"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 81-100" के अवतरणों में अंतर

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==तीन सौ चलीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)==
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==चत्वरिंशदधिकत्रिशततम (340) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वरिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 81-100 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ चलीसवाँ अध्याय: श्लोक 93-119 का हिन्दी अनुवाद</div>
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‘सुरश्रेष्ठगण ! तुम लोग प्राणियों को उनके कर्म, उन कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली गति तथा नियत काल तक की आयु प्रदान करो। ‘यह सत्ययुग नामक श्रेष्ठ समय चल रहा है। इस युग में यज्ञ-पशुओं की हिंसा नहीं की जाती। अहिंसा-धर्म के विपरीत यहाँ कुछ भी नहीं होता है। ‘देवताओं ! इस सत्ययुग में चारों चरणों से युक्त सम्पूर्ण धर्म का पालन होगा। तदनन्तर त्रेतायुग आयेगा, जिसमें वेदत्रयी का प्रचार होगा। ‘उस युग में यज्ञ में मन्त्रों द्वारा पवित्र किये गये पशुओं का वध किया जायगा<ref>पशुवध से क्या अभिप्राय है, ठीक समझ में नहीं आया।</ref>और धर्म का एक पाद - चतुर्थ अंश कम होगा। ‘उसके वाद द्वापर युग का आगमन होगा। वह समय धर्म और अधर्म के सम्मिश्रण से युक्त होगा। उस युग में धर्म के दो चरण नष्ट हो जायँगे। ‘तदनन्तर पुष्य नक्षत्र में कलियुग का पदार्पण होगा। उस समय यत्र-तत्र धर्म का एक चरण ही शेष रह जायेगा’। तब देवताओं और देवर्षियों ने उपर्युक्त बात कहने वाले गुरुस्वरूप भगवान  से कहा - ‘भगवन् ! जब कलियुग में जहाँ-कहीं भी धर्म का एक ही चरण अवशिष्ट रहेगा, तब हमें क्या करना होगा ? यह बताइये’।
  
उस समय अमित पराक्रमी भगवान हयग्रीव का दर्शन करके सम्पूर्ण जगत् के हित की कामना से लोककर्ता भगवान् ब्रह्मा ने उन्हें मसतक झुकाकर प्रणाम किया और उन वरदायक देवता के सम्मुख वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब भगवान् ने उनको हृदय से लगाकर यह बात सुनायी।
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श्रीभगवान बोले - सुरश्रेष्ठगण ! जहाँ वेद, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रियसंयम और अहिंसाधर्म प्रचलित हों, उसी देश का तुम्हें सेवन करना चाहिये। ऐसा करने से तुम्हें अधर्म अपने एक पैर से भी नहीं छू सकेगा।
  
श्रीभगवान् बोले - ब्रह्मन् ! तुम सम्पूर्ण लोकों के समस्त कर्मों और उनसे मिलने वाली गतियों का विधिपुर्वक चिन्तन करो; क्योंकि तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियों के धाता हो, तुम्हीं सबके प्रभु हो और तुम्हीं इस जगत् के गुरु हो। तुम पर यह भार रखकर मैं अनायास ही धैर्य धारण करूँगा। जब कभी तुम्हारे लिये देवताओं का कार्य असह्य हो जायगा, तब मैं आत्मज्ञान का उपदेश देने के लिये तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा। उेसा कहकर भगवान् हयग्रीव वहीं अनतर्धान हो गये। भगवान् का यह उपदेश पाकर ब्रह्मा भी शीघ्र ही अपने लोक को चले गये। इस प्रकार ये महाभाग सनातन पुरुष भगवान् पद्मनाभ यज्ञों में अग्रभोक्तस और सदा ही यज्ञ के पोषक एवं प्रवर्तक बताये गये हैं। वे कभी अक्षयधर्मी महात्माओं के निवृत्तिधर्म का आश्रय लेते हैं और कभी लोक की विचित्र चित्तवृत्ति करके प्रवृत्तिधर्म का विधान करते हैं। वे ही भगवान् नारायण प्रजा के आदि, मध्य और अनत हैं। वे ही धाता, धेय, कर्ता और कार्य हैं। वे ही युगान्त के समय सम्पूर्ण लोकों का संहार करके सो जाते हैं और वे ही कल्प के आदि में जाग्रत हो सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं। शिष्यों तुम उन्हीं अजन्मा, विश्वरूप, सम्पूर्ण देवताओं के आश्रय निर्गुण परमात्मा नारायणदेव को नमसकार करो। वे ही महाभूतों के अधिपति तथा रुद्रों, आदित्यों और वसुओं के स्वामी हैं। उन्हें नमसकार करो। वे अश्विनीकुमारों के पति, मरुद्गणों के पालक, वेद और यज्ञों के अधिपति तथा वेदांगों के भी स्वामी हैं। उन्हें प्रणाम करो। जो सदा समुद्र में निवास करते हैं, जिनका केश मूँज के समान है तथा जो समसत प्राणियों को मोक्षणर्म का उपदेश देते हैं, उन याान्तरूप श्रीहरि को नमस्कार करो। जो तप, तेज, यश, वाणी तथा सरिताओं के स्वामी एवं नित्य संरक्षक हैं, उन श्रीहरि को नमसकार करो। जो जटाजूटधारी, एक सींग वाले वराह, बुद्धिमान् विवस्वान्, हाग्रीव तथा चतुर्मुर्तिणारी हैं, उन श्रीनारायणदेव को सदा नमस्कार करो। जिनका स्वरूप गुह्य है, जो ज्ञानरूपी नेत्र से ही देखे जाते हैं तथा अक्षर और क्षररूप हैं, उन श्रीहरि को प्रणाम करो। ये अविनाशी नारायणदेव सर्वत्र संचरण करते हैं; इनकी सर्वत्र गति है। ये ही परब्रह्म हैं। विज्ञानमय नेत्र से ही इनका दर्शन एवं ज्ञान हो सकता है। पूर्वकाल में मैंने ये सारी बातें यथार्थरूप से कही हें। तुम मेरी बात मानो और सर्वेश्वर श्रीहरि का सेवन करो। वेदमन्त्रों द्वारा उन्हीं की महिमा का गान और उन्हीं का विधिपूर्वक पूजन करो।
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व्यासजी कहते हैं - शिष्यों ! भगवान  का यह उपदेश पाकर ऋषियों सहित देवता उन्हें नमसकार करके अपने अभीष्ट देशों को चले गये। स्वगवासी देवताओं के चले जाने पर अकेले ब्रह्माजी ही वहाँ खड़े रहे। वे अनिरुद्ध विग्रह में स्थित भगवान  ने श्रीहरि का दर्शन करना चाहते थे। तब भगवान  महान् हयग्रीवरूप धारण करके ब्रह्माजी को दर्शन दिया। वे कमण्डलु और त्रिदण्ड धारण करके छहों अंगों सहित वेदों की आवृत्ति कर रहे थे।
  
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! परम बुद्धिमान् वेदव्यास ने हम सब शिष्यों को तथा अपने परम धर्मज्ञ पुत्र शुकदेव को ऐसा ही उपदेश दिया। प्रजानाथ ! फिर हमारे उपाध्याय व्यास ने हमारे साथ चारों वेदों की ऋचाओं द्वारा उन नारायणदेव का सतवन किया। राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सूनाया। पूर्वकाल में मेरे गुरु व्यासजी ने मुझे ऐसा ही उपदेश दिया था। जो प्रतिदिन इसे सुनता है और जो भगवान् को नमस्कार करके एकाग्रचित्त हो सदा इसका पाठ करता है, वह बुद्धिमान्, बलवान्, रूपवान् तथारोगरहित होता है। रोगी रोग से और बँधा हुआ पुरुष बन्धन से मुक्त हो जाता है। कामना वाला पुरुष मनोवांछित कामनाओं को पाता है तथा बड़ी भारी आयु प्राप्त कर लेता है। ब्राह्मण सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता और क्षत्रिय विजयी होता है। वैश्य इसको पढ़ने और सुनने से महान् लाभ का भागी होता है। शूद्र सुख पाता है। पुत्रहीन को पुत्र और कन्या को मनोवांछित पति की प्राप्ति होती है। जिसका गर्भ अटक गया हो, वह इसको सुनने से उस संकट से छूट जाती है। गर्भवती स्त्री यथासमय पुत्र पैदा करती है। वन्ध्या भी प्रसव को प्राप्त होती है तथा उसका वह प्रसव पुत्र-पौत्र एवं समृद्धि से सम्पन्न होता है। जो मार्ग में इसका पाठ करता है, वह कुशलतापूर्वक अपनी यात्रा पूरी करता है। इसे पढ़ने और सुनने वाला पुरुष जिस वस्तु की इच्छा करताहै, वह उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है। पुरुष प्रवर महात्मा महर्षि व्यास के कहे हुए इस सिद्धान्तभूत वचन को तथा ऋषियों और देवताओं के समागम-सम्बन्धी इस वृत्तान्त को श्रवण करके भक्तजन उत्तम सुख पाते हैं।
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उस समय अमित पराक्रमी भगवान हयग्रीव का दर्शन करके सम्पूर्ण जगत् के हित की कामना से लोककर्ता भगवान ब्रह्मा ने उन्हें मसतक झुकाकर प्रणाम किया और उन वरदायक देवता के सम्मुख वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब भगवान  ने उनको हृदय से लगाकर यह बात सुनायी।
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
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श्रीभगवान  बोले - ब्रह्मन् ! तुम सम्पूर्ण लोकों के समस्त कर्मों और उनसे मिलने वाली गतियों का विधिपुर्वक चिन्तन करो; क्योंकि तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियों के धाता हो, तुम्हीं सबके प्रभु हो और तुम्हीं इस जगत् के गुरु हो। तुम पर यह भार रखकर मैं अनायास ही धैर्य धारण करूँगा। जब कभी तुम्हारे लिये देवताओं का कार्य असह्य हो जायगा, तब मैं आत्मज्ञान का उपदेश देने के लिये तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा। उेसा कहकर भगवान  हयग्रीव वहीं अनतर्धान हो गये। भगवान  का यह उपदेश पाकर ब्रह्मा भी शीघ्र ही अपने लोक को चले गये। इस प्रकार ये महाभाग सनातन पुरुष भगवान  पद्मनाभ यज्ञों में अग्रभोक्तस और सदा ही यज्ञ के पोषक एवं प्रवर्तक बताये गये हैं। वे कभी अक्षयधर्मी महात्माओं के निवृत्तिधर्म का आश्रय लेते हैं और कभी लोक की विचित्र चित्तवृत्ति करके प्रवृत्तिधर्म का विधान करते हैं। वे ही भगवान  नारायण प्रजा के आदि, मध्य और अनत हैं। वे ही धाता, धेय, कर्ता और कार्य हैं। वे ही युगान्त के समय सम्पूर्ण लोकों का संहार करके सो जाते हैं और वे ही कल्प के आदि में जाग्रत हो सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं।
  
 
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 59-80|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 101-119}}  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 340 श्लोक 63-92|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 341 श्लोक 1-30}}  
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्तिपर्व]]
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्ति पर्व]]
 
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०८:३९, १ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

चत्वरिंशदधिकत्रिशततम (340) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वरिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 81-100 का हिन्दी अनुवाद

‘सुरश्रेष्ठगण ! तुम लोग प्राणियों को उनके कर्म, उन कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली गति तथा नियत काल तक की आयु प्रदान करो। ‘यह सत्ययुग नामक श्रेष्ठ समय चल रहा है। इस युग में यज्ञ-पशुओं की हिंसा नहीं की जाती। अहिंसा-धर्म के विपरीत यहाँ कुछ भी नहीं होता है। ‘देवताओं ! इस सत्ययुग में चारों चरणों से युक्त सम्पूर्ण धर्म का पालन होगा। तदनन्तर त्रेतायुग आयेगा, जिसमें वेदत्रयी का प्रचार होगा। ‘उस युग में यज्ञ में मन्त्रों द्वारा पवित्र किये गये पशुओं का वध किया जायगा[१]और धर्म का एक पाद - चतुर्थ अंश कम होगा। ‘उसके वाद द्वापर युग का आगमन होगा। वह समय धर्म और अधर्म के सम्मिश्रण से युक्त होगा। उस युग में धर्म के दो चरण नष्ट हो जायँगे। ‘तदनन्तर पुष्य नक्षत्र में कलियुग का पदार्पण होगा। उस समय यत्र-तत्र धर्म का एक चरण ही शेष रह जायेगा’। तब देवताओं और देवर्षियों ने उपर्युक्त बात कहने वाले गुरुस्वरूप भगवान से कहा - ‘भगवन् ! जब कलियुग में जहाँ-कहीं भी धर्म का एक ही चरण अवशिष्ट रहेगा, तब हमें क्या करना होगा ? यह बताइये’।

श्रीभगवान बोले - सुरश्रेष्ठगण ! जहाँ वेद, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रियसंयम और अहिंसाधर्म प्रचलित हों, उसी देश का तुम्हें सेवन करना चाहिये। ऐसा करने से तुम्हें अधर्म अपने एक पैर से भी नहीं छू सकेगा।

व्यासजी कहते हैं - शिष्यों ! भगवान का यह उपदेश पाकर ऋषियों सहित देवता उन्हें नमसकार करके अपने अभीष्ट देशों को चले गये। स्वगवासी देवताओं के चले जाने पर अकेले ब्रह्माजी ही वहाँ खड़े रहे। वे अनिरुद्ध विग्रह में स्थित भगवान ने श्रीहरि का दर्शन करना चाहते थे। तब भगवान महान् हयग्रीवरूप धारण करके ब्रह्माजी को दर्शन दिया। वे कमण्डलु और त्रिदण्ड धारण करके छहों अंगों सहित वेदों की आवृत्ति कर रहे थे।

उस समय अमित पराक्रमी भगवान हयग्रीव का दर्शन करके सम्पूर्ण जगत् के हित की कामना से लोककर्ता भगवान ब्रह्मा ने उन्हें मसतक झुकाकर प्रणाम किया और उन वरदायक देवता के सम्मुख वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब भगवान ने उनको हृदय से लगाकर यह बात सुनायी।

श्रीभगवान बोले - ब्रह्मन् ! तुम सम्पूर्ण लोकों के समस्त कर्मों और उनसे मिलने वाली गतियों का विधिपुर्वक चिन्तन करो; क्योंकि तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियों के धाता हो, तुम्हीं सबके प्रभु हो और तुम्हीं इस जगत् के गुरु हो। तुम पर यह भार रखकर मैं अनायास ही धैर्य धारण करूँगा। जब कभी तुम्हारे लिये देवताओं का कार्य असह्य हो जायगा, तब मैं आत्मज्ञान का उपदेश देने के लिये तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा। उेसा कहकर भगवान हयग्रीव वहीं अनतर्धान हो गये। भगवान का यह उपदेश पाकर ब्रह्मा भी शीघ्र ही अपने लोक को चले गये। इस प्रकार ये महाभाग सनातन पुरुष भगवान पद्मनाभ यज्ञों में अग्रभोक्तस और सदा ही यज्ञ के पोषक एवं प्रवर्तक बताये गये हैं। वे कभी अक्षयधर्मी महात्माओं के निवृत्तिधर्म का आश्रय लेते हैं और कभी लोक की विचित्र चित्तवृत्ति करके प्रवृत्तिधर्म का विधान करते हैं। वे ही भगवान नारायण प्रजा के आदि, मध्य और अनत हैं। वे ही धाता, धेय, कर्ता और कार्य हैं। वे ही युगान्त के समय सम्पूर्ण लोकों का संहार करके सो जाते हैं और वे ही कल्प के आदि में जाग्रत हो सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पशुवध से क्या अभिप्राय है, ठीक समझ में नहीं आया।

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