महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:५६, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वितीय अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व द्वितीय अध्याय श्लोक 1-26
धन के दोष, अतिथि सत्‍कार की महत्‍ता तथा कल्‍याण के उपायों के विषय में धर्मराज युधिष्ठिर से ब्राह्मणों तथा शौनक जी की बातचीत

वैशम्‍पायनजी कहते हैं – हे राजन ! जब रात बीती और प्रभात उदय हुआ तथा अनायास ही महान पराक्रम करने वाले पाण्‍डव वन की ओर जाने के लिए उद्यत हुए, उस समय भिक्षान्‍न भोजी ब्राह्मण साथ चलने के लिए उनके सामने खड़े हो गये। तब कुन्‍ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- ‘ब्राह्मण! हमारा राज्‍य, लक्ष्‍मी और सर्वस्‍व जूए में हरण के लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्‍न के आहार पर रहने का निश्‍चय करके दुखी होकर वन में जा रहे हैं। वन में बहुत से दोष हैं। वहाँ सर्प बिक्ष्‍छू आदि असंख्‍य भयंकर जन्‍तु हैं। ‘मैं समझता हूँ, वहाँ आप लोगों को अवश्‍य ही महान् कष्‍ट का सामना करना पड़ेगा। ब्राह्मणों को दिया हुआ क्‍लेश तो देवताओं का भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात ही क्‍या है ? अत: ब्राह्मणों ! आप लोग यहाँ से अपने अभीष्‍ट स्‍थान को लौट जायँ ’।

ब्राह्मणों ने कहा— राजन् आपकी जो गति होगी, उसे भुगतने के लिए हम भी उद्यत हैं। हम आपके भक्‍त तथा उत्‍तम धर्म पर दृष्टि रखने वाले हैं। इसलिए आप को हमारा परित्‍याग नहीं करना चाहिये। देवता भी अपने भक्‍तों पर विशेषत: सदाचार परायण ब्राह्मणों पर तो अवश्‍य ही दया करते हैं।

युधिष्ठिर बोले—विप्रगण ! मेरे मन में भी ब्राह्मणों के प्रति उत्‍तम भक्ति है, किंतु यह सब प्रकार के सहायक साधनों का अभाव ही मुझे दु:खमग्‍न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं शहद आदि आहार जुटा कर ला सकते थे, वे ही मेरे भाई शोक जनित दु:ख से मोहित हो रहे हैं। द्रौपदी के अपमान तथा राज्‍य के अपहरण के कारण ये दु:ख से पी‍डित हो रहे हैं, अत: मैं इन्‍हें (आहार जुटाने का आदेश देकर ) अधिक क्‍लेश में डालना नहीं चाहता।

ब्राह्मण बोलेपृथ्‍वीनाथ आप के ह्रदय में हमारे पालन पोषण की चिन्‍ता नहीं होनी चाहिए। हम स्‍वयं ही अपने लिये अन्‍न आदि की व्‍यवस्‍था करके आपके साथ चलेंगे। हम आपके अभीष्‍ट चिन्‍तन और जप के द्वारा आप का कल्‍याण करेंगे तथा आपको सुन्‍दर- सुन्‍दर कथाएँ सुनाकर आप के साथ ही प्रसन्‍नता पूर्वक वन में विचरेंगे। युधिष्ठिर ने कहा –महात्‍माओ ! आप का कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं है कि मैं सदा ब्राह्मणों के साथ रहने में ही प्रसन्‍नता का अनुभव करता हूँ, किंतु इस समय विप्रगण आदि से हीन होने के कारण मैं देख रहा हूँ कि मेरे लिए यह अपकीर्ति की-सी बात है। आप सब लोग स्‍वयं ही आहार जुटा कर भोजन करें, यह मैं कैसे देख सकूँगा ? आप लोग कष्‍ट भोगने के योग्‍य नहीं है, तो भी मेरे प्रति स्‍नेह होने के कारण इतना क्‍लेश उठा रहे हैं। धृतराष्‍ट्र पापी पुत्रों को धिक्‍कार है।

वैशम्‍पायनजी कहते हैं – राजन् इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोक मग्‍न हो चुपचाप पृथ्‍वी पर बैठ गये। उस समय अध्‍यात्‍म विषय में रत अर्थात् परमात्मा चिन्‍तन में तत्‍पर विद्वान ब्राह्मण शौनक ने, जो कर्मयोग और संख्‍ययोग-दानों ही निष्‍ठाओं के विचार में प्रवीण थे, राजा से इस प्रकार कहा। शोक के सहस्‍त्रों और भय के सैंकड़ों स्‍थान हैं। वे मूढ़ मनुष्‍य पर प्रतिदिन अपना प्रभाव डालते हैं, परंतु ज्ञानी पुरूष पर वे प्रभाव नहीं डाल सकते। 'अनेक दोषों से युक्‍त, ज्ञान विरूद्ध एवं कल्‍याण नाशक कर्म आप-जैसे ज्ञानवान पुरूष नहीं फँसते हैं। राजन् ! योग के आठ अंग – यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान, और समाधि से सम्‍पन्‍न, अमंगलों का नाश करने वाली तथा श्रुतियों और स्‍मृतियों के स्‍वाध्‍याय से भली भाँति दृढ. की हुई जो उत्‍तम बुद्धि कही गयी है, आप में स्थित है। ‘अर्थ संकट, दुस्‍तर दु:ख तथा स्‍वजनों पर आयी हुई विपत्तियों में आप जैसे ज्ञानी शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीडित नहीं होते। ‘पूर्व काल में महात्‍मा राजा जनक के अन्‍त: करण को स्थिर करने वाले करने वाले कुछ श्‍लोंको का गान किया था। मैं उन श्‍लोंको का वर्णन करता हूँ,आप सुनिये--।
‘सारा जगत् मानसिक और शारीरिक दु:खों से पीडित है। उन दानों प्रकार के दु:खों की शान्‍त का यह उपाय संक्षेप और विस्‍तार से सुनिये। ‘रोग, अप्रिय घटनाओं की प्राप्ति, अघिक परिश्रम त‍था प्रिय वस्‍तुओं का वियोग—इन चार कारणों शारीरिक दु:ख प्राप्‍त होता है। ‘समय पर इन चारों कारणों का प्रतीकार करना एवं कभी उसका चिन्‍तन न करना – ये दो क्रिया योग (दु:ख निवारक उपाय ) हैं। इन्‍हीं से आधि-व्‍याधि की शान्ति होती है। ‘अत: बुद्धिमान तथा विद्वान पुरूष प्रिय वचन बोलकर तथ हितकर भोगों कह प्राप्ति कराकर पहले मनुष्‍यों के मानसिक दु:खों का ही निवारण किया करते हैं। ‘क्‍योंकि मन में दु:ख होने पर शरीर भी संतप्‍त होने लगता है; ठीक वैसे ही जैसे तपाया हुआ लोहे का डाल देने पर घड़े में रक्‍खा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता है। ‘इसलिए जल से अग्नि को शान्‍त करने की भाँति ज्ञान के द्वारा मानसिक दु:ख को शान्‍त करना चाहिए। मन का दु:ख मिट जाने पर मनुष्‍य के शरीर का दु:ख भी दूर हो जाताहै।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख