"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर

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==चौदहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)==
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==चतुर्दश (14) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : चौदहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 39 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
  
 
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अपने भाइयों के मुख से नाना प्रकार के वेदों के सिद्धान्तों को सुनकर भी जब कुन्ती पुत्र धर्मराज युधिष्ठिरकुछ नहीं बोले, तब महान् कुल में उत्पन्न हुई, युवतियों  में श्रेष्ठ, स्थूल नितम्ब और विशाल नेत्रों वाली, पतियों एवं विशेषतः राजा युधिष्ठिरके प्रति अभिमान रखने वाली, राजा की सदा ही लाड़िली, धर्म पर दृष्टि रखने वाली तथा धर्म को जानने वाली श्रीमती महारानी द्रौपदी हाथियों से घिरे हुए यूथपति गजराज की भाति सिंह-शादॅूल-सहश पराक्रमी भाइयों से घिरकर बैठे हुए पतिदेव नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी ओर देखकर उन्हें सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण परम मधुर वाणी में इस प्रकार बोली।
 
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अपने भाइयों के मुख से नाना प्रकार के वेदों के सिद्धान्तों को सुनकर भी जब कुन्ती पुत्र धर्मराज युधिष्ठिरकुछ नहीं बोले, तब महान् कुल में उत्पन्न हुई, युवतियों  में श्रेष्ठ, स्थूल नितम्ब और विशाल नेत्रों वाली, पतियों एवं विशेषतः राजा युधिष्ठिरके प्रति अभिमान रखने वाली, राजा की सदा ही लाड़िली, धर्म पर दृष्टि रखने वाली तथा धर्म को जानने वाली श्रीमती महारानी द्रौपदी हाथियों से घिरे हुए यूथपति गजराज की भाति सिंह-शादॅूल-सहश पराक्रमी भाइयों से घिरकर बैठे हुए पतिदेव नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी ओर देखकर उन्हें सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण परम मधुर वाणी में इस प्रकार बोली।
कुन्तीकुमार! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं; पपीहों के समान आपसे राज्य करने की रट लगा रहे हैं, फिर भी आप इनका अभिनन्दन नहीं करते? महाराज! उन्मत गजराजाओं के समान आपके ये बन्धु सदा आपके लिये दुःख-ही-दुःख उठाते आये हैं। अब तो इन्हें युक्तियुक्त वचनों द्वारा आनन्दित कीजिये। राजन्! द्वैतवन में ये सभी भाई जब आपके साथ सर्दी-गर्मी  और आधी-पानी का कष्ट भेाग रहे थे, उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुये कहा था ’शत्रुओं का दमन करने वाले वीर बन्धुओ! विजय की इच्छा वाले हम लोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर रथियों को रथहीन करके बड़े-बडे़ हाथियों का वध कर डालेंगे और घुड़सवार सहित रथों से इस पृथ्वी को पाट देंगे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न वसुधा का उपभोग करेंगे। उस समय प्र्याप्त दान-दक्षिणा वाले नाना प्रकार के समृद्धिशाली यज्ञों के द्वारा भगवान  की आराधना में लगे रहने से तुम लोगों को यह वनवास जनित दुःख सुखरूप में परिणत हो जायगा।’ धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! वीर महाराज! पहले द्वैतवन में इन भाइयों से स्वयं ही ऐसी बातें कहकर आज क्यों आप फिर हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो कायर और नपुंसक है, वह पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। वह न तो धन का उपार्जन कर सकता है और न उसे भोग ही सकता है। जैसे केवल कीचड़ में मछलियां नहीं होतीं। उसी प्रकार नपुंसक के घर में पुत्र नहीं होते। जो दण्ड देने की शक्ति नहीं रखता, उस क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देने वाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। भारत! दण्डहीन राजा की प्रजाओं को कभी सुख नहीं मिलता है। नृपश्रेष्ठ! समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, दान लेना, देना, अध्ययन और तपस्या- यहब्राह्मणका ही धर्म है, राजा का नहीं। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि ये दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरूषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीठ न दिखाबें। जियमें समयानुसार क्षमा और क्रोध दोनों प्रकट होते हैं, जो दान देता और कर लेता है, जिसमें शत्रुओं को भय दिखाने और शरणागतों को अभय देने की शक्ति है, जो दुष्टों को दण्ड देता और दीनों पर अनुग्रह करता है, वही धर्मज्ञ कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्रों के श्रवणों से मिली है, न दान में प्राप्त हुई है, न किसी को समझाने-बुझाने से उपलब्ध हुई है, न यज्ञ कराने से और न कहीं भीख मागने से ही प्राप्त हुई है। वह जो शत्रुओं की पराक्रम सम्पन्न एवं श्रेष्ठ सेना हाथी, घोडे़ और रथ तीनों अगों से सम्पन्न थी तथा द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य जिसकी रक्षा करते थे, उसका आपने बध किया है,तब यह पृथ्वी आपके अधिकार में आयी है, अतः वीर! टाप इसका उपभोग करें। प्रभो! महाराज! पुरूष सिंह! आपने अनेकों जनपदों से युक्त इस जम्बूद्वीप को अपने दण्ड से रौंद डाला है। नरेश्वर! जम्बूद्वीप के समान ही कौशद्वीप को जो महामेरू से परिश्रम है, आपने दण्ड से कुचल दिया है। नरेन्द्र! क्रोश्यद्वीप के समान ही शाकद्वीप को जो महामेरू से पूर्व है, आपने दण्ड देकर दबा दिया है। पुरूष सिंह! महामेरू से उत्तर शाकद्वीप के बराबर ही जो भद्राश्व वर्ष है, उसे भी आपके दण्ड से दबना पड़ा है। वीर! इनके अतिरिक्त भी जो बहुत-से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तद्वीप हैं, समुद्र लाघकर उन्हें भी आपने दण्ड द्वारा दबाकर अपने अधिकार में कर लिया है। भरतनन्दन! महाराज! आप ऐसे-ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी प्रसन्न नहीं हो रहे हैं। भारत! मतवाले साड़ों और बलशाली गजराजों के समान आने इन भाइयों को देखकर आप इनका अभिनन्दन कीजिये। पुरूष सिंह! शत्रुओं को संताप देने वाले आपके ये सभी भाई शत्रु-सैनिकों का वेग सहन करने में समर्थ हैं, देवताओं के समान तेजस्वी हैं, मेरा विश्वास है कि इनमें से एक वीर भी मुझे पूर्ण सुखी बना सकता है, फिर ये मेरे पाचों नरश्रेष्ठ पति क्या नहीं कर सकते हैं? शरीर को चेष्टाशील बनाने में सम्पूर्ण इन्द्रियों का जो स्थान है, वही मेरे जीवन को सुखी बनाने में इन सबका है। महाराज! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोली। वे सर्वज्ञ है और सब कुछ देखने वाली हैं। उन्होने मुझसे कहा था- ’पांचालराजकुमारी! युधिष्ठिरशीघ्रतापूर्वक पराक्रम दिखाने वाले हैं। ये कई सहस्त्र राजाओं का संहार करके तुम्हें सुख के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करेंगे।’ किंतु जनेश्वर! आज आपका यह मोह देखकर मुझे अपनी सास की कही हुई बात भी व्यर्थ होती दिखायी देती है। जिनका जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, वे सभी उसी का अनुकरण करने लगते हैं। महाराज! आपके उन्माद से सारे पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं। नरेश्वर! यदि ये आपके भाई उन्मत्त नहीं हेए होते तो नास्तिकों के साथ आपको भी बाधकर स्वयं इस बसुधा का शासन करते।
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कुन्तीकुमार! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं; पपीहों के समान आपसे राज्य करने की रट लगा रहे हैं, फिर भी आप इनका अभिनन्दन नहीं करते? महाराज! उन्मत गजराजाओं के समान आपके ये बन्धु सदा आपके लिये दुःख-ही-दुःख उठाते आये हैं। अब तो इन्हें युक्तियुक्त वचनों द्वारा आनन्दित कीजिये। राजन्! द्वैतवन में ये सभी भाई जब आपके साथ सर्दी-गर्मी  और आधी-पानी का कष्ट भेाग रहे थे, उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुये कहा था ’शत्रुओं का दमन करने वाले वीर बन्धुओ! विजय की इच्छा वाले हम लोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर रथियों को रथहीन करके बड़े-बडे़ हाथियों का वध कर डालेंगे और घुड़सवार सहित रथों से इस पृथ्वी को पाट देंगे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न वसुधा का उपभोग करेंगे। उस समय प्र्याप्त दान-दक्षिणा वाले नाना प्रकार के समृद्धिशाली यज्ञों के द्वारा भगवान  की आराधना में लगे रहने से तुम लोगों को यह वनवास जनित दुःख सुखरूप में परिणत हो जायगा।’ धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! वीर महाराज! पहले द्वैतवन में इन भाइयों से स्वयं ही ऐसी बातें कहकर आज क्यों आप फिर हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो कायर और नपुंसक है, वह पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। वह न तो धन का उपार्जन कर सकता है और न उसे भोग ही सकता है। जैसे केवल कीचड़ में मछलियां नहीं होतीं। उसी प्रकार नपुंसक के घर में पुत्र नहीं होते। जो दण्ड देने की शक्ति नहीं रखता, उस क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देने वाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। भारत! दण्डहीन राजा की प्रजाओं को कभी सुख नहीं मिलता है। नृपश्रेष्ठ! समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, दान लेना, देना, अध्ययन और तपस्या- यहब्राह्मणका ही धर्म है, राजा का नहीं। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि ये दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरूषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीठ न दिखाबें। जियमें समयानुसार क्षमा और क्रोध दोनों प्रकट होते हैं, जो दान देता और कर लेता है, जिसमें शत्रुओं को भय दिखाने और शरणागतों को अभय देने की शक्ति है, जो दुष्टों को दण्ड देता और दीनों पर अनुग्रह करता है, वही धर्मज्ञ कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्रों के श्रवणों से मिली है, न दान में प्राप्त हुई है, न किसी को समझाने-बुझाने से उपलब्ध हुई है, न यज्ञ कराने से और न कहीं भीख मागने से ही प्राप्त हुई है। वह जो शत्रुओं की पराक्रम सम्पन्न एवं श्रेष्ठ सेना हाथी, घोडे़ और रथ तीनों अगों से सम्पन्न थी तथा द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य जिसकी रक्षा करते थे, उसका आपने बध किया है,तब यह पृथ्वी आपके अधिकार में आयी है, अतः वीर! टाप इसका उपभोग करें।  
जो मूर्ख इस प्रकार का काम करता है, वह कभी कल्याण का भागी नहीं होता। जो उन्मादग्रस्त होकर उलटे मार्ग से चलने लगता है, उसके लिये धूप की सुगंध देकर, आखों में सिद्ध अंजन लगाकर, नाक में सुघनी सुघाकर अथवा और कोई औषध खिलाकर उसके रोग की चिकित्सा करनी चाहिये। भरतश्रेष्ठ! मैं ही संसार की सब स्त्रियों में अधम हॅू, जो कि पुत्रों से हीन हो जाने पर भी जीवित रहना चाहती हॅू। ये सब लोग आपको समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं; फिर भी आप ध्यान नहीं देते। मैं इस समय जो कुछ कह रही हॅू मेरी यह बात झूठी नहीं है। आप सारी पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं ही विपत्ति खड़ी कर रहे हैं। नृपश्रेष्ठ! जैसे मान्यधाता और अम्बरीष भूमण्डल के समस्त राजाओं में सम्मानित थे, राजन् वैसे ही आप भी सुशोभित हो रहे हैं। नरेश्वर! धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए पर्वत, वन और द्वीपोंसहित पृथ्वी देवी का शासन कीजिये। इस प्रकार उदासीन न होइये। नृपश्रेष्ठ! नाना प्रकार के रूज्ञों का अनुष्ठान और शत्रुओं के साथ युद्ध कीजिये। ब्राह्मंणों को धन, भोगसामग्री और वस्त्रों का दान कीजिये।
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में द्रौपद वाक्य विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
 
 
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 13 श्लोक 1- 13|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 15 श्लोक 1- 24}}  
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-13अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 14 श्लोक 20-39}}  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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१२:३५, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण

चतुर्दश (14) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अपने भाइयों के मुख से नाना प्रकार के वेदों के सिद्धान्तों को सुनकर भी जब कुन्ती पुत्र धर्मराज युधिष्ठिरकुछ नहीं बोले, तब महान् कुल में उत्पन्न हुई, युवतियों में श्रेष्ठ, स्थूल नितम्ब और विशाल नेत्रों वाली, पतियों एवं विशेषतः राजा युधिष्ठिरके प्रति अभिमान रखने वाली, राजा की सदा ही लाड़िली, धर्म पर दृष्टि रखने वाली तथा धर्म को जानने वाली श्रीमती महारानी द्रौपदी हाथियों से घिरे हुए यूथपति गजराज की भाति सिंह-शादॅूल-सहश पराक्रमी भाइयों से घिरकर बैठे हुए पतिदेव नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी ओर देखकर उन्हें सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण परम मधुर वाणी में इस प्रकार बोली। कुन्तीकुमार! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं; पपीहों के समान आपसे राज्य करने की रट लगा रहे हैं, फिर भी आप इनका अभिनन्दन नहीं करते? महाराज! उन्मत गजराजाओं के समान आपके ये बन्धु सदा आपके लिये दुःख-ही-दुःख उठाते आये हैं। अब तो इन्हें युक्तियुक्त वचनों द्वारा आनन्दित कीजिये। राजन्! द्वैतवन में ये सभी भाई जब आपके साथ सर्दी-गर्मी और आधी-पानी का कष्ट भेाग रहे थे, उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुये कहा था ’शत्रुओं का दमन करने वाले वीर बन्धुओ! विजय की इच्छा वाले हम लोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर रथियों को रथहीन करके बड़े-बडे़ हाथियों का वध कर डालेंगे और घुड़सवार सहित रथों से इस पृथ्वी को पाट देंगे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न वसुधा का उपभोग करेंगे। उस समय प्र्याप्त दान-दक्षिणा वाले नाना प्रकार के समृद्धिशाली यज्ञों के द्वारा भगवान की आराधना में लगे रहने से तुम लोगों को यह वनवास जनित दुःख सुखरूप में परिणत हो जायगा।’ धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! वीर महाराज! पहले द्वैतवन में इन भाइयों से स्वयं ही ऐसी बातें कहकर आज क्यों आप फिर हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो कायर और नपुंसक है, वह पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। वह न तो धन का उपार्जन कर सकता है और न उसे भोग ही सकता है। जैसे केवल कीचड़ में मछलियां नहीं होतीं। उसी प्रकार नपुंसक के घर में पुत्र नहीं होते। जो दण्ड देने की शक्ति नहीं रखता, उस क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देने वाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। भारत! दण्डहीन राजा की प्रजाओं को कभी सुख नहीं मिलता है। नृपश्रेष्ठ! समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, दान लेना, देना, अध्ययन और तपस्या- यहब्राह्मणका ही धर्म है, राजा का नहीं। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि ये दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरूषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीठ न दिखाबें। जियमें समयानुसार क्षमा और क्रोध दोनों प्रकट होते हैं, जो दान देता और कर लेता है, जिसमें शत्रुओं को भय दिखाने और शरणागतों को अभय देने की शक्ति है, जो दुष्टों को दण्ड देता और दीनों पर अनुग्रह करता है, वही धर्मज्ञ कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्रों के श्रवणों से मिली है, न दान में प्राप्त हुई है, न किसी को समझाने-बुझाने से उपलब्ध हुई है, न यज्ञ कराने से और न कहीं भीख मागने से ही प्राप्त हुई है। वह जो शत्रुओं की पराक्रम सम्पन्न एवं श्रेष्ठ सेना हाथी, घोडे़ और रथ तीनों अगों से सम्पन्न थी तथा द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य जिसकी रक्षा करते थे, उसका आपने बध किया है,तब यह पृथ्वी आपके अधिकार में आयी है, अतः वीर! टाप इसका उपभोग करें।


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