"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 21-37" के अवतरणों में अंतर

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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः (12)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रम्हाजी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। इसमें नारदजी प्रजापति ब्रम्हाजी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए। फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार ब्रम्हाजी के ह्रदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रम्हाजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। विदुरजी! भगवान् ब्रम्हा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी। हमने सुना है—एक बार उसे देखकर ब्रम्हाजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी। उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वास पूर्वक समझाया।
‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रम्हा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा। जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। जिन भगवान् ने अपने स्वरुप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पति ब्रम्हाजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया। वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। एक बार ब्रम्हाजी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ ?’ इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रम्हा—इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ—ये सब भी ब्रम्हाजी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।

विदुरजी ने पूछा—तमोधन! विश्व रचयिताओं के स्वामी श्रीब्रम्हाजी ने जब अपने मुखों से इन वेदादि को रचा, तो उन्होंने अपने किस मुख से कौन वस्तु उत्पन्न की—यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी! ब्रम्हा ने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के मुख से क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेदों को रचा तथा इसी क्रम से शस्त्र (होता का कर्म), इज्या (अध्वर्यु अक कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाता का कर्म) और प्रायश्चित (ब्रम्हा का कर्म)—इन चारों की रचना की।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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