"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 18-30" के अवतरणों में अंतर

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१०:५२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः (13)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद

निष्पाप विदुरजी! ब्रम्हाजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासिकाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वाराह-शिशु निकला। भारत! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वाराह-शिशु ब्रम्हाजी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षण भर में हाथी के बराबर हो गया। उस विशाल वाराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रम्हाजी तरह-तरह के विचार करने लगे—। अहो! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था। पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हम लोगों के मन को मोहित कर रहे हैं। ब्रम्हाजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे। सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रम्हा और श्रेष्ठ ब्राम्हणों को हर्ष से भर दिया। अपना खेद दूर करने वाली मायामय वराह भगवान् की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोक निवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् के स्वरुप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराज की-सी लीला करते हुए जल में घुस गये।

पहले से सूकर रूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़े सफ़ेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकर रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की और बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया। जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरंग रूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है। तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्दत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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