महाभारत वन पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-16

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नवम अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व नवम अध्याय श्लोक 1-24
व्यासजी के द्वारा सुरभि और इन्द्र के उपाख्यान का वर्णन तथा पाण्डवों के प्रति दया दिखलाना

धृतराष्ट्र ने कहा- भगवन ! यह जूए का खेल मुझे भी पसंद नहीं था। मुने ! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि विधाता ने मुझे बल पूर्वक खींचकर इस कार्य में लगा दिया। भीष्म, द्रोण और विदुर को भी यह द्यूत का आयोजन अच्छा नहीं लगता था। गान्धारी भी नहीं चाहती थी कि जूआ खेला जाय; परंतु मोह वश मैंने मोहवश सबको जूए में लगा दिया। भगवन ! प्रियव्रत ! मैं यह जानता हूँ कि दुर्योधन अविवेकी है,तो भी पुत्र स्नेह के कारण मैं उसका त्याग नहीं कर सकता।

व्यासजी बोले- राजन् विचित्रवीर्यनन्दन ! तुम ठीक कहते हो, हम अच्छी तरह जानते हैं कि पुत्र परम प्रिय वस्तु है। पुत्र से बढ़कर संसार में और कुछ नहीं है। सुरभि ने पुत्र के लिये आँसू बहाकर इन्द्र को भी यह बात समझायी थी, जिससे वे अन्य समृद्धिशाली पदार्थों से सम्पन्न होने पर भी पुत्र से बढ़कर दूसरी किसी वस्तु को नहीं मानते हैं। जनेश्वर ! इस विषय में मैं तुम्हें एक परम उत्तम इतिहास सुनाता हूँ; जो सुरभि तथा इन्द्र के संवाद के रूप में है। राजन् ! पहले की बात है, गोमाता सुरभि स्वर्गलोक में जाकर फूट-फूटकर रोने लगी। तात ! उस समय इन्द्र को उस पर बड़ी दया आयी।

इन्द्र ने पूछा - शुभे ! तुम क्यों इस तरह रो रही हो? देवलोक वासियों की कुशल तो है न? मनुष्यों तथा गौओ में तो सब लोग कुशल से हैं न? तुम्हारा यह रोदन किसी अल्प कारण से नहीं हो सकता ?

सुरभि ने कहा - देवेश्वर आप लोगों की अवनति नहीं दिखायी देती। इन्द्र ! मुझे तो अपने पुत्र के लिये शोक हो रहा है,इसी से रोती हूँ। देखो, इस नीच किसान को मेरे दुर्बल बेटे को बार-बार कोड़े से पीट रहा है और वह हल से जुतकर पीङित हो रहा है। सुरेश्वर ! वह तो विश्राम के लिये उत्सुक होकर बैठ रहा है और वह किसान उसे डंडे मारता है। देवेन्द्र ! यह देखकर मुझे अपने बच्चे प्रति बड़ी दया हो आयी है और मेरा मन उद्विग्न हो उठा है। वहाँ दो बैलों में से एक तो बलवान् है, जो भारयुक्त जुए को खींच सकता है; परंतु दूसरा निर्बल है, प्राणशून्य-सा जान पड़ता है। वह इतना दुबला पतला हो गया है कि उसके शरीर में फैली हुई नाड़ियाँ दीख रही हैं। वह बड़े कष्ट से उस भार युक्त जुए को खींच पाता है। वासव ! मुझे उसी के लिये शोक हो रहा है। इन्द्र ! देखो-देखो, चाबुक से मार-मारकर उसे बार-बार पीड़ा दी जा रही है, तो भी उस जुए के मार को वहन करने में वह असमर्थ हो रहा है। यही देखकर मैं शोक से पीड़ित हो अत्यन्त दुखी हो गयी हूँ और करुणामग्न हो दोनों नेत्रों से आँसू बहाती हुई रो रही हूँ।

इन्द्र ने कहा- कल्याणी ! तुम्हारे तो सहस्त्रों पुत्र इसी प्रकार पीड़ित हो रहे हैं, फिर तुमने एक ही पुत्र के मार खाने पर यहाँ इतनी करुणा क्यों दिखायी?

सुरभि बोली- देवेन्द्र ! यदि मेरे सहस्त्रों पुत्र हैं, तो मैं उन सब के प्रति समान भाव ही रखती हूँ; परंतु दीन-दुखी पुत्र के प्रति अधिक दया उमड. आती है।

व्यासजी कहते हैं- कुरु राज ! सुरभि की यह बात सुनकर इन्द्र बडे. विस्मित हो गये। तब से वे पुत्रों को प्राणों से भी अधिक प्रिय मानने लगे। उस समय वहाँ पाकशासन भगवान् इन्द्र ने किसान के कार्य में विध्न डालते हुए सहसा भयंकर वर्षा की। इस प्रसंग में सुरभि ने जैसा कहा है, वह ठीक है, कौरव और पाण्डव सभी मिलकर तुम्हारे ही पुत्र हैं। परंतु राजन् ! सब पुत्रों में जो हीन हों, दयनीय दशा में पडे. हो, उन्हीं पर अधिक कृपा होनी चाहिये। वत्स ! जैसे पाण्डु मेरे पुत्र हैं, वैसे ही तुम भी हो, उसी प्रकार महाज्ञानी विदुर भी हैं। मैंने स्नेहवश ही तुम से ये बातें कहीं है। भारत ! दीर्घकाल से तुम्हारे एक सौ एक पुत्र हैं; किंतु पाण्डु के पाँच ही पुत्र देखे जाते हैं। वे भी भोले-भाले, छल-कपट से रहित हैं और अत्यन्त दुःख उठा रहे हैं। ‘वे कैसे जीवित रहेंगे और कैसे वृद्धि को प्राप्त होंगे?‘ इस प्रकार कुन्ती के उन दीन पुत्रों के प्रति सोचते हुए मेरे मन में बड़ा संताप होता है। राजन् ! यदि तुम चाहते हो कि समस्त कौरव यहाँ जीवित रहें, तो तुम्हारा पुत्र दुर्योधन पाण्डवों से मेल करके शान्ति पूर्वक रहे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत अरण्यपर्व में सुरभि-उपाख्‍यानविषयक नवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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