"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 349 श्लोक 58-74" के अवतरणों में अंतर

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==तीन सौ उनचासवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)==
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=एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततम (349) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ उनचासवाँ अध्याय: श्लोक 57-74 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 58-74 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
 
‘सरस्वती-पुत्र अपान्तरतम मुनि से ण्ेसा कहकर भगवान  उन्हें विदा करते हुए बोले- ‘जाओ, अपना काम करो’। ‘इस प्रकार मैं भगवान  विष्णु के कृपा-प्रसाद से पहले अपान्तरतम नाम से उत्पन्न हुआ था और अब उन्हीं श्रीहरि की आज्ञा से पुनः वसिष्ठकुलनन्दन व्यास के नाम से उत्पन्न होकर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ हूँ| ‘नारायण की कृपा से और उन्हीं के अंश से जो पहले मेरा जन्म हुआ था, उसका यह वृत्तान्त मैंने तुम सब लोगों से कहा है| ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ शिष्यगण ! पूर्वकाल में मैंने उत्तम समाधि के द्वारा अत्यन्त कठोर एवं बड़ी भारी तपस्या की थी। ‘पुत्रों ! तुम लोग मुझसे जो कुछ पूछते थे, वह सब मेंने तुम्हें कह सुनाया। तुम गुरुभक्त शिष्यों के स्नेहवश ही मैंने यह अपने पूर्वजन्म और भविष्य का वृत्तनत तुम्हें बताया है’।  
 
‘सरस्वती-पुत्र अपान्तरतम मुनि से ण्ेसा कहकर भगवान  उन्हें विदा करते हुए बोले- ‘जाओ, अपना काम करो’। ‘इस प्रकार मैं भगवान  विष्णु के कृपा-प्रसाद से पहले अपान्तरतम नाम से उत्पन्न हुआ था और अब उन्हीं श्रीहरि की आज्ञा से पुनः वसिष्ठकुलनन्दन व्यास के नाम से उत्पन्न होकर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ हूँ| ‘नारायण की कृपा से और उन्हीं के अंश से जो पहले मेरा जन्म हुआ था, उसका यह वृत्तान्त मैंने तुम सब लोगों से कहा है| ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ शिष्यगण ! पूर्वकाल में मैंने उत्तम समाधि के द्वारा अत्यन्त कठोर एवं बड़ी भारी तपस्या की थी। ‘पुत्रों ! तुम लोग मुझसे जो कुछ पूछते थे, वह सब मेंने तुम्हें कह सुनाया। तुम गुरुभक्त शिष्यों के स्नेहवश ही मैंने यह अपने पूर्वजन्म और भविष्य का वृत्तनत तुम्हें बताया है’।  

०५:०९, ३ अगस्त २०१५ का अवतरण

एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततम (349) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)=

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 58-74 का हिन्दी अनुवाद

‘सरस्वती-पुत्र अपान्तरतम मुनि से ण्ेसा कहकर भगवान उन्हें विदा करते हुए बोले- ‘जाओ, अपना काम करो’। ‘इस प्रकार मैं भगवान विष्णु के कृपा-प्रसाद से पहले अपान्तरतम नाम से उत्पन्न हुआ था और अब उन्हीं श्रीहरि की आज्ञा से पुनः वसिष्ठकुलनन्दन व्यास के नाम से उत्पन्न होकर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ हूँ| ‘नारायण की कृपा से और उन्हीं के अंश से जो पहले मेरा जन्म हुआ था, उसका यह वृत्तान्त मैंने तुम सब लोगों से कहा है| ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ शिष्यगण ! पूर्वकाल में मैंने उत्तम समाधि के द्वारा अत्यन्त कठोर एवं बड़ी भारी तपस्या की थी। ‘पुत्रों ! तुम लोग मुझसे जो कुछ पूछते थे, वह सब मेंने तुम्हें कह सुनाया। तुम गुरुभक्त शिष्यों के स्नेहवश ही मैंने यह अपने पूर्वजन्म और भविष्य का वृत्तनत तुम्हें बताया है’।

वैशम्पायन जी कहते हैं - नरेश्वर ! तुमने जैसा मुझसे प्रश्न किया था, उसके अनुसार मेंने पहले क्लेशरहित चित्त वाले अपने गुरु व्यासजी के जन्म का वृतानत कहा है। अब दूसरी बातें सुनो। राजर्षे ! सांख्य, योग, पान्चरात्र, वेद और पाशुपत-शास्त्र - इन ज्ञानों को तुम नाना प्रकार के मत समझो।। सांख्यशास्त्र के वक्ता कपिल हैं। वे परम ऋषि कहलाते हैं। योगशास्त्र के पुरातन ज्ञाता हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ही हैं, दूसरा नहीं। ब्रह्माजी के पुत्र भूतनाथ श्रीकण्ठ उमापति भगवान शिव ने शान्तचित्त होकर पाशुपत ज्ञान का उपदेश किया है।। नृपश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण पान्चरात्र के ज्ञाता तो साक्षात् भगवान नारायण ही हैं। यहद वेदशास्त्र और अनुभव के अनुसार विचार किया जाय तो इन सभी ज्ञानों मे इनके परम तात्पर्य रूप से भगवान ही स्थित दिखायी देते हैं। प्रजानाथ ! जो अज्ञान में डूबे हुए हैं, वे लोग भगवान श्रीहरि को इस रूप में नहीं जानते हैं। शास्त्र के रचयिता ज्ञानीजन उन नारायण ऋषि को ही समस्त शास्त्रों का परम लक्ष्य बताते हैं; दूसरा कोई उनके समान नहीं है - ये मेरा कथन है। ज्ञान के बल से जिनके संशय का निवारण हो गया है, उन सबके भीतर सदा श्रीहरि निवास करते हैं; परन्तु कुतर्क के बल से जो संशय मे पड़े हुए हैं, उनके भीतर भगवान माधव का निवास नहीं है| नरेश्वर ! जो पान्चरात्र के ज्ञाता हें और उसमें बताये हुए क्रम के अनुसार सेवापरायण हो अनन्य भाव से भगवान की शरण मे ंप्राप्त है, वे उन भगवान श्रीहरि में ही प्रवेश करते हैं। राजन् !सांख्य और योग - ये दो सनातन शास्त्र तथा सम्पूर्ण वेद सर्वथा यही कहते हैं और समस्त ऋषियों ने भी यही बताया है कि यह पुरातन विश्व भगवान ही हैं। स्वर्ग, अन्तरिक्ष, भूतल और जल- इन सभी स्थानों में और सम्पूर्ण लोकों में जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म होता बताया गया है, वह सब नारायण की सत्ता से ही हो रहा है- ऐसा जानना चाहिय।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में द्वैपायन की उत्पत्ति विषयक तीन सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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