"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 57-61" के अवतरणों में अंतर

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==तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)==
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==द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 57-61 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: श्लोक 57-68 का हिन्दी अनुवाद</div>
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प्रजापति दक्ष से साठ कन्याएँ थीं। उनमें से तरह का विवाह उन्होंने कश्यपजी के साथ कर दिया। दस कन्याएँ धर्म को, दस मनु को और सत्ताइस कन्याएँ चन्द्रमा को दे डालीं। उन सत्ताइस कन्याओं की नक्षत्र नाम से प्रसिद्धि हुई। यद्यपि वे सब-की-सब एक समान रूपवती थीं तो भी चन्द्रमा सबसे अधिक रोहिणी पर ही प्रेम करने लगे। यह देख शेष पत्नियों के मन मे ईष्र्या हुई और उन्होंने पिता के समीप जाकर यह बात बतायी- ‘भगवन् ! हम सब बहिनों का प्रभाव एक सा है तो भी चन्द्रदेव राहिणी पर ही अधिक स्नेह रचाते हैं।’ यह सुनकर दक्ष ने कहा- ‘इनके भीतर यक्ष्मा ने प्रवेश होगा।’ इस प्रकार ब्राह्मण दक्ष के शाप से राजा सोम के शरीर में यक्ष्मा ने प्रवेश किया। यक्ष्मा से ग्रस्त होकर राजा सोम प्रजापति दक्ष के पास गये। रोष का कारण पूछने पर दक्ष ने उनसे कहा- ‘तुम अपनी सभी पत्नियों के प्रति समान बर्ताव नहीं रखते हो, उसी का यह दण्ड है।- वहाँ दूसरे ऋषियों ने सोम से कहा- ‘तुम यक्ष्मा से क्षीण होते चले जा रहे हो। अतः पश्चिम दिशा में समुद्र के तटपर जो हिसण्यसर नामक तीर्थ है, वहाँ जाकर अपने-आपको स्नान कराओ।’ तब सोम ने हिरण्यसर तीर्थ में जाकरवहाँ स्नान किया। स्नान करके उन्होंने अपने-आपको पाप से छुड़ाया। उस तीर्थ में वे दिव्य प्रभा से प्रभासित हो उठे थे, इसलिये उसी समय से वह स्थान प्रभासतीर्थ के नाम ये विख्यात हो गया। उसी शाप से आज भी चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में अमावस्या तक क्षीण होता रहता है और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक उसकी वृद्धि होती रहती है। उसका मण्डलाकार स्वरूप मेघ की श्याम रेखा से आछन्न-सा दिखासी देता है। उसके शरीर में खरगोश-सा विन्ह मेघ के समान श्यामवर्ण का है। वह स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। पूर्वकाल की बात है, मेरु पर्वत के पूर्वोत्तर भाग में स्थूलशिरा नामक महर्षि बड़ी भारी तपस्या कर रहे थें उनके तपसया करते समय सब प्रकार सुगन्ध लिये पवित्र वायु बहने लगी। उस वायु ने प्रवाहित होकर मुनि के शरीर कर सपर्श किया। तपस्या से संतप्त शरीर वाले उन कृशकाय मुनि ने उस वायु वीजित हो अपने हृदय में बड़े संतोष का अनुभव किया। वायु के द्वारा व्यजन डुलाने से संतुष्ट हुए मुनि के समक्ष वृक्षों ने तत्काल फूल की शोभा दिखलायी। इससे रुष्ट होकर मुनि ने उन्हें शाप दिया कि तुम हर समय फूलों से भरे-पूरे नहीं रहोगे। एक समय भगवान  नारायण लोकहित के लिये बडवामुख नामक महर्षि हुए। जब े मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे थे, उन्हीं दिनों उन्होंने समुद्र का आव्हान किया; किन्तु वह नहीं आया। इससे अमर्ष में भरकर उन्होंने अपने शरीर की गर्मी से समुद्र को चंचल कर दिया और पसीने के प्रवाह की भाँति उसमें खारापन प्रकट कर दिया। साथ ही उससे कहा- ‘समुद्र ! तू पीने योग्य नहीं रह जायगा। तेरा यह जल बडवामुख के द्वारा बारंबार पीया जाने पर मधुर होगा।’ यह बात आज भी देखने में आती है। बडवामुखसंज्ञक अग्नि समुद्र से जल लेकर पीती है।  
 
 
 
 
प्रजापति दक्ष से साठ कन्याएँ थीं। उनमें से तरह का विवाह उन्होंने कश्यपजी के साथ कर दिया। दस कन्याएँ धर्म को, दस मनु को और सत्ताइस कन्याएँ चन्द्रमा को दे डालीं। उन सत्ताइस कन्याओं की नक्षत्र नाम से प्रसिद्धि हुई। यद्यपि वे सब-की-सब एक समान रूपवती थीं तो भी चन्द्रमा सबसे अधिक रोहिणी पर ही प्रेम करने लगे। यह देख शेष पत्नियों के मन मे ईष्र्या हुई और उन्होंने पिता के समीप जाकर यह बात बतायी- ‘भगवन् ! हम सब बहिनों का प्रभाव एक सा है तो भी चन्द्रदेव राहिणी पर ही अधिक स्नेह रचाते हैं।’ यह सुनकर दक्ष ने कहा- ‘इनके भीतर यक्ष्मा ने प्रवेश होगा।’ इस प्रकार ब्राह्मण दक्ष के शाप से राजा सोम के शरीर में यक्ष्मा ने प्रवेश किया। यक्ष्मा से ग्रस्त होकर राजा सोम प्रजापति दक्ष के पास गये। रोष का कारण पूछने पर दक्ष ने उनसे कहा- ‘तुम अपनी सभी पत्नियों के प्रति समान बर्ताव नहीं रखते हो, उसी का यह दण्ड है।- वहाँ दूसरे ऋषियों ने सोम से कहा- ‘तुम यक्ष्मा से क्षीण होते चले जा रहे हो। अतः पश्चिम दिशा में समुद्र के तटपर जो हिसण्यसर नामक तीर्थ है, वहाँ जाकर अपने-आपको स्नान कराओ।’ तब सोम ने हिरण्यसर तीर्थ में जाकरवहाँ स्नान किया। स्नान करके उन्होंने अपने-आपको पाप से छुड़ाया। उस तीर्थ में वे दिव्य प्रभा से प्रभासित हो उठे थे, इसलिये उसी समय से वह स्थान प्रभासतीर्थ के नाम ये विख्यात हो गया। उसी शाप से आज भी चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में अमावस्या तक क्षीण होता रहता है और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक उसकी वृद्धि होती रहती है। उसका मण्डलाकार स्वरूप मेघ की श्याम रेखा से आछन्न-सा दिखासी देता है। उसके शरीर में खरगोश-सा विन्ह मेघ के समान श्यामवर्ण का है। वह स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। पूर्वकाल की बात है, मेरु पर्वत के पूर्वोत्तर भाग में स्थूलशिरा नामक महर्षि बड़ी भारी तपस्या कर रहे थें उनके तपसया करते समय सब प्रकार सुगन्ध लिये पवित्र वायु बहने लगी। उस वायु ने प्रवाहित होकर मुनि के शरीर कर सपर्श किया। तपस्या से संतप्त शरीर वाले उन कृशकाय मुनि ने उस वायु वीजित हो अपने हृदय में बड़े संतोष का अनुभव किया। वायु के द्वारा व्यजन डुलाने से संतुष्ट हुए मुनि के समक्ष वृक्षों ने तत्काल फूल की शोभा दिखलायी। इससे रुष्ट होकर मुनि ने उन्हें शाप दिया कि तुम हर समय फूलों से भरे-पूरे नहीं रहोगे। एक समय भगवान  नारायण लोकहित के लिये बडवामुख नामक महर्षि हुए। जब े मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे थे, उन्हीं दिनों उन्होंने समुद्र का आव्हान किया; किन्तु वह नहीं आया। इससे अमर्ष में भरकर उन्होंने अपने शरीर की गर्मी से समुद्र को चंचल कर दिया और पसीने के प्रवाह की भाँति उसमें खारापन प्रकट कर दिया। साथ ही उससे कहा- ‘समुद्र ! तू पीने योग्य नहीं रह जायगा। तेरा यह जल बडवामुख के द्वारा बारंबार पीया जाने पर मधुर होगा।’ यह बात आज भी देखने में आती है। बडवामुखसंज्ञक अग्नि समुद्र से जल लेकर पीती है। हिमवान् की पुत्री उमा को जब वह कुमारी अवस्था में थी तभी रुद्र ने पाने की इच्छा की। दूसरी और से महर्षि भृगु भी वहाँ आकर हिमवान् से बोले- ‘अपनी यह कन्या मुझे दे दो।’ तब हिमवान् ने उनसे कहा- ‘इस कन्या के लिये देख-सुनकर लक्षित किये हुए वर रुद्रदेव हैं।’ तब भृगु ने कहा- ‘मैं कन्या का वरण करने की भावना लेकर यहाँ आया था, किंतु तुमने मेरी उपेक्षा का दी है; इसकलये मैं शाप देता हूँ कि तुम रत्नों के भण्डार नहीं हाओगे’। आज भी महर्षि का वचन हिमवान् पर ज्यों-का त्यों लागू हो रहा है। ऐसा ब्राह्मणों का माहात्म्य है। क्षत्रिय जाति भी ब्राह्मणों की कृपा से ही सदा रहने वाली इस अविनाशी पृथ्वी को पत्नी की भाँति पाकर इसका उपभोग करती है। यह जो अग्नि और सोम सम्बन्धी ब्रह्म है, उसी के द्वारा सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है। कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा (अग्नि और सोम) मेरे नेत्र हैं तथा उनकी किरणों को केश कहा गया है। सूर्य और चन्द्रमा जगत् को क्रमशः ताप और मोद प्रदान करते हुए पृथक्-पृथक् उदित होते हैं। अब मैं अपने नामों की व्याख्या करूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगत् को मोद और ताप प्रदान करने के कारण चन्द्रमा और सूर्य हर्ष दायक होते हैं। पाण्डुनन्दन ! अग्नि और सोम द्वारा किये गये इन मर्कों द्वारा मैं विश्वभावन वरदायक ईश्वर कह ‘हृषीकेश’<ref> सूर्य और चन्द्रमा ही अग्नि एवं सोम हैं। वेजगत् को हर्ष प्रदान करने के कारण-‘हृषी’ कहलाते हैं। वे ही भगवान  के केश अर्थात् किरणें हैं, इसलिये भगवान  का नाम ‘हृषीकेश’ है।</ref>कहलाता हूँ। यज्ञ में ‘इलोपहूता सह दिवा’ आदि मन्त्र से आव्हान करने पर मैं अपना भाग हरण (स्वीकार) करता हूँ तथा मेरे यारीर का रंग भी हरित (श्याम) है, इसलिये मुझे ‘हरि’ कहते हैं।
 
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 342 श्लोक 49-56|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 342 श्लोक 69-88}}
 
  
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 50-56|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 342 श्लोक 62-76}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०६:१५, २ अगस्त २०१५ का अवतरण

द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 57-61 का हिन्दी अनुवाद

प्रजापति दक्ष से साठ कन्याएँ थीं। उनमें से तरह का विवाह उन्होंने कश्यपजी के साथ कर दिया। दस कन्याएँ धर्म को, दस मनु को और सत्ताइस कन्याएँ चन्द्रमा को दे डालीं। उन सत्ताइस कन्याओं की नक्षत्र नाम से प्रसिद्धि हुई। यद्यपि वे सब-की-सब एक समान रूपवती थीं तो भी चन्द्रमा सबसे अधिक रोहिणी पर ही प्रेम करने लगे। यह देख शेष पत्नियों के मन मे ईष्र्या हुई और उन्होंने पिता के समीप जाकर यह बात बतायी- ‘भगवन् ! हम सब बहिनों का प्रभाव एक सा है तो भी चन्द्रदेव राहिणी पर ही अधिक स्नेह रचाते हैं।’ यह सुनकर दक्ष ने कहा- ‘इनके भीतर यक्ष्मा ने प्रवेश होगा।’ इस प्रकार ब्राह्मण दक्ष के शाप से राजा सोम के शरीर में यक्ष्मा ने प्रवेश किया। यक्ष्मा से ग्रस्त होकर राजा सोम प्रजापति दक्ष के पास गये। रोष का कारण पूछने पर दक्ष ने उनसे कहा- ‘तुम अपनी सभी पत्नियों के प्रति समान बर्ताव नहीं रखते हो, उसी का यह दण्ड है।- वहाँ दूसरे ऋषियों ने सोम से कहा- ‘तुम यक्ष्मा से क्षीण होते चले जा रहे हो। अतः पश्चिम दिशा में समुद्र के तटपर जो हिसण्यसर नामक तीर्थ है, वहाँ जाकर अपने-आपको स्नान कराओ।’ तब सोम ने हिरण्यसर तीर्थ में जाकरवहाँ स्नान किया। स्नान करके उन्होंने अपने-आपको पाप से छुड़ाया। उस तीर्थ में वे दिव्य प्रभा से प्रभासित हो उठे थे, इसलिये उसी समय से वह स्थान प्रभासतीर्थ के नाम ये विख्यात हो गया। उसी शाप से आज भी चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में अमावस्या तक क्षीण होता रहता है और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक उसकी वृद्धि होती रहती है। उसका मण्डलाकार स्वरूप मेघ की श्याम रेखा से आछन्न-सा दिखासी देता है। उसके शरीर में खरगोश-सा विन्ह मेघ के समान श्यामवर्ण का है। वह स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। पूर्वकाल की बात है, मेरु पर्वत के पूर्वोत्तर भाग में स्थूलशिरा नामक महर्षि बड़ी भारी तपस्या कर रहे थें उनके तपसया करते समय सब प्रकार सुगन्ध लिये पवित्र वायु बहने लगी। उस वायु ने प्रवाहित होकर मुनि के शरीर कर सपर्श किया। तपस्या से संतप्त शरीर वाले उन कृशकाय मुनि ने उस वायु वीजित हो अपने हृदय में बड़े संतोष का अनुभव किया। वायु के द्वारा व्यजन डुलाने से संतुष्ट हुए मुनि के समक्ष वृक्षों ने तत्काल फूल की शोभा दिखलायी। इससे रुष्ट होकर मुनि ने उन्हें शाप दिया कि तुम हर समय फूलों से भरे-पूरे नहीं रहोगे। एक समय भगवान नारायण लोकहित के लिये बडवामुख नामक महर्षि हुए। जब े मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे थे, उन्हीं दिनों उन्होंने समुद्र का आव्हान किया; किन्तु वह नहीं आया। इससे अमर्ष में भरकर उन्होंने अपने शरीर की गर्मी से समुद्र को चंचल कर दिया और पसीने के प्रवाह की भाँति उसमें खारापन प्रकट कर दिया। साथ ही उससे कहा- ‘समुद्र ! तू पीने योग्य नहीं रह जायगा। तेरा यह जल बडवामुख के द्वारा बारंबार पीया जाने पर मधुर होगा।’ यह बात आज भी देखने में आती है। बडवामुखसंज्ञक अग्नि समुद्र से जल लेकर पीती है।


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