहेंगे। कृपाचार्य और संजय भी शान्त रहना ही अच्छा बतायेंगे। सोमदेव, युयुत्सु, अश्वत्थामा तथा हमारे पितामह व्यास भी सदा शान्ति का ही उपदेश देते हैं।
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जो उत्पन्न क्रोध को अपनी बुद्धि से दबा देता है, उसे तत्वदर्शी विद्वान तेजस्वी मानते हैं। सुन्दरी ! क्रोधी मनुष्य किसी कार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है ( अर्थात क्या करना चाहिये ) और क्या नहीं करना चाहिये। क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषों का वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनों को कटु वचनों द्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुष को चाहिये कि वह क्रोध को अपने से दूर रखे। दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता- ये  गुण हैं।  जो मनुष्य क्रोध से दबा हुआ है, वह इन गुणों की सहज में ही नहीं पा सकता। क्रोध का त्याग करके मनुष्य भली- भाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे ! क्रोधी पुरुषों के लिये समय के उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है। मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा मानते हैं। परंतु रजोगुण जनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है। अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोध का परित्याग करे। अपने वर्णधर्म के अनुसार न चलने वाला मनुष्य ( अपेक्षाकृत ) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा- यह निश्चय है। साध्वी द्रौपदी ! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणों का उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवों में कभी सन्धि नहीं हो सकती; क्योंकि झगड़े की जड़ तो क्रोध ही है। यदि कोई अपने को सतावे तो स्वयं भी उसको सतावें। औरों की तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपने को मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़़ें; ऐसी धारणा रखने के कारण सब प्राणियों का ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है। यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो एक मनुष्य दूसरे के द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदले में उसे गाली दे सकता है। मार खाने वाला मनुष्य बदले में मार सकता है। एक का अनिष्ट होने पर वह दूसरे का भी अनिष्ट कर सकता है।
ये सब लोग यदि राजा धृतराष्ट्र को सदा शान्ति के लिये प्रेरित करते रहेंगे तो वे अवश्य मुझे राज्य दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यदि नहीं देंगे तो लोभ के कारण नष्ट हो जायेंगे। इस समय भारत वंश के विनाश के लिये यह बड़ा भयंकर समय आ गया है। भामिनि ! मेरा पहले से ही ऐसा निश्चित मत है कि सुयोधन कभी इस प्रकार क्षमाभाव को नहीं अपना सकता, वह इसके योग्य नहीं है। मैं इसके योग्य हूँ, इसलिये क्षमा मेरा ही आश्रय लेती है। क्षमा और दया यही जीवात्मा पुरुषों का सदाचार है और यही सनातन धर्म है, अतः मैं यथार्थ रूप से क्षमा और दया को ही अपनाऊँगा।
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पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को। कृष्णे ! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी। शुभानने ! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा  सन्धिमूलक ही है। द्रौपदी ! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाये तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायेगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने ! पुरुष को सभी प्राणियों पर क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है, वही विद्वान और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है।
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"> इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदी-युधिष्ठिरसंवादविषय उन्‍तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वनपर्व अध्याय 29 श्लोक 1-27|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 30 श्लोक 1-25 }}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-16|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 35-52}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
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१३:४६, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद

जो उत्पन्न क्रोध को अपनी बुद्धि से दबा देता है, उसे तत्वदर्शी विद्वान तेजस्वी मानते हैं। सुन्दरी ! क्रोधी मनुष्य किसी कार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है ( अर्थात क्या करना चाहिये ) और क्या नहीं करना चाहिये। क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषों का वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनों को कटु वचनों द्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुष को चाहिये कि वह क्रोध को अपने से दूर रखे। दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता- ये गुण हैं। जो मनुष्य क्रोध से दबा हुआ है, वह इन गुणों की सहज में ही नहीं पा सकता। क्रोध का त्याग करके मनुष्य भली- भाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे ! क्रोधी पुरुषों के लिये समय के उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है। मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा मानते हैं। परंतु रजोगुण जनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है। अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोध का परित्याग करे। अपने वर्णधर्म के अनुसार न चलने वाला मनुष्य ( अपेक्षाकृत ) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा- यह निश्चय है। साध्वी द्रौपदी ! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणों का उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवों में कभी सन्धि नहीं हो सकती; क्योंकि झगड़े की जड़ तो क्रोध ही है। यदि कोई अपने को सतावे तो स्वयं भी उसको सतावें। औरों की तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपने को मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़़ें; ऐसी धारणा रखने के कारण सब प्राणियों का ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है। यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो एक मनुष्य दूसरे के द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदले में उसे गाली दे सकता है। मार खाने वाला मनुष्य बदले में मार सकता है। एक का अनिष्ट होने पर वह दूसरे का भी अनिष्ट कर सकता है। पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को। कृष्णे ! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी। शुभानने ! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा सन्धिमूलक ही है। द्रौपदी ! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाये तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायेगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने ! पुरुष को सभी प्राणियों पर क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है, वही विद्वान और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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