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असमी भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि; जन्म नवगाँव जिले में बरदौवा के समीप अलिपुखुरी में हुआ। इनकी जन्मतिथि अब भी विवादास्पद है, यद्यपि प्राय: यह 1३७1 शक मानी जाती है। जन्म के कुछ दिन पश्चात्‌ इनकी माता सत्यसंध्या का निधन हो गया। 21 वर्ष की उम्र में सूर्यवती के साथ इनका विवाह हुआ। मनु कन्या के जन्म के पश्चात्‌ सूर्यवती परलोकगामिनी हुई।
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असमी भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि; जन्म नवगाँव जिले में बरदौवा के समीप अलिपुखुरी में हुआ। इनकी जन्मतिथि अब भी विवादास्पद है, यद्यपि प्राय: यह 13७1 शक मानी जाती है। जन्म के कुछ दिन पश्चात्‌ इनकी माता सत्यसंध्या का निधन हो गया। 21 वर्ष की उम्र में सूर्यवती के साथ इनका विवाह हुआ। मनु कन्या के जन्म के पश्चात्‌ सूर्यवती परलोकगामिनी हुई।
 
==आरंभिक जीवन==
 
==आरंभिक जीवन==
शंकरदेव ने ३2 वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थयात्रा आरंभ की और उत्तर भारत के समस्त तीर्थों का दर्शन किया। रूप और सनातन गोस्वामी से भी शंकर का साक्षात्कार हुआ था। तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात्‌ शंकरदेव ने ५४ वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। तिरहुतिया ब्राह्मण जगदीश मिश्र ने बरदौवा जाकर शंकरदेव को भागवत सुनाई तथा यह ग्रंथ उन्हें भेंट किया। शंकरदेव ने जगदीश मिश्र के स्वागतार्थ 'महानाट' के अभिनय का आयोजन किया। इसके पूर्व 'चिह्लयात्रा' की प्रशंसा हो चुकी थी। शंकरदेव ने 1४३८ शक में भुइयाँ राज्य का त्याग कर अहोम राज्य में प्रवेश किया। कर्मकांडी विप्रों ने शंकरदेव के भक्ति प्रचार का घोर विरोध किया। दिहिगिया राजा से ब्राह्मणों ने प्रार्थना की कि शंकर वेदविरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। कतिपय प्रश्नोत्तर के पश्चात्‌ राजा ने इन्हें निर्दोष घोषित किया। हाथीधरा कांड के पश्चात्‌ शंकरदेव ने अहोम राज्य को भी छोड़ दिया। पाटवाउसी में 1८ वर्ष निवास करके इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ६७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ९७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्रा आरंभ की। उन्होंने कबीर के मठ का दर्शन किया तथा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इस यात्रा के पश्चात्‌ वे बरपेटा वापस चले आए। कोच राजा नरनारायण ने शंकरदेव को आमंत्रित किया। कूचबिहार में 1४९० शक में वे वैकुंठगामी हुए। शंकरदेव के वैष्णव संप्रदाय का मत एक शरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा की प्रधानता नहीं है। धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है।
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शंकरदेव ने 32 वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थयात्रा आरंभ की और उत्तर भारत के समस्त तीर्थों का दर्शन किया। रूप और सनातन गोस्वामी से भी शंकर का साक्षात्कार हुआ था। तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात्‌ शंकरदेव ने ५४ वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। तिरहुतिया ब्राह्मण जगदीश मिश्र ने बरदौवा जाकर शंकरदेव को भागवत सुनाई तथा यह ग्रंथ उन्हें भेंट किया। शंकरदेव ने जगदीश मिश्र के स्वागतार्थ 'महानाट' के अभिनय का आयोजन किया। इसके पूर्व 'चिह्लयात्रा' की प्रशंसा हो चुकी थी। शंकरदेव ने 1४3८ शक में भुइयाँ राज्य का त्याग कर अहोम राज्य में प्रवेश किया। कर्मकांडी विप्रों ने शंकरदेव के भक्ति प्रचार का घोर विरोध किया। दिहिगिया राजा से ब्राह्मणों ने प्रार्थना की कि शंकर वेदविरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। कतिपय प्रश्नोत्तर के पश्चात्‌ राजा ने इन्हें निर्दोष घोषित किया। हाथीधरा कांड के पश्चात्‌ शंकरदेव ने अहोम राज्य को भी छोड़ दिया। पाटवाउसी में 1८ वर्ष निवास करके इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ६७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ९७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्रा आरंभ की। उन्होंने कबीर के मठ का दर्शन किया तथा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इस यात्रा के पश्चात्‌ वे बरपेटा वापस चले आए। कोच राजा नरनारायण ने शंकरदेव को आमंत्रित किया। कूचबिहार में 1४९० शक में वे वैकुंठगामी हुए। शंकरदेव के वैष्णव संप्रदाय का मत एक शरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा की प्रधानता नहीं है। धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है।
 
==रचनाएँ==
 
==रचनाएँ==
मार्कडेयपुराण के आधार पर शंकरदेव ने ६1५ छंदों का हरिश्चंद्र उपाख्यान लिखा। 'भक्तिप्रदीप' में भक्तिपरक ३०८ छंद हैं। इसकी रचना का आधार गरुड़पुराण है। हरिवंश तथा भागवतपुराण की मिश्रित कथा के सहारे इन्होंने रुक्मिणीहरण काव्य की रचना की। शंकरकृत कीर्तनघोषा में ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण तथा भागवतपुराण के विविध प्रसंगों का वर्णन है। वामनपुराण तथा भागवत के प्रसंगों द्वारा 'अनादिपतनं' की रचना हुई। अंजामिलोपाख्यान ४2६ छंदों की रचना है। 'अमृतमंथन' तथा बलिछलन का निर्माण अष्टम स्कंध की दो कथाओं से हुआ है। 'आदिदशम' कवि की अत्यंत लोकप्रिय रचना है जिसें कृष्ण की बाललीला के विविध प्रसंग चित्रित हुए हैं। 'कुरुक्षेत्र' तथा 'निमिमनसिद्धसंवाद' और 'गुणमाला' उनकी अन्य रचनाएँ हैं। उत्तरकांड रामायण का छंदोबद्ध अनुवाद उन्होंने किया। विप्रपत्नीप्रसाद, कालिदमनयात्रा, केलिगोपाल, रुक्मिणीहरण नाटक, पारिजात हरण, रामविजय आदि नाटकों का निर्माण शंकरदेव ने किया। असमिया वैष्णवों के पवित्र ग्रंथ 'भक्तिरत्नाकर' की रचना इन्होंने संस्कृत में की। इसमें संप्रदाय के धार्मिक सिद्धांतों का निरूपण हुआ है।
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मार्कडेयपुराण के आधार पर शंकरदेव ने ६1५ छंदों का हरिश्चंद्र उपाख्यान लिखा। 'भक्तिप्रदीप' में भक्तिपरक 3०८ छंद हैं। इसकी रचना का आधार गरुड़पुराण है। हरिवंश तथा भागवतपुराण की मिश्रित कथा के सहारे इन्होंने रुक्मिणीहरण काव्य की रचना की। शंकरकृत कीर्तनघोषा में ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण तथा भागवतपुराण के विविध प्रसंगों का वर्णन है। वामनपुराण तथा भागवत के प्रसंगों द्वारा 'अनादिपतनं' की रचना हुई। अंजामिलोपाख्यान ४2६ छंदों की रचना है। 'अमृतमंथन' तथा बलिछलन का निर्माण अष्टम स्कंध की दो कथाओं से हुआ है। 'आदिदशम' कवि की अत्यंत लोकप्रिय रचना है जिसें कृष्ण की बाललीला के विविध प्रसंग चित्रित हुए हैं। 'कुरुक्षेत्र' तथा 'निमिमनसिद्धसंवाद' और 'गुणमाला' उनकी अन्य रचनाएँ हैं। उत्तरकांड रामायण का छंदोबद्ध अनुवाद उन्होंने किया। विप्रपत्नीप्रसाद, कालिदमनयात्रा, केलिगोपाल, रुक्मिणीहरण नाटक, पारिजात हरण, रामविजय आदि नाटकों का निर्माण शंकरदेव ने किया। असमिया वैष्णवों के पवित्र ग्रंथ 'भक्तिरत्नाकर' की रचना इन्होंने संस्कृत में की। इसमें संप्रदाय के धार्मिक सिद्धांतों का निरूपण हुआ है।
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०७:०३, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

असमी भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि; जन्म नवगाँव जिले में बरदौवा के समीप अलिपुखुरी में हुआ। इनकी जन्मतिथि अब भी विवादास्पद है, यद्यपि प्राय: यह 13७1 शक मानी जाती है। जन्म के कुछ दिन पश्चात्‌ इनकी माता सत्यसंध्या का निधन हो गया। 21 वर्ष की उम्र में सूर्यवती के साथ इनका विवाह हुआ। मनु कन्या के जन्म के पश्चात्‌ सूर्यवती परलोकगामिनी हुई।

आरंभिक जीवन

शंकरदेव ने 32 वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थयात्रा आरंभ की और उत्तर भारत के समस्त तीर्थों का दर्शन किया। रूप और सनातन गोस्वामी से भी शंकर का साक्षात्कार हुआ था। तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात्‌ शंकरदेव ने ५४ वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। तिरहुतिया ब्राह्मण जगदीश मिश्र ने बरदौवा जाकर शंकरदेव को भागवत सुनाई तथा यह ग्रंथ उन्हें भेंट किया। शंकरदेव ने जगदीश मिश्र के स्वागतार्थ 'महानाट' के अभिनय का आयोजन किया। इसके पूर्व 'चिह्लयात्रा' की प्रशंसा हो चुकी थी। शंकरदेव ने 1४3८ शक में भुइयाँ राज्य का त्याग कर अहोम राज्य में प्रवेश किया। कर्मकांडी विप्रों ने शंकरदेव के भक्ति प्रचार का घोर विरोध किया। दिहिगिया राजा से ब्राह्मणों ने प्रार्थना की कि शंकर वेदविरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। कतिपय प्रश्नोत्तर के पश्चात्‌ राजा ने इन्हें निर्दोष घोषित किया। हाथीधरा कांड के पश्चात्‌ शंकरदेव ने अहोम राज्य को भी छोड़ दिया। पाटवाउसी में 1८ वर्ष निवास करके इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ६७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ९७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्रा आरंभ की। उन्होंने कबीर के मठ का दर्शन किया तथा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इस यात्रा के पश्चात्‌ वे बरपेटा वापस चले आए। कोच राजा नरनारायण ने शंकरदेव को आमंत्रित किया। कूचबिहार में 1४९० शक में वे वैकुंठगामी हुए। शंकरदेव के वैष्णव संप्रदाय का मत एक शरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा की प्रधानता नहीं है। धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है।

रचनाएँ

मार्कडेयपुराण के आधार पर शंकरदेव ने ६1५ छंदों का हरिश्चंद्र उपाख्यान लिखा। 'भक्तिप्रदीप' में भक्तिपरक 3०८ छंद हैं। इसकी रचना का आधार गरुड़पुराण है। हरिवंश तथा भागवतपुराण की मिश्रित कथा के सहारे इन्होंने रुक्मिणीहरण काव्य की रचना की। शंकरकृत कीर्तनघोषा में ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण तथा भागवतपुराण के विविध प्रसंगों का वर्णन है। वामनपुराण तथा भागवत के प्रसंगों द्वारा 'अनादिपतनं' की रचना हुई। अंजामिलोपाख्यान ४2६ छंदों की रचना है। 'अमृतमंथन' तथा बलिछलन का निर्माण अष्टम स्कंध की दो कथाओं से हुआ है। 'आदिदशम' कवि की अत्यंत लोकप्रिय रचना है जिसें कृष्ण की बाललीला के विविध प्रसंग चित्रित हुए हैं। 'कुरुक्षेत्र' तथा 'निमिमनसिद्धसंवाद' और 'गुणमाला' उनकी अन्य रचनाएँ हैं। उत्तरकांड रामायण का छंदोबद्ध अनुवाद उन्होंने किया। विप्रपत्नीप्रसाद, कालिदमनयात्रा, केलिगोपाल, रुक्मिणीहरण नाटक, पारिजात हरण, रामविजय आदि नाटकों का निर्माण शंकरदेव ने किया। असमिया वैष्णवों के पवित्र ग्रंथ 'भक्तिरत्नाकर' की रचना इन्होंने संस्कृत में की। इसमें संप्रदाय के धार्मिक सिद्धांतों का निरूपण हुआ है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ